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बांग्लादेश का शरिया-शिफ्ट... खालिदा जिया के बाद BNP वाली सियासत 'सुपुर्द-ए-जमात'

खालिदा जिया के निधन के साथ बांग्लादेश की राजनीति में एक युग समाप्त हो गया. यह किसी एक नेता की मौत भर नहीं थी, बल्कि उस भ्रम का भी अंत था कि कट्टरपंथ को सत्ता की राजनीति में साधा जा सकता है. BNP ने हर बार कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्‍लामी को नई सांस दी, और अब वही जमात आगामी चुनाव में BNP को ध्‍वस्‍त करने के लिए आ खड़ा हो गया है.

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खालिदा जिया की पार्टी BNP ने जिस इस्‍लामिक नेशनलिज्‍म के दम पर राज किया, अब वही जमात-ए-इस्‍लामी के रूप में चैलेंजर बन गया. (फोटो- )
खालिदा जिया की पार्टी BNP ने जिस इस्‍लामिक नेशनलिज्‍म के दम पर राज किया, अब वही जमात-ए-इस्‍लामी के रूप में चैलेंजर बन गया. (फोटो- )

बांग्‍लादेश नशनलिस्‍ट पार्टी (BNP) के महासचिव मिर्जा फखरुल इस्‍लाम आलमगीर कहते हैं कि 'अब हम बांग्‍लादेश में कोई कानून कुरान और सुन्‍नत के दायरे के बाहर नहीं बनने देंगे.' आलमगीर वही दोहरा रहे हैं जो 17 साल निर्वासित रहकर लंदन से बांग्‍लादेश लौटे BNP के एक्टिंग चेयरमैन तारीक रहमान अपने पहले भाषण में कह रहे थे, कि वे बांग्‍लादेश में शरिया कानून लागू करना चाहते हैं.

BNP की चेयरपर्सन रहीं बेगम खालिदा जिया के निधन के साथ आज बांग्लादेश और उनकी पार्टी के सामने एक मुश्किल सच्चाई आ खड़ी हुई है. BNP अब पहले की तरह अपनी शर्तों पर मुस्लिम राष्‍ट्रवाद की राजनीति करती नहीं दिख रही है. उस पर अब जमात-ए-इस्लामी का दबाव और उसकी दिशा में चलने की मजबूरी साफ नजर आती है. बांग्‍लादेश की स्‍थापना करने वाले मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार के खात्‍मे के बाद सैनिक शासक जियाउर रहमान ने जो BNP बनाई थी, अब उसे उसी जमात-ए-इस्‍लामी से मोर्चा लेना पड़ रहा है, जिसे उन्‍होंने अपने शासनकाल में नई जान दी थी.

दरअसल, जमात-ए-इस्‍लामी ने 1971 में न सिर्फ बांग्‍लादेश के जन्म का विरोध किया था, बल्कि पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर आम लोगों और बुद्धिजीवियों को मौत के घाट उतारा. आज वही जमात बांग्लादेश की मुख्यधारा की राजनीति में सबसे आक्रामक, सबसे संगठित और सबसे प्रभावशाली ताकत बनकर खड़ी है. उसका प्रभाव इतना ताकतवर हो गया कि छात्रों की बनाई पार्टी NCP के साथ गठबंधन के बाद उसे BNP का सबसे प्रमुख विरोधी मोर्चा माना जा रहा है.

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बांग्लादेश 1971 में धर्मनिरपेक्ष विचार के साथ पैदा हुआ था. यह पाकिस्‍तान के इस्लामी राष्ट्रवाद के खिलाफ विद्रोह था, जिसमें भारत जैसा सेकुलर देश बांग्‍लादेशी क्रांतिकारियों की मदद कर रहा था. और दूसरी तरफ थी जमात-ए-इस्लामी, जो उसी विद्रोह के खिलाफ खड़ी थी. युद्ध के बाद जमात पर प्रतिबंध लगा. यह कोई बदले की कार्रवाई नहीं थी, बल्कि एक राष्ट्र की नैतिक रेखा थी. लेकिन 1975 के बाद यह रेखा धुंधली पड़ने लगी. अब लगभग खत्‍म हो गई है.

जिया-उर-रहमान ने संविधान बदला, दिशा बदली

1975 में पाकिस्‍तान से बांग्‍लादेश को मुक्‍त कराने वाले मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार को एक सैनिक साजिश के तहत खत्‍म कर दिया गया. फिर जनरल जिया-उर-रहमान ने सत्ता संभालते ही बांग्लादेश की आत्मा पर पहला बड़ा हस्तक्षेप किया. संविधान से धर्मनिरपेक्षता हटी.दिखाया गया कि अब बांग्‍लादेश का निजाम 'अल्लाह के हवाले' है. यह बदलाव सांकेतिक नहीं था. और यहीं से जमात के लिए वापसी का रास्ता खुला. उस पर लगा बैन हटा.

पति की मौत के बाद खालिदा जिया का सबसे बड़ा राजनीतिक समझौता

जिया की मौत के बाद सैनिक तानाशाही के बाद 1991 में बांग्‍लादेश की सत्‍ता में खालिदा जिया की वापसी हुई. उन्‍होंने राजनीति को आदर्शों से नहीं, चुनावी गणित से देखा. अवामी लीग को हराने के लिए उन्हें वह वोट चाहिए था जो सिर्फ जमात के पास था. BNP-जमात गठबंधन सत्ता के लिए किया गया सौदा था. जिसमें शर्त साफ थी. 1971 में जमात के रोल पर चुप्पी. यानी, तब BNP ने सत्ता तो पा ली, लेकिन अपने पैर पर कुल्‍हाड़ी मारकर.

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जमात पर कुछ अंकुश लगा शेख हसीना के रहते

बांग्‍लादेश की राजनीति में एक दौर ऐसा भी आया जब मुजीबुर्रहमान के परिवार की वारिस शेख हसीना के हाथ बांग्‍लादेश की बागडोर आई. 90 और 2000 के दशक में जब जब शेख हसीना को ताकत मिली, उन्‍होंने कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्‍लामी को न सिर्फ बैन किया, बल्कि 1971 के अपराधी जमात नेताओं को सजा दिलाने का भी काम किया. जमात पर बढ़ते दबाव का असर ये हुआ कि कट्टरपंथी ताकतें या तो अंडरग्राउंड हो गईं या BNP की आड़ में छुप गईं.

BNP का भ्रम, जो आज टूट चुका है

BNP नेतृत्व को भरोसा था कि जमात को इस्तेमाल किया जा सकता है. यह भरोसा गलत था. जमात ने खुद को बदला नहीं, उसने सिर्फ धैर्य रखा. मदरसे, छात्र संगठन, मस्जिदों में उसका नेटवर्क फैलता गया. और BNP सोचती रही कि नियंत्रण उसके हाथ में है. लेकिन, शेख हसीना सरकार को ठिकाने लगाने के बाद जमात-ए-इस्‍लामी और छात्र संगठनों का आत्‍मविश्‍वास नए लेवल पर चला गया है. ऐसे में BNP के हाथ में जो सत्‍ता का रिमोट था, उसकी बैटरी अब कमजोर पड़ती दिख रही है. अब उसे इतना ही आसरा है कि वह थोड़ा लिबरल भी दिखे ताकि परंपरागत विरोधी पार्टी शेख हसीना की आवामी लीग पार्टी के वोट उसे मिल पाएं. कुलमिलाकर, BNP बनाम जमात का मुकाबला कम कट्टर बनाम फुल कट्टर के बीच की लड़ाई है. क्‍योंकि, सेकुलर शेख हसीना तो गेम से बाहर ही हैं.

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अब सवाल यह नहीं है कि जमात सत्ता में आएगी या BNP, पूछा ये जाना चाहिए कि क्या बांग्लादेश अपनी 1971 वाली आत्मा को बचा पाएगा या नहीं? खालिदा जिया की मौत के साथ वह भ्रम भी दफन हो गया कि कट्टरपंथ को राजनीतिक सौदों से काबू में रखा जा सकता है.

इतिहास एक ही गलती बार-बार याद दिलाता है. कट्टरपंथ को जब मेनस्‍ट्रीम में जगह दी जाती है, तो वह मेनस्‍ट्रीम को ही निगल लेता है. खालिदा जिया सुपुर्द-ए-खाक हैं. और BNP धीरे-धीरे सुपुर्द-ए-जमात. अब बांग्लादेश के सामने सिर्फ एक विकल्प है. 1971 के बने बांग्‍लादेश वाला रास्ता, या उस राजनीति का अंतहीन अंधकार जिसे उसने खुद पालकर उसने बड़ा किया.

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