राजस्थान में विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने अभी तक जो संकेत दिए हैं उससे यही लगता है कि राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे किनारे लगाई जा चुकी हैं. बीजेपी उन्हें किसी भी तरह की कोई खास भूमिका देने के मूड में नहीं दिखाई दे रही है. दोनों चुनाव समितियों में उनका और उनके समर्थकों का न होना, पीएम मोदी के स्टेज पर बार-बार भाव न मिलना आदि तो यही इशारा करता है.
दूसरी ओर वसुंधरा को जो लोग नजदीक से जानते हैं उनका कहना है कि वो चुपचाप बैठकर तमाशा देखने वालों में से नहीं हैं. समर्थकों के दबाव के चलते बीजेपी आलाकमान से अपने अपमान का बदला लेने के लिए वो कुछ भी कर सकती हैं. वो नया दल बना सकती हैं और पार्टी में रहते हुए भी बहुत कुछ कर सकती हैं. बीजेपी का नुकसान करने के लिए वो पार्टी में रहते हुए चुनाव की घोषणा होने के बाद राजस्थान के दौरे पर निकल सकती हैं. अगर वो ऐसा कुछ नहीं भी करती हैं तो भी बीजेपी को बहुत नुकसान हो सकता है. ये पांच बातें यही इशारा कर रही हैं.
1- राजस्थान में जीत हार का अंतर बहुत कम
आंतरिक कलह से जूझती कांग्रेस ने अपने मसले सुलझा लिए हैं. अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच द्वंद्व वाली खबरें आनी बंद हो गईं हैं.अशोक गहलोत के कल्याणकारी कार्यक्रमों को जनता के बीच ले जाया जा रहा है तो दूसरी ओर बीजेपी बिना किसी चेहरे के चुनाव लड़ने की तैयारी में है.पिछले चुनाव ( 2018) के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि 5 प्रतिशत से कम अंतर से करीब 30 प्रतिशत सीटें जीतीं गईं हैं. 2003 और 2008 के चुनावों में तो और भी कड़ा मुकाबला रहा है. कांग्रेस-बीजेपी ने 41.5 प्रतिशत से ज्यादा सीटें मामूली अंतर से जीतीं थीं.कहने का मतलब इतना ही है कि अगर वसुंधरा ने 5 प्रतिशत वोट भी इधर उधर किए तो बीजेपी के साथ खेला हो जाएगा.
2- केवल 0.5% वोट ही कम थे और बीजेपी को विपक्ष में बैठना पड़ा
पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार का अंतर कांग्रेस की तुलना में वोट शेयर का महज 0.5% था. यानी कुल वोट में कांग्रेस केवल .5 परसेंट वोट से बीजेपी से आगे थी. लेकिन इस बार बीजेपी महिला प्रवासी अभियान के माध्यम से महिला मतदाताओं पर ध्यान केंद्रित कर रही है, जिसका मकसद 5 प्रतिशत वोटों के मामूली अंतर से हारी हुई सीटों को फिर से हासिल करना है. महिलाओं के बीच वसुंधरा बहुत लोकप्रिय रही हैं. पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि महिलाओं के बीच अपनी मजबूत छवि के कारण पूर्व सीएम वसुंधरा को इस अभियान में सबसे आगे रखना चाहिए था.
3- महिला वोट और वसुंधरा राजे का समीकरण
महिलाओं के वोट से हाल फिलहाल में हुए कई चुनावों में बीजेपी को महत्वरपूर्ण जीत मिली है. जब वसुंधरा राजे राज्य की मुख्यमंत्री थीं तब महिलाओं में पार्टी के सबसे लोकप्रिय चेहरे के रूप में विख्यात थीं. महिलाओं के बीच उनकी लोकप्रियता का नमूना उन्होंने रक्षा सूत्र वाले कार्यक्रम में देखने को मिला था. जब पार्टी साथ नहीं है फिर में भारी पैमाने पर महिलाएं उन्हें रक्षा सूत्र बांधने आईं . चुनावों में उनकी मौजूदगी महिला वोटरों को बीजेपी की ओर खींचने में कारगर होतीं. पार्टी को हिमाचल और कर्नाटक में मिली हार का प्रमुख कारण महिलाओं का वोट नहीं मिलना रहा है. पिछले कुछ चुनावों में राजस्थान में मतदान के मामले में महिलाओं ने पुरुषों से बेहतर प्रदर्शन किया है. 2013 और 2018 में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से अधिक रहा है. कांग्रेस सरकार में महिलाओं पर अत्याचार बढ़ने का आरोप लगाकर बीजेपी ने जो माइलेज लिया था वसुंधरा के चलते गंवाना पड़ सकता है.
4- राजपूत, जाट और गुर्जर- तीनों को साधने की कला
वसुंधरा अपने को क्षत्राणि की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों को समधन कह कर राज्य में राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण तीनों जातियों को साधतीं रहीं हैं. वसुंधरा के बेटे की शादी गुर्जर समुदाय में हुई है. इसके साथ ही राजस्थान के गुर्जरों के वोट बीजेपी के परंपरागत रूप से मिलते रहे हैं. चूंकि गुर्जरो के कट्टर प्रतिस्पर्धी मीणाओं के वोट कांग्रेस को जाते रहे हैं इसलिए गुर्जर बीजेपी को सपोर्ट करते रहे हैं. वसुंधरा ने गुर्जरों से रोटी-बेटी का रिश्ता करके इसे और मजबूत बनाया. अगर वसुंधरा बीजेपी से नाराज होती हैं तो गुर्जरों का वोट कांग्रेस की ओर जा सकता है. इसका एक बड़ा कारण सचिन पायलट भी हैं. सचिन एक बार फिर से कांग्रेस की वापसी के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए हैं.50 सीटों पर मीणा वोटर निर्णायक भूमिका में हैं
जाट समाज में वसुंधरा की शादी होने से वसुंधरा ने जाटों के वोट को बीजेपी की ओर मोड़ने में सफलता पाई थी. जाट पहले कांग्रेस को वोट देते रहे हैं. वे जागीरदारी व्यवस्था को खत्म करने और उन्हें भूमि अधिकार देने के लिए कांग्रेस पार्टी का अहसान मानते रहे हैं. जाट समाज के राजनीतिक जागरूकता का नतीजा है कि प्रदेश में हर चुनाव में 10 से 15% विधायक जाट चुने जाते हैं. 2013 के चुनाव 31 जाट विधायक चुने गए. करीब 50 से 60 विधानसभा सीटों पर जाट वोटर असर डालते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा 1999 में शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के लिए उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) करना, 1998 में मुख्यमंत्री के रूप में परसराम मदेरणा की जगह अशोक गहलोत को चुनने का कांग्रेस का निर्णय और फिर बाद में वसुंधरा की ताजपोशी ने जाटों को बीजेपी का बना दिया.
5- वसुंधरा की संगठन पर तगड़ी पकड़, 40 सीटों पर वसुंधरा नुकसान पहुंचा सकती हैं बीजेपी को
वसुंधरा राजे का पार्टी के संगठन पर तगड़ा असर रहा है. राजस्थान के हर कोने में उनके आदमी हैं. हर विधानसभा सीट पर उनके कुछ लोग हैं. बीजेपी से इतर कई बार रैलियां कर या यात्राएं सफलतापूर्वक निकालकर उन्होंने इसका सबूत दिया है. पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं वसुंधरा राजस्थान में बीस से पच्चीस सीटों पर बीजेपी को नुकसान पहुंचाने की कूवत रखती हैं. क्योंकि वसुंधरा अपने समर्थकों को इशारा कर सकती हैं कि अगर उन्हें पार्टी टिकट नहीं देती है तो वो निर्दलीय चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र है.शायद यही कारण है कि वसुंधरा को पार्टी पूरी तरह से अलग-थलग नहीं कर रही है.