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बंगाल में खामोशी से हो रहा डेमोग्राफिक बदलाव और 'चिकन नेक' पर बॉर्डर पार से बढ़ता दबाव

बांग्लादेश से जारी घुसपैठ और जनसंख्या बदलाव ने पश्चिम बंगाल की सामाजिक बनावट को हिला दिया है. धार्मिक, राजनीतिक और भौगोलिक वजहों से हालात धीरे-धीरे एक 'नई बंटवारे' की ओर बढ़ते दिख रहे हैं. चिकन नेक यानी सिलीगुड़ी कॉरिडोर जैसे संवेदनशील इलाके सबसे ज्यादा खतरे में हैं.

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बांग्लादेश में इस्लामवाद के बढ़ने के साथ-साथ वहां एंटी-हिंदू सोच और नीतियां हावी होने लगीं.
बांग्लादेश में इस्लामवाद के बढ़ने के साथ-साथ वहां एंटी-हिंदू सोच और नीतियां हावी होने लगीं.

बंगाल से ताजा खबर ये है कि स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में है. राज्य के कुछ हिस्सों की हालत मिलिट्री की ज़ुबान में कहें तो SNAFU है यानी सब गड़बड़. बंगाल और बांग्लादेश सिर्फ एक जैसा नाम ही नहीं हैं बल्कि अब बांग्लादेश की रूह खुले बॉर्डर से धीरे-धीरे इस पार घुस आई है. ये सिर्फ मुस्लिम आबादी बढ़ने की बात नहीं है, बल्कि उस विदेशी तत्व की बात है जो इस बढ़ोतरी में शामिल है और जो 'चिकन नेक' का गला घोंट रहा है. 

पश्चिम बंगाल का बॉर्डर सालों से ऐसा दरवाजा बना हुआ है जो कभी बंद ही नहीं होता. आने-जाने वालों की कहानियां, पहचान का झगड़ा और आबादी में बदलाव की लंबी कहानी इसी से होकर गुजरी है. बंगाल को पहली बार एडमिनिस्ट्रेशन के लिए बांटा गया था और दूसरी बार आजादी के वक्त धर्म के नाम पर बंटवारा हुआ जब मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बना और हिंदुओं या जो भी यहां रहना चाहें उनके लिए इंडिया.

हम अक्सर पश्चिमी पाकिस्तान में हुए खून-खराबे की बातें सुनते हैं. लेकिन पूर्वी सीमा पर जो हुआ उस पर कम बात होती है. वो कोई सीधी-सादी अदला-बदली नहीं थी. यहां सब कुछ घालमेल था. बंगाली हिंदू और मुसलमान दोनों ही तरफ रह गए. जब पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं पर ज़ुल्म बढ़ा या फिर 1971 में जब पाक की फौज ने वहां दमन किया, तब भारत वहां के नागरिकों के लिए एक स्वाभाविक पनाहगाह बन गया. बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान एक करोड़ से ज्यादा शरणार्थी(इनमें ज़्यादातर हिंदू थे) भारत आए. जिनमें से करीब 65 लाख यहीं रह गए. उस समय बहुत से मुस्लिम भी आए थे, लेकिन वो बांग्लादेश बनने के बाद वापस चले गए. हिंदू ज़्यादातर नहीं लौटे.

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बांग्लादेश ने धर्म निरपेक्षता का वादा किया था, लेकिन धीरे-धीरे वहां इस्लामी सोच हावी हो गई. हिंदुओं को सेकंड-क्लास सिटीजन बना दिया गया. 1980 के बाद इस्लामिक संगठनों की पकड़ मजबूत होती गई. इसमें सऊदी के पैसे से चलने वाले मदरसों और ईरान की 1979 की क्रांति का असर भी था. कट्टरपंथी इस्लाम को बढ़ावा मिला. अल्पसंख्यकों को किनारे किया गया. और, नए सिरे से हिंदुओं का माइग्रेशन भारत की तरफ होने लगा. 4,096 किलोमीटर का ये बॉर्डर किसी छलनी से कम नहीं है. इसके रास्ते सिर्फ शरणार्थी ही नहीं, बल्कि बहुत से आर्थिक कारणों से आने वाले लोग भी आ गए, जो ज़्यादातर मुस्लिम थे. असम से लेकर कोलकाता तक ये लोग बसते गए. 

1951 में पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी 20% थी. 2011 में ये 27% पहुंच गई. इसके बाद कोई जनगणना नहीं हुई, लेकिन कहा जाता है कि आज ये आंकड़ा 30% से भी ऊपर हो सकता है. इसके अलावा UN के मुताबिक, बांग्लादेश से आए 10 लाख से ज्यादा रोहिंग्या रिफ्यूजीज भी भारत में हैं. अब ये लोग बड़े आराम से भारतीय शहरों में घुल-मिल गए हैं. इनके पास आधार कार्ड है, वोटर ID है, यानी अब ये लोग 'डि फैक्टो' सिटीजन बन चुके हैं.

चलिए अब जरा तीन जिलों पर फोकस करते हैं, जहां डेमोग्राफिक कहानी और ज्यादा गहरी होती जा रही है:

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मुर्शिदाबाद: 1951 में यहां मुसलमान थे 55%, हिंदू 45%. 2011 आते-आते मुसलमान 66% हो गए, हिंदू घटकर 33% रह गए. ये बढ़ोतरी धीरे-धीरे हुई, माइग्रेशन और ज्यादा बच्चों की वजह से (NFHS-5 के मुताबिक मुस्लिम TFR (Total Fertility Rate) 2.4है, जबकि हिंदू का सिर्फ 1.6).  

मालदा: 1951 में मुस्लिम आबादी थी 37% और हिंदू 62%. 2011 में मुस्लिम 51.27% और हिंदू 48% रह गए. मतलब, तस्वीर लगभग पलट गई. इसका क्रेडिट बॉर्डर पार से घुसपैठ और नेचुरल ग्रोथ दोनों को जाता है.

उत्तर दिनाजपुर: यहां 1951 में मुसलमान थे 39% और हिंदू 60%. 2011 में मुस्लिम आबादी पहुंच गई 49.92% और हिंदू भी लगभग 49% के साथ बराबरी पर रहे यानि मामला नेक-टू-नेक है… और अब 'चिकन नेक' धीरे-धीरे कांपने लगा है.

ये आंकड़े सिर्फ जनगणना के नंबर नहीं हैं. ये पूरा जियो-पॉलिटिकल पहेली है. भारत के पूर्वोत्तर को जोड़ने वाला पतला सा रास्ता- सिलीगुड़ी कॉरिडोर, यानी वही 'चिकन नेक' - उत्तर दिनाजपुर से होकर गुजरता है. ऐसे में इस जिले की बदलती डेमोग्राफी एक बड़ा स्ट्रैटेजिक सिरदर्द बन चुकी है.

बांग्लादेश में इस्लामवाद के बढ़ने के साथ-साथ वहां एंटी-हिंदू सोच और नीतियां हावी होने लगीं. 1990 के बाद ये असर सरहद पार भी महसूस होने लगा. मालदा और मुर्शिदाबाद में रैडिकल नेटवर्क्स की रिपोर्ट आने लगीं. बॉर्डर के इस पार विस्फोटकों और नकली नोटों की स्मगलिंग का बड़ा अड्डा भी बन गया- जिससे ये 'पड़ोसी प्रेम' जैसी बातें बेमानी लगीं. यहां की एक बड़ी आबादी, जिसे ठग तो नहीं कह सकते, पर ऐसी जरूर है जिसका इस जमीन से कोई खास लगाव, अपनापन या वफादारी नहीं दिखती.

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अब जरा 'चिकन नेक' के नीचे के तीन जिलों की तस्वीर देखिए:

उत्तर 24 परगना: यहां 1951 में मुस्लिम आबादी थी 19% और हिंदू 80%. लेकिन 2011 तक मुसलमान 25.82% और हिंदू 73.46% रह गए. 2001 में मुस्लिम थे 24.22%, यानी 10 साल में करीब 1.6% का इजाफा. ये कोई आम जिला नहीं है - पूरे 1 करोड़ की आबादी वाला बड़ा जिला है. एक तरफ कोलकाता के पास अर्बन एरिया है, दूसरी तरफ बॉर्डर से सटे गांव हैं जहां घुसपैठ का पूरा स्कोप है. यहां स्मगलिंग और फर्जी ID कार्ड का पूरा रैकेट फल-फूल रहा है.

दक्षिण 24 परगना: यहां 1951 में मुस्लिम आबादी करीब 20% थी. 2011 आते-आते ये बढ़कर 35.57% हो गई- यानी करीब 15% की छलांग.

बीरभूम: 1951 में मुसलमान थे 22% और हिंदू 77%. 2011 में मुस्लिम 37.06% हो गए और हिंदू घटकर 62.29% रह गए. 2001 में मुस्लिम 35.08% थे, यानी 10 साल में 2% की बढ़त. NFHS-5 के अनुसार मुस्लिम TFR (Total Fertility Rate) है 2.3, जबकि हिंदू का सिर्फ 1.6. अब जरा सोचिए - 1951 से अब तक 15% का उछाल किसी बॉर्डर से ना लगे जिले में हो रहा है. अगर ये घुसपैठ नहीं है, तो फिर क्या है?

इन सभी जिलों में ना कोई जबरदस्त इंडस्ट्रियल ग्रोथ हुई है, ना कोई ऐसा डेवलपमेंट जिससे एक ही कम्युनिटी की जनसंख्या इस स्पीड से बढ़े और दूसरी की हिस्सेदारी लगातार घटती जाए. कोई ये नहीं कह रहा कि ये कोई बहुत बड़ी साजिश है, लेकिन बात इतनी सी है कि ये नॉर्मल नहीं है. और इतनी तेजी से बदलती डेमोग्राफी, वो भी भारत की पूर्वी सीमा जैसे संवेदनशील एरिया में, लंबे समय तक टिकाऊ नहीं हो सकती.

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जब इंडिया और दुनिया भर में एंटी-मुस्लिम सेंटीमेंट्स तेज हैं, ऐसे वक्त में किसी एक समुदाय को अलग करके पैटर्न देखना आसान नहीं है. ये थोड़ा असहज जरूर लगता है, लेकिन सच्चाई अक्सर ऐसी ही होती है. सच ये है कि बांग्लादेश, जो कभी एक प्रोग्रेसिव और मॉडल इस्लामिक समाज था, अब धीरे-धीरे एक कट्टर इस्लामिक देश बन गया है. सच ये भी है कि बंगाल में मुस्लिम आबादी में जो तेजी से बढ़ोतरी हो रही है, वो सिर्फ ज्यादा बच्चों की वजह से नहीं, बल्कि घुसपैठ की वजह से भी हो रही है. मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी को लेकर तो हिंदुत्व वाले लंबे समय से आवाज उठाते आए हैं, लेकिन बंगाल का मामला अलग है - क्योंकि यहां लोकेशन और सिचुएशन दोनों खास हैं. बांग्लादेश के चीफ एडवाइजर मुहम्मद यूनुस ने पूर्वोत्तर को लेकर जो बयान दिए थे, उसने माहौल को और बिगाड़ा है. विदेशी साजिश छोड़िए, आज देश के अंदर ही एक हलचल चल रही है, जो अगर बढ़ी, तो नॉर्थईस्ट की 'सेवन सिस्टर्स' को मेनलैंड इंडिया से काटने की स्थिति में आ सकती है.

बीजेपी 1980 के दशक से अलार्म बजा रही है. वादा कर रही है कि 'घुसपैठियों' को देश से बाहर निकालेगी. लेकिन सच तो ये है कि ये काम बने हुए ऑमलेट को फिर से अंडा बनाने जैसा है. माइग्रेशन अब डेमोग्राफिक फैब्रिक का हिस्सा बन चुका है. अब अगर कोई कोशिश की जाती है कि कौन इंडियन है और कौन बांग्लादेशी, तो बात फौरन कम्युनल तनाव की तरफ चली जाती है - खासतौर पर तब जब बीजेपी और मुसलमानों के रिश्ते पहले से ही ठंडे हैं. ये मुद्दा ना तो तृणमूल की इलेक्शन मैथ्स में फिट बैठता है, और कांग्रेस और लेफ्ट तो इतने कमजोर हो चुके हैं कि उनका कुछ खास फर्क भी नहीं पड़ता. भारत की सेक्युलर राजनीति एक ऐसा 'टाइटरोप वॉक' बन चुकी है, जहां बॉर्डर सिक्योरिटी या निष्ठा जैसे सवाल उठते ही आरोप-प्रत्यारोप की चीखें शुरू हो जाती हैं, और असल बात कहीं दब जाती है.

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इधर, कुछ जिले जो बेहद संवेदनशील हैं और रणनीतिक तौर पर बहुत अहम भी, वहां एक अलग ही माहौल बनता जा रहा है. कागज पर भले ना दिखे, लेकिन जमीन पर एक 'नई बंटवारे' जैसी स्थिति बनती दिख रही है. कोई नेता का बयान हो, फिलिस्तीन में कोई घटना, भारत में कोई कानून पास हो जाए, लंदन में छपी कोई किताब हो, डेनमार्क में बना कोई कार्टून या फिर पेरिस में कोई सेमिनार - कुछ भी हों, ये सब कुछ यहां बारूद के ढेर को चिंगारी देने के लिए काफी है. ऐसे में कट्टरपंथी ग्रुप्स हालात को इस तरह घेर लेते हैं कि राज्य की मशीनरी समझौते की भीख मांगती नजर आती है, और इस पूरे प्रोसेस में वही ग्रुप और ज्यादा ताकतवर हो जाते हैं. देशभर में हिंदू-मुस्लिम के बीच बढ़ती दूरी भी इस 'चक्की' में और आटा डालती जा रही है.

पश्चिम बंगाल इस समय एक 'डेमोग्राफिक डांस' में फंसा हुआ है - थोड़ा इतिहास का असर, थोड़ा भूगोल का, और थोड़ा राजनीति का. बॉर्डर में अब भी दरार है, आंकड़े अब भी बदल रहे हैं, और सिलीगुड़ी कॉरिडोर सांस रोककर बैठा है. किस्मत की कहानी अब हर एक माइग्रेंट के साथ धीरे-धीरे लिखी जा रही है... और आगे का पन्ना क्या कहेगा - इसका अंदाजा किसी को नहीं है.

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(कमलेश सिंह, कॉलमनिस्ट और सटायर लेखक हैं. वे इंडिया टुडे डिजिटल के पूर्व न्यूज डायरेक्टर रह चुके हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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