वक्फ बिल को लेकर सुप्रीम कोर्ट में होने वाली बहस को केंद्र में रखते बीजेपी के कुछ सांसदों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ही नहीं, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी सुप्रीम कोर्ट पर सुपर संसद बनने का आरोप लगाया. इन सब आलोचनाओं को लेकर विपक्ष एनडीए सरकार पर हमलावर है. विपक्ष विशेषकर कांग्रेस का आरोप है कि सरकार संवैधानिक व्यवस्था को खत्म करना चाहती है. पर देश का न्यायिक इतिहास बताता है कि यह कोई नई परंपरा नहीं है. अपने हित में सुप्रीम कोर्ट के फैसले न आने पर पहले भी सरकारों के निशाने पर सुप्रीम कोर्ट रहा है.
1970 के दशक में, इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में न्यायपालिका का सबसे बुरा दौर शुरू होता है. सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में प्रतिबद्ध न्यायपालिका का (committed judiciary) की शुरूआत यहीं से होती है. 1973 में सरकार के खिलाफ फैसला सुनाने के चलते कुछ वरिष्ठ जजों को नजरअंदाज करके जस्टिस ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया. केशवानंद भारती मामले में जस्टिस जे.एम. शेलट, जस्टिस के.एस. हेगड़े और जस्टिस ए.एन. ग्रोवर ने सरकार के खिलाफ फैसले सुनाए थे, शायद सरकार को उनका यह कदम पसंद नहीं आया . इस कदम को सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता पर हमले के रूप में देखा गया था.
आपात काल 1975-77 के दौरान, कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट पर नियंत्रण की कोशिश की. जस्टिस एच.आर. खन्ना ने एडीएम जबलपुर मामले में असहमति जताते हुए कहा था कि आपातकाल में भी नागरिकों के मौलिक अधिकार पूरी तरह निलंबित नहीं हो सकते. खन्ना को मुख्य न्यायाधीश बनना था पर उनकी जगह जस्टिस एम.एच. बेग को सीजेआई बनाया गया.इसे सुप्रीम कोर्ट के जजों को सबक सिखाने की कोशिश के रूप में देखा गया. ये तो रही पुरानी बातें पर अभी हाल ही में देखा जाए तो कई मौकों पर कांग्रेस और विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के लिए जजों को कठघरे में खड़ा कर दिया.
1. राफेल सौदा मामला
राफेल लड़ाकू विमान सौदे को प्रभावित करने का आरोप केंद्र सरकार पर लगा था. मामले की सुप्रीम कोर्ट ने जांच की और फैसला सुनाया कि सौदे में किसी भी तरह अनियिमितता नहीं दिख रही है, इसलिए जांच की जरूरत नहीं है. कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ कांग्रेस ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की. राहुल गांधी ने इस फैसले के बाद भी चौकीदार चोर है जैसे नारे को दोहराया. जिसे अप्रत्यक्ष रूप से कोर्ट के फैसले पर हमला माना गया. राहुल ने कहा कि कोर्ट का फैसला सरकार के प्रभाव में हो सकता है. इस बयान पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया और राहुल को अवमानना नोटिस जारी किया. बाद में, राहुल को इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी.
2. जस्टिस दीपक मिश्रा के कई फैसलों पर एतराज
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) दीपक मिश्रा के खिलाफ के खिलाफ कांग्रेस हाथ धोकर पीछे पड़ी हुई थी. दीपक मिश्रा की कई फैसले और निर्णय कांग्रेस को पसंद नहीं आए.2017 में, CBI ने आरोप लगाया था कि कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट में एक मेडिकल कॉलेज के पक्ष में फैसला सुनवाने की कोशिश कर रहे थे. इस मामले में जस्टिस मिश्रा की बेंच ने सुनवाई की, जो विपक्ष को पसंद नहीं आया. कांग्रेस ने इसे CJI की निष्पक्षता पर सवाल के रूप में पेश किया. प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट से जुड़े एक मामले में, जस्टिस मिश्रा की बेंच ने सुनवाई की, जबकि यह आरोप था कि इस मामले में हितों का टकराव हो सकता है. विपक्ष ने दावा किया कि इस तरह के मामलों में CJI की भागीदारी ने कोर्ट की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया. कांग्रेस ने इस तरह का मौहाल बनाने की कोशिश की कि कोर्ट ने आधार मामले, सहारा-बिड़ला डायरी मामले में सरकार के प्रति नरम रुख अपनाया.
3. राम मंदिर और अयोध्या फैसला
2019 में, सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक अयोध्या फैसले, जिसमें राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ. हालांकि कांग्रेस ने ऑफिशियली इस फैसले के खिलाफ कुछ नहीं कहा. पर कांग्रेस नेताओं ने इस तरह का माहौल बनाया कि सरकार के दबाव में रंजन गोगोई को फैसला करना पड़ा. कांग्रेस के कुछ नेताओं जैसे कपिल सिब्बल, ने पहले कोर्ट में मामले को लंबा खींचने की कोशिश की थी. फैसले के बाद, कांग्रेस के कुछ नेताओं ने इसे हिंदू भावनाओं के दबाव में लिया गया फैसला बताया. जाहिर है कि इससे कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल उठे.
4. CAA और NRC पर फैसले
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) से संबंधित मामलों पर देश में जमकर राजनीति हो रही थी.सुप्रीम कोर्ट ने सरकर के बनाए कानून पर किसी भी तरह से रोक लगाने से मना कर दिया. सुप्रीम कोर्ट का यह रुख कांग्रेस को पसंद नहीं आया. कांग्रेस नेताओं ने कोर्ट को निष्क्रिय करार दिया और दावा किया कि यह सरकार के एजेंडे का समर्थन कर रहा है. सोनिया गांधी और अन्य नेताओं ने सार्वजनिक मंचों पर कोर्ट के रवैये को न्याय की विफलता बताया था.
5. चुनावी बांड मामलों में
कांग्रेस ने चुनावी बांड मामलों में सुप्रीम कोर्ट के रुख की विपक्ष ने कई कारणों से आलोचना की थी. विपक्ष का कहना था कि चुनावी बांड योजना राजनीतिक दलों में होने वाली फंडिंग की पारदर्शिता को कम करती है. इस योजना के तहत गुमनाम दान की अनुमति होती है, जिसके कारण मतदाताओं को यह पता नहीं चल पाता कि कौन से व्यक्ति या संगठन राजनीतिक दलों को धन दे रहे हैं. विपक्ष इसे लोकतंत्र के लिए खतरा मानता है, क्योंकि इससे जनता का सूचना पाने का अधिकार प्रभावित होता है.
विपक्ष का यह भी आरोप था कि इस योजना से सत्तारूढ़ दल को असमान लाभ मिलता है. उनका दावा है कि अधिकांश दान सत्तारूढ़ दल को प्राप्त होते हैं, जिससे विपक्षी दलों के लिए चुनावी प्रतिस्पर्धा में बराबरी करना मुश्किल हो जाता है. विपक्ष ने चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक घोषित किया, जिसका विपक्ष ने स्वागत किया, लेकिन उन्होंने कोर्ट की देरी की आलोचना की. विपक्ष का कहना है कि इस देरी के कारण सत्तारूढ़ दल को लंबे समय तक लाभ मिलता रहा, जिससे राजनीतिक नुकसान हुआ.