पुलवामा हमले के बाद जब भारतीय व्यापारियों ने पाकिस्तान को टमाटर भेजने से इनकार कर दिया था, उसी दौरान पाकिस्तान में एक 'देशभक्त' ने सुझाव दिया कि भारत को अपने राष्ट्रगान 'जन गण मन' से 'सिंध' शब्द हटा देना चाहिए. यह पहली बार नहीं था जब सिंध का मुद्दा उठा हो. भारत–पाक राजनीति में सिंध का जिक्र अक्सर कई बहसों को हवा देता रहता है.
सिंध के अलगाववादी समूह भी दावा करते रहे हैं कि राष्ट्रगान में इसका नाम आना इस बात का प्रतीक है कि यह क्षेत्र भारतीय सभ्यता से गहराई से जुड़ा रहा है. कई लोग इसे भारत-केन्द्रित पहचान को मजबूत करने वाला तर्क भी मानते हैं.
केंद्र सरकार ने 2011 में बॉम्बे हाईकोर्ट में हलफनामा देकर स्पष्ट किया था कि 'सिंध' और 'सिंधु' का अर्थ कई संदर्भों में समान माना जा सकता है, ये नदी का भी प्रतीक हो सकता है और सिंधी समुदाय का भी. लेकिन तथ्य ये है कि राष्ट्रगान में जिस भौगोलिक सिंध का जिक्र है, वो आज भारत का हिस्सा नहीं है. संविधान सभा ने जनवरी 1950 में राष्ट्रगान के 'सिंध' शब्द को 'सिंधु' से बदल दिया था.
पिछले हफ्ते रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी हड़प्पा या सिंधु-सरस्वती सभ्यता की चर्चा करते हुए कहा कि सिंध भौगोलिक रूप से भले भारत से अलग हो गया हो, लेकिन सभ्यता और संस्कृति के स्तर पर वो हमेशा भारत का हिस्सा रहेगा. उन्होंने उम्मीद भरे लहजे में ये भी कहा कि सीमाएं बदलती रहती हैं, 'कौन जानता है, कल को सिंध फिर भारत का हिस्सा बन जाए.'
सिंध का मामला इतना अलग क्यों था?
पंजाब और बंगाल के विभाजन की कहानी सर्वविदित है. इन इलाकों में जनसंख्या लगभग हिंदू और मुसलमान में बराबर बटी हुई थी. बड़े भूभागों में मिश्रित रूप से रहते थे. यही वजह थी कि विभाजन वहीं रेखाएं खींचकर किया गया. लेकिन सिंध एक अलग कहानी था. आज का ये क्षेत्र कभी मोहनजोदड़ो जैसी प्राचीन सभ्यता का केंद्र था. बाद में यूनानी, अरब और फिर मुसलमान शासक आए और धीरे-धीरे इस्लाम यहां की प्रमुख पहचान बन गया.
ब्रिटिश शासन के दौरान सिंध बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, लेकिन 1936 में इसे एक अलग प्रांत का दर्जा मिला. इससे सिंध की अपनी राजनीतिक पहचान बन गई, विधानसभा, नेतृत्व, और स्थानीय शक्ति समीकरण सब अलग. यही वो बिंदु था जिसने आगे चलकर विभाजन के वक्त इसका भविष्य तय कर दिया.
सिंध में राजनीति क्यों तेजी से सांप्रदायिक हुई
1930 के दशक तक सिंध की राजनीति में धार्मिक नेतृत्व का प्रभाव काफी बढ़ चुका था. सूफी परंपराओं के कारण यहां इस्लाम की एक समन्वयवादी धारा तो थी, पर राजनीति में धीरे-धीरे कट्टरपंथी समूहों का दखल बढ़ने लगा. कांग्रेस इस प्रांत में मजबूत आधार नहीं बना सकी. पार्टी के पास मुसलमानों का समर्थन बहुत कम था और हिंदू नेतृत्व भी बिखरा हुआ था. इसके उलट, मुस्लिम लीग ने मज़बूती से जड़ें जमाईं और धार्मिक उत्तेजना के सहारे धीरे-धीरे सत्ता पर पकड़ बनाई.
कांग्रेस–लीग टकराव के बीच लीग ने प्रदेश की निर्वाचित, गैर-सांप्रदायिक अल्लाह बक्श सरकार को गिरा दिया. शहरों में रहने वाले हिंदू अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस करने लगे और ये भावना बढ़ती गई.
जनसांख्यिकी ने अंतिम फैसला तय कर दिया
सिंध की मुस्लिम आबादी अन्य समुदायों की तुलना में लगभग तीन गुना थी. ये वो निर्णायक कारण था जिसने इसे पाकिस्तान का 'स्वाभाविक हिस्सा' बना दिया. बंगाल और पंजाब में भारत और पाकिस्तान दोनों के हिस्से बने, क्योंकि दोनों के पास लगभग बराबर लोगों के लिए दावा था. लेकिन सिंध में ऐसा कोई संतुलन नहीं था.
सबसे अहम बात ये कि सिंध विधानसभा ब्रिटिश भारत की पहली विधानसभाओं में से थी जिसने पाकिस्तान के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया था. इसलिए 1947 आते-आते हालात ये हो गए कि विभाजन के वक्त सिंध को भारत और पाकिस्तान के बीच बांटने जैसा कोई विकल्प व्यावहारिक ही नहीं बचा था.
जो हिंदू और जैन सिंध में रहे, उन्हें हिंसा और उत्पीड़न जल्द ही शहर छोड़ने पर मजबूर कर देता गया. लाखों सिंधी अपना सबकुछ छोड़कर एक नई जिंदगी, नई पहचान और नए संघर्षों के साथ भारत आ गए.
एक ऐसा प्रांत जिसे 'पूरी तरह' खो दिया गया
पंजाब और बंगाल की तरह सिंध के लिए सीमा रेखा नहीं खींची गई. पूरा प्रांत कराची समेत पाकिस्तान के हिस्से में चला गया. पत्रकार-इतिहासकार K.R. मलकानी ने इसे 'भेड़ियों के सामने फेंक दिया गया' जैसा कदम कहा है. कुछ वैसा ही जैसा सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान ने भी विभाजन की जल्दबाजी के लिए कांग्रेस से कहा था.
और दिलचस्प विडंबना ये कि भारत को सिंध का कोई हिस्सा नहीं मिला, लेकिन राष्ट्रगान में उसका नाम आज भी है. रवींद्रनाथ टैगोर ने 1917 में इसे अविभाजित भारत की स्मृति और साझा सभ्यता के प्रति आदर के रूप में लिखा था. एक ऐसे भूभाग और लोगों की याद के रूप में, जो इतिहास से जुड़े तो हैं, पर वर्तमान में सीमाओं ने उन्हें अलग कर दिया है.