भारत को यह बात बेहतर तरीके से मालूम है कि उल्लास कैसे मनाया जाए. कॉमनवेल्थ के उद्धाटन व समापन समारोह बेहद भव्य रहे. कॉमनवेल्थ गेम्स ने यह साबित कर दिया कि भारत को अब यह अच्छी तरह मालूम है कि उसे करना क्या है. पिछले दो हफ्तों में यह स्पष्ट संदेश उभरकर सामने आया है कि एक महाशक्ति के रूप में भारत का उदय होने को ही है.
इस कॉमनवेल्थ गेम्स के विजेता दबे पांव आने वाली सामाजिक क्रांति के लिए शिशु की भांति हैं. यह क्रांति और ज्यादा लुभावनी है, क्योंकि इसमें कोई खून-खराबा नहीं है. चीन में हर पदक विजेता के पीछे पूरी सरकारी मशनरी का योगदान होता है. दूसरी ओर भारत के हर पदक के पीछे व्यक्तिगत सोच और प्रतिभा है. सच कहा जाए, तो भारत में मशीनरी कभी काम नहीं करती है.
कॉमनवेल्थ गेम्स की प्रस्तावना ज्यादा लुभावनी नहीं है, क्योंकि यह पुराने तौर-तरीके से संचालित थी. दुनिया इस विरोधाभास को समझने में सक्षम नहीं है कि आखिरकार ऐसी भव्यता के साथ लालच कैसे टिका रह सकता है? लेकिन संक्रांति का यह दौर काफी संघर्ष के बाद आ सका. खेलों के समापन के साथ ही हमारे लोकतंत्र का इम्तिहान शुरू हो जाएगा. जवाबदेही के बिना लोकतंत्र अराजकता में तब्दील हो जाता है. जहां अपराध का अस्तित्व है, वहां सजा भी अवश्य होनी चाहिए.