कुश्ती के विश्व चैंपियन सुशील कुमार ने जब इंदिरा गांधी स्टेडियम में अपने प्रतिद्वंद्वी को पटखनी देने के लिए प्रवेश किया, तो घरेलू दर्शकों के उत्साह की कोई सीमा न रही. आमतौर पर ऐसा उत्साह केवल सचिन तेंदुलकर की बैटिंग के वक्त ही नजर आता है. जब सायना नेहवाल ने ऐतिहासिक जीत हासिल की, तो भी सीरी फोर्ट स्टेडियम के साथ-साथ पूरे देश के दर्शक खुशी से झूम उठे. उत्साह से सराबोर यह खुशी टेस्ट मैच में ऑस्ट्रेलिया पर टीम इंडिया की जीत के जश्न से कतई कम नहीं थी.
करनी सिंह शूटिंग रेंज में एक महिला आयोजन समिति के उपाध्यक्ष रणधीर सिंह के पास पहुंची. उस महिला ने अनुरोध किया कि उसके बेटे को अभिनव बिंद्रा से मिलने की अनुमति दी जाए. वह अभिनव बिंद्रा के साथ अपने बेटे की तस्वीर लेना चाहती थी, ताकि हर सुबह जब वह बच्चा नींद से जागे, तो इस ओलंपिक चैंपियन से साथ अपनी तस्वीर देखकर प्रेरणा ले सके.जो लोग यह तर्क देते हैं कि कॉमनवेल्थ गेम्स महज रुपयों की बर्बादी है, उनके सामने मैं कुछ उदाहरण पेश करना चाहता हूं. इस देश के इतिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ, जब क्रिकेट को छोड़कर अन्य किसी खेल के सितारों ने इतने बड़े पैमाने पर अपनी कामयाबी का परचम लहराया हो. भारत रातोंरात खेल महाशक्ति बन बैठे, यह मुमकिन नहीं है, पर इन कम लोकप्रिय खेलों ने अब हमारे लिए एक नई शुरुआत का एलान कर दिया है. कर्नल राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़ ने एथेंस में रजत पदक हासिल किया था. भारतीय खेल जगत को एक बार गतिमान होने के मौका तब मिला, जब बीजिंग ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण पदक हासिल किया. साथ ही विजेंदर और सुशील ने कांस्य पर अपना कब्जा जमाया. कॉमनवेल्थ खेलों ने पुरानी इन कामयाबियों के क्रम को एकबार फिर से गति दे दी है.{mospagebreak}
अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार, विजेंदर सिंह और कॉमनवेल्थ में कामयाब अन्य भारतीय सितारों से प्रेरणा लेने वालों की तादाद कम नहीं है. कुछ अभिभावक अपने बच्चों को इस बात के लिए प्रेरित करेंगे कि वे खेल को ही अपना करियर बनाएं. अब जरा पुलेला गोपीचंद से पूछिए कि सायना नेहवाल की ऐतिहासिक जीत का क्या सकारात्मक असर हुआ. आप जान सकेंगे कि ऐसे लड़के-लड़कियों की तादाद काफी है, जो हैदराबाद स्थित उनकी बैडमिंटन अकादमी में प्रवेश पाने की लालसा अपने मन में संजोए हैं. खेलों की दुनिया में दबे पांव आ रही क्रांति अब साकार होती नजर आ रही है. सायना से पहले, यही काम सानिया ने टेनिस के क्षेत्र में किया.
युवा प्रतिभाओं को संरक्षण देने वाला और इनमें छिपी ऊर्जा का बेहतरीन इस्तेमाल करने वाला हरियाणा एक ज्वलंत उदाहरण बन गया है. विजेंदर, अखिल और सुशील से प्रेरित होकर और राज्य सरकार से सक्रिय सहयोग पाकर कई युवा अब कुश्ती और बॉक्सिंग को अपना करियर बना रहे हैं. यह एक तथ्य है कि इस बार कॉमनवेल्थ में अकेले हरियाणा के खिलाडि़यों ने 15 गोल्ड मेडल अपनी झोली में बटोरे. अगर हम हरियाणा की एक स्वतंत्र देश के रूप में कल्पना करें, तो यह पाएंगे कि 15 स्वर्ण के साथ पदक तालिका में यह पांचवें स्थान पर काबिज हुआ होता. यह अपने आप में इस बात का बेजोड़ उदाहरण है कि कठिन परिश्रम के दम पर और अवसर पाकर भारत के युवा क्या नहीं हासिल कर सकते.
मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा के संरक्षण में हरियाणा अब खिलाडि़यों की शरणस्थली बन चुका है. उन्होंने दूसरों में यह विश्वास पैदा किया है कि अगर वे खेल में शानदार प्रदर्शन करेंगे, तो वे उन्हें अच्छी सरकारी नौकरी के साथ-साथ पर्याप्त रकम भी मुहैया कराएंगे, जिससे खिलाडि़यों और उनके परिजनों को जीवन-यापन करने में कठिनाई न हो. शहरी मध्यवर्ग से ताल्लुक रखने वाले किसी शख्स के लिए भले ही डीएसपी की नौकरी खास मायने न रखती हो, पर उनके लिए यह बहुत बड़ी चीज है, जो निर्धन गांवों से आते हैं और दशकों से अभाव में जी रहे हैं.{mospagebreak}
अब जरा हम यह देखें कि पिछले कॉमनवेल्थ गेम्स में हरियाणा कहां खड़ा था. साल 2006 में मेलबॉर्न कॉमनवेल्थ में इस राज्य के खिलाडि़यों ने 1 स्वर्ण पदक, 3 रजत पदक और 1 कांस्य पदक जीता था. फिर अगले चार साल में इस प्रदेश के खिलाड़ी 38 में से 15 स्वर्ण पदक अपने नाम करने में कामयाब रहे. यह अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं है. हमारे देश को हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा और उनकी सरकार का इस बात के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए कि इसने इतनी बड़ी संख्या में कामयाब खिलाड़ी दिए. अब हर चैंपियन सैंकड़ों युवकों को खेल में कामयाब बनने को प्रेरित करेगा.
शायद यूपी की मायावती सरकार, तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार या कर्नाटक की येदियुरप्पा के लिए खेल प्राथमिकता नहीं हो सकती. जिन राज्यों में प्रभावी प्रशासन मौजूद है, जैसे कि नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, अशोक गहलौत, शिवराज सिंह चौहान आदि के राज्य में, वहां खेलों में हरियाणा जैसी कामयाबी पाई जा सकती है. कल्पना कीजिए कि अगर इन राज्यों में इस बात की होड़ मच जाए कि कौन-सा राज्य अंतरराष्ट्रीय खेल-जगत में कितने पदक बटोरता है. ऐसी स्थिति में 2014 के ग्लोसगो कॉमनवेल्थ में भारत के कुल स्वर्ण पद 38 से दोगुने तक हो सकते हैं. यह केवल कोरी कल्पना मात्र नहीं है, बल्कि भारत यह कर गुजरने में बिलकुल सक्षम है. दुनिया की कुल आबादी का छठा भाग हमारे ही देश में निवास करता है. अगर सरकार में इच्छाशक्ति जाग्रत हो जाए, तो इस आबादी को चैंपियनों में तब्दील किया जा सकता है.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसा हमारे देश में हो सकता है? मैं इस बात को लेकर सहमा हुआ हूं कि मुझे इसकी संभावना धूमिल नजर आ रही है. अंतरराष्ट्रीय एथलीटों ने भारत को एकदम हाशिए पर ला खड़ा किया है. हम पहले से ही ऐसा सुन रहे हैं कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का 2 नवंबर को होनेवाला सत्र तालकटोरा बॉक्सिंग स्टेडियम में आयोजित किया जाएगा. यह सत्ता के लिए यह बेहद शर्मनाक बात है. देश में खेलों के लिए विश्वस्तरीय बुनियादी ढांचा खड़ा करने में आयकरदाताओं के हजारों करोड़ रुपए खर्च हुए हैं. यह देश के लिए बड़ी त्रासदीपूर्ण बात होगी, अगर हमारे राजनीतिज्ञ इन सुविधाओं पर अपना कब्जा जमा लेते हैं. तालकटोरा बॉक्सरों के लिए बनाया गया है और इसका इस्तेमाल सिर्फ बॉक्सरों को ही करने देना चाहिए. नेताओं को अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास कराने के लिए अलग ठौर-ठिकाना तलाशना चाहिए.{mospagebreak}
सच पूछा जाए तो अगर कॉमनवेल्थ गेम्स को कामयाब करार दिया जाता है, तो इसका श्रेय हमारे खिलाडि़यों के प्रदर्शन को देना होगा. खेलों की शुरुआत से ठीक पहले तक हर भारतीय का सिर तब शर्म से झुक जाता था, जब आयोजन में बड़े पैमाने पर कुप्रबंधन और लापरवाही का खबरें लगातार आती थीं. इसके लिए प्रधानमंत्री से लेकर वे सभी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने पहले इतना भ्रष्टाचार फैलाने की छूट दी. प्रधानमंत्री तब क्या कर रहे थे, जब सुरेश कलमाड़ी ओर उनका कुनबा एक-दूसरे की टांगखिचाई कर रहा था. तैयारियों में जान-बूझकर देरी की गई. अंत समय तक लगातार खर्चों में बढ़ोत्तरी की जाती रही. यह जानते हुए कि सरकार के पास इन खर्चों को वहन करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है, क्योंकि खेल नजदीक आते जा रहे थे.
प्रधानमंत्री ने कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में हुए फर्जीवाड़े की जांच के लिए पूर्व नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक वीके शुंगलू की अध्यक्षता में कमेटी गठित की है. यह कमेटी तब ज्यादा कारगर नहीं हो सकेगी, अगर यह महज बलि का बकरा ही खोज निकालने का काम करे. कलमाड़ी और भनोत अब टीवी स्क्रीन पर दिखाई नहीं पड़ते. इनपर जांच का शिकंजा कसता जा रहा है. लेकिन देश की दुर्गति करने के लिए ये अकेले जिम्मेदार नहीं हैं. इसकी जड़ें काफी गहरी हैं. यहां तक कि प्रधानमंत्री के करीबी लोग भी संदेह के घेरे में हैं. प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी ने खिलाडि़यों के सम्मान समारोह में सुरेश कलमाड़ी और शीला दीक्षित को न्योता नहीं भेजा. इनकी उपेक्षा कर दी गई, पर केवल इतना ही काफी नहीं है. देश को शर्मसार होने का मौका देने वाले कॉमनवेल्थ के खलनायकों को सजा दी जानी चाहिए और इन्हें सलाखों के पीछे डाला जाना चाहिए.
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पहले ही ओलंपिक की मेजबानी की दावेदारी की बात कर रही हैं. यह बुरा विचार नहीं हो सकता. अगर जवाबदेही तय कर दी जाए, भ्रष्टाचारियों को जेल में डाल दिया जाए, सही सबक ठीक तरीके से सीख लिया जाए, तो किसी बड़े खेल आयोजन को देश की जनता का भी समर्थन हासिल हो सकेगा. जनता इस तरह के आयोजनों को नेताओं द्वारा अपनी जेब गर्म के करने मौके के रूप में देखती-समझती आई है.{mospagebreak}
कॉमनवेल्थ में अकेले 4 स्वर्ण पदक हासिल करने वाले गगन नारंग ने इशारों में ही एक बड़ी बात कह दी. उन्होंने कहा कि पदक जीतने के बाद जब वे स्टेडियम छोड़ रहे थे, तो उन्हें यह भय सता रहा था कि खेलों के समापन के एक हफ्ते बाद जनता केवल घोटाले की बातों को ही याद रखेगी और खिलाडि़यों की कामयाबियों को भुला देगी. पर ऐसा करना देशवासियों को मंजूर नहीं. खिलाडि़यों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, ताकि ये गौरव की चमक हर ओर बिखेर सकें. साथ ही जिस किसी ने भी देश को नीचा देखने पर मजबूर किया, उनपर केस दर्ज होना चाहिए. एक के बिना महज दूसरा उपाय किसी देशद्रोह से कम नहीं होगा.