कॉमनवेल्थ खेलों में पिछले 10 दिनों में ऐसा लगा कि सोने की बरसात हो गई. 101 मेडल के साथ भारतीय खिलाडि़यों ने वो कारनामा कर दिखाया, जिसे कॉमनवेल्थ का इतिहास याद रखेगा. लेकिन अभिमान का ये गुब्बार जब छूटेगा, तो क्या हर भारतीय की जुबां पर यह सुनने को मिलेगा, 'सारे जहां से अच्छा, हिन्दुस्तां हमारा...'? यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब हम सब अपने दिल में जानते हैं.
उद्घाटन समारोह की भव्यता के मुकाबले समापन समारोह कहीं ज्यादा भव्य, रोचक और मनोरंजक रहा. लेकिन इस जीत की खुशी में कहीं गर्व का नमक कम रहा. ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा, जहां बेनाम और गुमनाम चेहरों ने हर भारतीयों का सर ऊंचा नहीं किया. करोड़ों लोगों ने टेलीविजन पर और हजारों लोगों ने स्टेडियम में बैठकर गर्व की उस अनुभूति को महसूस किया, जब एक भारतीय बीच स्टेडियम में खड़ा मेडल का रिबन अपने गले में डालता हुआ देखता था. लेकिन फिर भी बहुत-कुछ अधूरा रहा. हम आज भी अपनी ब्रिटिश जमाने की उपाधि पर कायम रहे.
अंग्रेज हमें कहा करते थे, 'ये देश संपेरों का है'. मत भूलिए कि गेम्स विलेज में तीन नाग पकड़े गए और पूरी दुनिया ने उसे टेलीविजन पर देखा. टूटे टाइलों ने जिमनास्ट के पैरों को जख्मी किया, स्वीमिंग पूल में तैराकों को इनफेक्शन हुआ, तो धावकों को खराब ट्रैक की वजह से अपना प्रैक्टिस सेशन छोड़ना पड़ा. ऑस्ट्रेलियाई, ब्रिटिश और न्यूजीलैंड के अखबारों ने हमारे कॉमनवेल्थ खेलों के चीथड़ें उधेरे, तो कई टीवी कॉमेंटेटर ने हमारे नेताओं का माखौल उड़ाया. हालात इतने बिगड़े कि हमारे विदेश मंत्रालय को कई विदेशी राजदूतों को झिड़की तक भेजनी पड़ी. हद तो तब हो गई, जब विदेशी सैलानियों की संख्या औसत अक्टूबरों के मुकाबले इस साल और भी कम रही. लेकिन इन सब के बावजूद न तो दिल्ली सरकार, न ही खेल मंत्रालय और न ही केंद्र की यूपीए सरकार अपनी पीठ थपथपाने में कोई कसर छोड़ती दिखी.{mospagebreak}सबसे दुर्भाग्यपूर्ण या यूं कहें कि हास्यास्पद रहा दागदार सुरेश कलमाड़ी का यह कहना कि कॉमनवेल्थ गेम्स सफल रहे. क्या कलमाड़ी साहब की अंतर्रात्मा है? क्या हम भारतीयों को यह शर्म झेलना जरूरी था? बतौर युवक, मुझे आज भी याद है कि एशियाड गेम्स के दौरान क्या भव्यता, क्या रोमांच और क्या दिव्य दृष्टि थी. लगता था कि हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक छाप छोड़ रहे हैं. लेकिन आज 1984 से लेकर अब तक आर्थिक तौर पर हम चौगुना ज्यादा शक्तिशाली हैं. हमारी आबादी दुगनी से ज्यादा है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमें दुनिया चीन के बराबर समझती है. लेकिन क्या यह सच है?
दीमक लगे भारतीय प्रणाली ने चौतरफा भ्रष्टाचार और संगदिली ने आज भारतीय गरिमा को ऐसी चोट पहुंचाई है कि कहीं न कहीं हम सबों का सर शर्म से झुक जाता है. 14 अक्टूबर के बाद जब राजनीतिक दल नुक्ताचीनी करने सड़कों पर उतरेंगे, सीबीआई जांच की मांग करेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि भारत सरकार और दिल्ली सरकार ने मिलकर 77 हजार करोड़ रुपये कहां खर्च कर दिए, तो 10-15 दिनों तक हम सब टेलीविजन पर ऐसी रिपोर्ट दिखाएंगे और अखबारों में लिखेंगे, लेकिन फिर वही होगा जो हर बार होता है. हम भूल जाएंगे. हम यह भूल जाएंगे कि 15 साल की सीबीआई की जांच के बाद सुरेश कलमाड़ी दोषी हैं या नहीं? ओलंपिक संघ ने कितना गबन किया? दिल्ली सरकार ने कितनी चोरी की ...और एमसीडी ने कितना कुछ पर्दे के पीछे छुपा दिया?{mospagebreak}हम ऐसा इसलिए नहीं करेंगे क्योंकि यह हमारा पेशा नहीं है और इसकी कसक हमें महसूस नहीं होगी. हम बोलते इसलिए हैं कि सांस्कृतिक और पारंपरिक तौर पर भारतीय को भुला देने और क्षमा करने की आदत है. हम बचपन से यह सीखते आए हैं कि जो गलत करता है, उसे माफ कर दो,...क्योंकि जो क्षमा करता है, वो बड़ा होता है....और अपने आपको बड़ा दिखाने की होड़ में हम अपने देश के गौरव को भी कुर्बान कर देते हैं. कॉमनवेल्थ खेलों ने हमें गौरवान्वित जरूर किया है, लेकिन अपने पीछे एक ऐसा कीचड़ छोड़ गया है, जिसमें कोई कमल कभी नहीं खिलेगा.