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फांसी पर लटकाना सजा देने का अमानवीय तरीका? सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से मांगा जवाब

सुप्रीम कोर्ट में मृत्युदंड की सजा पाए मुजरिम को फांसी पर लटकाने के कानूनी प्रावधान को चुनौती देने वाली एक याचिका दायर की गई है. इस याचिका पर कोर्ट ने केंद्र सरकार से तीन सप्ताह के भीतर जवाब देने के लिए कहा है.

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फांसी की सजा
फांसी की सजा

क्या फांसी पर लटकाना मृत्युदंड की सजा का अमानवीय और बर्बर तरीका है?  क्या इससे गुनहगार के 'जीवन के अधिकार' का हनन होता है? क्या मौत की सजा के लिए फांसी के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता? सुप्रीम कोर्ट ने फांसी पर लटकाने के कानूनी प्रावधान को चुनौती देने वाली एक याचिका पर केंद्र सरकार से इन सवालों का जवाब मांगा है.

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनंजय वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने केंद्र को नोटिस भेजा है.कोर्ट ने केंद्र सरकार से तीन सप्ताह के भीतर जवाब देने के लिए कहा है.

जनहित याचिका दायर करने वाले वकील ऋषि मल्होत्रा ने दलील दी है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए गरिमा और सम्मान के साथ जीने के अधिकार में गरिमा और सम्मान के साथ मरने का भी अधिकार शामिल है. लेकिन फांसी सम्मान के साथ मरने के अधिकार के विपरीत है लिहाजा इसे खत्म कर इसके विकल्प की तलाश होनी चाहिए.

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याचिकाकर्ता ने फांसी को मौत की सजा देने का सबसे बर्बर तरीका बताया है, क्योंकि फांसी से मौत में 40 मिनट तक लग जाते हैं , जबकि गोली मारने या इलेक्ट्रिक चेयर विधि में केवल 2 मिनट.

याचिका में शीर्ष अदालत के अनेक फैसलों का हवाला दिया गया है जिनमें मौत की सजा पाने वाले कैदी को फांसी पर लटकाने के तरीके की आलोचना की गयी है.

कानून में भी फांसी का मतलब दुर्दांत और संगीन अपराधी को सांसों की आखिरी डोर टूटने तक फांसी के फंदे पर लटकाए रखना है. अदालत जब किसी दोषी को फांसी की सजा सुनाती है तो कहती है 'हैंग टिल डेथ' , जिसका मतलब ही होता है दोषी को तब तक फांसी पर लटकाया जाए जब तक उसके शरीर में प्राण बाकी है. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल इस याचिका में इस कानून में भी संशोधन की मांग की गई है.

लॉ कमीशन ने भी आतंकवाद और देश के खिलाफ युद्ध को छोड़कर अन्य सभी जुर्मों के लिए सजा-ए-मौत को खत्म करने की सिफारिश की थी. यह सिफारिश 2015 की रिपोर्ट के जरिए पिछले साल की गई थी. तब 9 में से 6 सदस्य इससे सहमत थे. तीन असहमत सदस्यों में से दो सरकार के प्रतिनिधि थे. तत्कालीन विधि आईजी अध्यक्ष जस्टिस एपी शाह के मुताबिक रिपोर्ट में इस बात का साफ जिक्र था कि आंख के बदले आंख का सिद्धांत हमारे संविधान की बुनियादी भावना के खिलाफ है. बदले की भावना से न्यायिक तंत्र नहीं चल सकता.

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आयोग की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि 21वीं सदी की दुनिया में 140 देश फांसी की सजा खत्म कर चुके हैं. भारत में भी दुर्लभतम और नृशंसतम मामलों में ही फांसी की सजा देने का प्रावधान है. लेकिन खुद सुप्रीम कोर्ट ने कई बार माना है कि इस सिद्धांत का मनमाना इस्तेमाल भी हुआ है.

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