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वर्कलोड से 26 साल की CA की मौत, कॉर्पोरेट में काम करते युवाओं ने कहा- जान लेकर ही रुकेगी 99 की दौड़

पुणे के अर्न्स्ट एंड यंग में काम करने वाली एक युवती की कथित तौर पर वर्कलोड से मौत हो गई. 26 वर्षीय कर्मचारी की मां का आरोप है कि कंपनी जॉइन करने के कुछ ही महीनों के भीतर उसकी भूख-नींद सब खत्म होने लगी, जिसका ये अंजाम हुआ. ये तो एक्सट्रीम केस है, लेकिन कॉर्पोरेट में काम करने वालों के लिए वर्क प्रेशर नई बात नहीं.

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कॉर्पोरेट के कर्मचारी अक्सर काम के दबाव की बात करते हैं. (Getty Images)
कॉर्पोरेट के कर्मचारी अक्सर काम के दबाव की बात करते हैं. (Getty Images)

कॉर्पोरेट कल्चर का जिक्र आने पर दिन-रात काम करते हुए युवा चेहरों की तस्वीर अपने-आप खिंच आती है. लेकिन चौबीसों घंटे काम या इसका तनाव जानलेवा साबित हो रहा है. पुणे के Ernst & Young में काम करने वाली अन्ना सेबेस्टियन की मौत इसी कॉर्पोरेट का खौफनाक चेहरा सामने लाती है. यहां काम करने वाले कई लोगों से aajtak.in ने बात की और जाना कि 24*7 के असल मायने क्या हैं, और ये कितना घातक साबित हो रहा है. 

शुरुआत करते हैं डेटा से

दफ्तरों में होने वाली दिक्कतों पर बात करने वाले ग्लोबल थिंक टैंक यूकेजी वर्कफोर्स इंस्टीट्यूट ने मार्च 2024 में एक आंकड़ा जारी किया, जो चौंकाता है. इसके मुताबिक, भारत में काम कर रहे करीब 78 फीसदी कर्मचारी बर्नआउट की शिकायत करते हैं. ये वो स्थिति है, जब मन और शरीर दोनों इतनी थकान से भर जाए कि कुछ भी प्रोडक्टिव न हो सके. ये बर्नआउट कितना असल है, इसका अंदाजा इस बात से लगा लें कि इनमें से 64 फीसदी लोगों ने माना कि अगर थोड़ी तनख्वाह कटवाने पर उनका वर्कलोड कम हो सके, तो वे खुशी-खुशी तैयार हैं. 

सबसे लंबा खिंचता है सप्ताह

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन का भी कहना है कि भारत दुनिया के उन टॉप देशों में है, जहां वर्क वीक सबसे लंबा होता है. एक औसत कामकाजी भारतीय हफ्ते में लगभग 48 घंटे काम करता है, वहीं अमेरिका में ये लगभग 37 घंटे, जबकि यूके में 36 घंटे है. हमारे यहां लेबर लॉ सप्ताह में 48 घंटे काम की इजाजत देता रहा. यहां तक भी ठीक है, लेकिन कॉर्पोरेट की स्थिति कहीं ज्यादा खराब है. कोविड में वर्क फ्रॉम होम के दौरान काम के घंटे जो खिंचे तो खिंचते ही चले गए. ये शिकायत कॉर्पोरेट में काम करते लगभग सबकी है. 

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ernst and young employee in pune dies of workload corporate culture india photo Getty Images

इस बारे में हमारी बेंगलूरु, मुंबई और पुणे की कई बड़ी कंपनियों के एम्प्लॉयीज से बात हुई.

नाम जाहिर न करने की शर्त पर मुंबई के एक कॉर्पोरेट में मिड लेवल कर्मचारी कहते हैं- रोज कई-कई क्लाइंट और रोज कितनी ही डेडलाइन हमारे सिर पर रहती हैं. कुछ भी मिस न हो जाए, इसके लिए मेरे लैपटॉप से लेकर घर की वर्क वॉल पर भी स्टिकर ही स्टिकर लगे हैं. इसके बाद भी काम पूरा नहीं होता. वैसे तो शिफ्ट 9 घंटे की है, लेकिन पिछले तीन सालों में एक बार भी वक्त पर लैपटॉप बंद नहीं हो सका. 

तब काम बदल या छोड़ क्यों नहीं देतीं?
बस पांच साल और, फिर अपना कुछ करूंगी...ये कहते हुए चेतना आगे जोड़ती हैं- ये 99 की रेस है. जान जाएगी, तभी रुकेगी. 

ऑड टाइम पर होती है ऑनलाइन मीटिंग

इंटरनेशनल एमएनसी में काम करने वाली चेतना भगत के लिए जूम कॉल सबसे बड़ा टॉर्चर है. वे बताती हैं- हमारा हेड ऑफिस न्यूयॉर्क में बैठता है. उनसे कदमताल के लिए हमें चौबीसों घंटे तैयार रहना पड़ता है. आएदिन कोई ईमेल आता है, जिसपर बहुत ही सभ्य जबान में वो मीटिंग का वो समय मेंशन्ड होता है, जो हमारे लिए देर रात है, या अलसुबह. हम कभी मना नहीं कर सकते. हर वक्त येस बॉस ही लिखना पड़ेगा, वरना अप्रेजल नहीं मिलेगा. 

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मैटरनिटी लीव से लौटी अर्चना कहती हैं- इतने वक्त बाद काम पर लौटी तो वैसे ही धुकधुकी लगी हुई थी. बॉस तक बदल चुके थे. वे मेरे काम के बारे में सुनी-सुनाई ही जानते हैं. आने के दो हफ्ते तक तो मुझे साइडलाइन करके रखा गया, फिर ऐसा काम दे दिया जो मेरे तजुर्बे से काफी कम है. शिकायत करने पर मुझे शिफ्ट ड्यूटी में डाल दिया. अब छोटी बच्ची को छोड़कर मैं शिफ्ट कर रही हूं. वर्क-लाइफ बैलेंस एकदम खत्म हो गया. शुरुआत में घर के लोगों ने मदद की, अब वे भी मुझे मेरे हाल पर छोड़ चुके. 

ernst and young employee in pune dies of workload corporate culture india photo India Today

हॉस्पिटैलिटी सेक्टर के एक बड़े नाम के साथ काम कर रहे इवेंट मैनेजर विक्रांत कहते हैं- इस फील्ड में आया था तो बड़े सपने थे लेकिन आठ सालों में सब बदल गया. कंपनी पैसे तो देती है लेकिन बंधुआ बनने की कीमत पर. दिन-रात सब उसके हैं. हद तो ये हुई कि शादी के दिन भी मैं ऑनलाइन मीटिंग्स अटेंड करता रहा. शादी के बाद रिश्ते में तनाव रहने लगा. पत्नी अलग प्रोफेशन से है. वो काम तो समझती है लेकिन इस सेक्टर की उलझनें नहीं. बात इतनी खिंची कि अलगाव तक नौबत आ गई थी. लेकिन घर-गाड़ी के लिए इतने लोन ले चुका कि बीच में नौकरी बदलने की भी हिम्मत नहीं. 

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कॉर्पोरेट से जुड़े लगभग सभी कर्मचारी तो वर्क-लाइफ बैलेंस की शिकायत करते हुए ये भी मानते हैं कि वे मुट्ठी संकरे गले वाली बोतल में डाल चुके. अब हाथ निकालने या फंसाए रखने, दोनों ही स्थितियों में खतरा है. 

भारत में कामकाजियों के हाल अब जापान की तरह हो चुके. 

दरअसल, जापान में सत्तर के दशक में एक टर्म करोशी खूब चला था. इसका मतलब है, ज्यादा काम से मौत. हुआ यूं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुए परमाणु विस्फोट और हार के दुख को मिटाने के लिए जापानियों ने काम में मन लगाया, और ऐसा लगाया कि ये जुनून में बदल गया. लोग इतना काम करने लगे कि दफ्तरों में मौतें होने लगी थीं. दफ्तरों से घर लौटते हुए लोगों पर कई प्रोफेशनल्स ने तस्वीरें भी खींची थीं. इस सीरीज को द मैन मशीन नाम दिया गया था. इसमें उनींदे, आपस में दबे-कुचले, यहां तक कि खड़े-खड़े सोते हुए लोग दिखते हैं. कुछ यही स्थिति अब हमारे यहां कॉर्पोरेट्स में हो चुकी. 

ताजा मामले पर कंपनी ने दिया बयान

अन्ना की मौत के बाद उनकी मां ने नाराजगी जताई थी कि अंतिम संस्कार में कंपनी से कोई भी शामिल नहीं हुआ. अब इसपर ईवाई का संवेदना जताता हुआ स्टेटमेंट जारी हुआ है.

कंपनी कहती है किअन्ना उनकी पुणे में ऑडिट टीम का हिस्सा थीं. संभावनाओं से भरा उनके करियर पर इस दुखद घटना की वजह से पूर्णविराम लग गया. परिवार को हुए इस नुकसान की भरपाई हालांकि मुमकिन नहीं, लेकिन हमेशा की तरह इस मुश्किल वक्त में हम उनकी हर संभव सहायता कर रहे हैं और करते रहेंगे. 
हम अपने कर्मचारियों की भलाई को सबसे ऊपर रखते हैं और भारत स्थित अपनी सदस्य फर्म्स के सभी दस हजार एम्प्लॉयीज को एक स्वस्थ माहौल दिलवाने पर काम करते रहेंगे. 

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