चार राज्यों की पांच विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में पंजाब से लेकर गुजरात और पश्चिम बंगाल तक, चुनाव के नतीजे ही दोहराए गए. जिस सीट से जिस पार्टी का उम्मीदवार जीता था, उपचुनाव में भी डंका उसी का बजा. पंजाब की लुधियाना वेस्ट और गुजरात की विसावदर विधानसभा सीट आम आदमी पार्टी ने बरकरार रखी. गुजरात की कडी सीट पर इस बार भी कमल खिला और पश्चिम बंगाल की कालीगंज सीट से तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को जीत मिली.
तीन राज्यों की चार विधानसभा सीटों के उपचुनाव में भी चुनाव वाले नतीजे ही दोहराए गए. लेकिन एक राज्य की एक सीट का मिजाज उपचुनाव में चुनाव के मुकाबले अलग रहा. वह सीट है केरल की नीलांबुर विधानसभा सीट. नीलांबुर विधानसभा सीट केरल की वायनाड लोकसभा सीट के तहत आती है, जहां से राहुल गांधी सांसद हुआ करते थे और अब प्रियंका गांधी संसद में इसका प्रतिनिधित्व कर रही हैं. केरल चुनाव में नीलांबुर से लेफ्ट फ्रंट के समर्थन से निर्दलीय उम्मीदवार पीवी अनवर जीते थे.
पीवी अनवर उपचुनाव में टीएमसी समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार थे. लेफ्ट ने इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखने की कोशिश में एम स्वराज को टिकट दिया था. कांग्रेस से अरध्यान शौकत और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की ओर से मोहन जॉर्ज मैदान में थे. केरल उपचुनाव में कांग्रेस के अरध्यान को 77 हजार से अधिक वोट मिले और वह 11 हजार वोट से अधिक के अंतर से चुनाव जीतने में सफल रहे. दूसरे नंबर पर लेफ्ट के एम स्वराज रहे.
कांग्रेस ने यह सीट लेफ्ट से छीन ली. साउथ के इस तटीय राज्य में अगले ही साल विधानसभा चुनाव होने हैं. केरल में 2016 से ही लेफ्ट की अगुवाई वाले गठबंधन की सरकार है. नीलांबुर उपचुनाव के नतीजों को कांग्रेस और उसके नेता एंटी इनकम्बेंसी से जोड़कर देख रहे हैं. केरल कांग्रेस के कद्दावर नेता एके एंटनी ने तो दो कदम आगे बढ़कर यह कह दिया कि मौजूदा सरकार अब केवल कार्यवाहक है, नीलांबुर में यूडीएफ की जीत के साथ ही बदलाव हो चुका है.
केरल देश का इकलौता राज्य है, जहां लेफ्ट की सरकार है. नीलांबुर उपचुनाव नतीजों के बाद अब लेफ्ट के इस इकलौते किले पर भी खतरा गहरा हो गया है. ऐसे में चर्चा अब लेफ्ट के अर्श से फर्श पर आने की कहानी को लेकर भी होने लगी है.
17 साल पहले किंगमेकर था लेफ्ट
लेफ्ट संसद से लेकर राज्यों की राजनीति तक, 21 वीं सदी में सिमटता ही चला गया. ज्यादा नहीं, बस 17 साल पुरानी बात है जब लेफ्ट केंद्र की सियासत में किंगमेकर हुआ करता था. लेफ्ट दिल्ली की सत्ता के समीकरण बनाने-बिगाड़ने की हैसियत में था. 2004 में लेफ्ट को 59 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी. केंद्र की यूपीए सरकार भी लेफ्ट के समर्थन से चल रही थी. हालांकि, लेफ्ट तब सरकार में शामिल नहीं हुआ था और डॉक्टर मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार को बाहर से समर्थन दिया था.
साल 2008 में अमेरिका से परमाणु समझौते का विरोध करते हुए लेफ्ट ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. लेफ्ट ने लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर भी अपनी ताकत दिखाई थी. हालांकि, तब मुलायम सिंह यादव की अगुवाई वाली समाजवादी पार्टी और अन्य दलों के समर्थन से मनमोहन सरकार बच गई थी. इसके बाद लेफ्ट का वोट शेयर और सीटें, दोनों ही घटती चली गईं. 2019 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट पांच सीटों पर सिमट गया था. हालांकि, 2024 में इंडिया ब्लॉक के बैनर तले आने का लाभ लेफ्ट को भी मिला और उसकी सीटें नौ पहुंच गई हैं.
तीन राज्यों में थी सरकार, अब एक तक सीमित
साल 2008 को ही आधार वर्ष मान लें, तो लेफ्ट की तब तीन राज्यों में सरकार हुआ करती थी. केरल के साथ ही पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा की सत्ता पर भी लेफ्ट काबिज था. पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा तो लेफ्ट का अभेद दुर्ग माने जाते थे. 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में लेफ्ट 40 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर खिसक गया. पश्चिम बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में तो लेफ्ट खाता तक नहीं खोल सका और शून्य पर सिमट गया.
त्रिपुरा में भी लगातार 25 साल सत्ता पर काबिज रहे लेफ्ट को 2018 के चुनाव में बीजेपी से हारकर सत्ता से बाहर होना पड़ा. त्रिपुरा में 2023 के विधानसभा चुनाव भी लेफ्ट के लिए विपक्ष में बैठने का जनादेश लेकर आए. आजादी के बाद पहली बार अगर किसी प्रदेश में लेफ्ट की सरकार बनी, तो वह केरल था और यही राज्य है जहां लेफ्ट की सरकार इस समय है. लेफ्ट लगातार सिकुड़ता चला गया और आज अंतिम किले पर भी खतरे के बादल गहरे होते कहे जा रहे हैं तो इसके पीछे क्या कारण हैं?
लेफ्ट के इस हाल के पीछे क्या
लेफ्ट के जनाधार में लगातार गिरावट आई है. कभी केंद्र में किंगमेकर और तीन राज्यों में सरकार चलाने वाले लेफ्ट के इस हाल के पीछे कौन से फैक्टर हैं? इसे चार पॉइंट में समझा जा सकता है.
1- नेतृत्व शून्यता की स्थिति
लेफ्ट पार्टियों में कभी ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत, सोमनाथ चटर्जी, सीताराम येचुरी जैसे कद्दावर चेहरे हुआ करते थे. इन नेताओं की राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी ठसक हुआ करती थी. लेकिन इनके बाद लेफ्ट में दूसरी पंक्ति का अभाव साफ झलका. प्रकाश करात, माणिक सरकार जैसे बड़े चेहरे लेफ्ट में अब भी हैं, लेकिन इनकी वैसी पब्लिक अपील नहीं है. इसका नुकसान भी लेफ्ट को हुआ है.
2- आर्थिक नीति में बदलाव
लेफ्ट पार्टियों के सियासी पराभव के पीछे पारंपरिक आर्थिक नीति में आए बदलाव को भी वजह बताया जा रहा है. लेफ्ट की नींव ही मजदूर राजनीति से जुड़ी रही है. हाल के कुछ वर्षों में निजीकरण और निजी निवेश के विरोधी स्टैंड में बदलाव आया है. अभी अप्रैल महीने में ही मदुरै कांग्रेस के दौरान लेफ्ट ने केरल में प्राइवेट विश्वविद्यालयों की स्थापना के साथ ही सरकारी उपक्रमों में निजी निवेश को मंजूरी दे दी थी. इस तरह के नीतिगत बदलावों ने भी लेफ्ट को नुकसान ही पहुंचाया है.
3- क्लास की पॉलिटिक्स पर कास्ट पॉलिटिक्स का हावी होना
लेफ्ट की पॉलिटिक्स का आधार क्लास पॉलिटिक्स रही है. मजदूरों की राजनीति लेफ्ट की राजनीति का आधार हुआ करती थी. टीएमसी ने गरीबों और किसानों को टार्गेट कर लेफ्ट के वोट बैंक में बड़ी सेंध लगा दी. पश्चिम बंगाल की ही बात करें तो सूबे में राजवंशी, मतुआ जैसे समुदायों की जातीय अस्मिता के उभार से भी लेफ्ट की पॉलिटिक्स को नुकसान पहुंचा. बिहार जैसे राज्य में जहां लेफ्ट मजबूत हुआ करता था, वहां भी जाति की राजनीति में जनाधार सिकुड़ता चला गया.
4- धार्मिक भावना का सियासी उभार
लेफ्ट की राजनीति सभी धर्मों से दूरी के सिद्धांत पर आधारित रही है. धार्मिक भावनाओं के सियासी उभार से भी लेफ्ट की पॉलिटिक्स को नुकसान पहुंचा है. पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के नेता और कैडर दुर्गा पूजा के पंडालों में भी जाने लगे थे, इसे सूबे की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा बताया, लेकिन सेक्यूलर वोटर टीएमसी के साथ चला गया और धार्मिक आस्था वाले मतदाता बीजेपी के साथ हो लिए. केरल में भी पिछले कुछ वर्षों में धार्मिक भावनाओं का उभार हुआ है.
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लेफ्ट को धार्मिक होती जा रही जनता के बीच अधार्मिक व्यवहार का नुकसान भी उठाना पड़ा है. इसका सबसे ताजा उदाहरण पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में केरल की त्रिशूर सीट पर बीजेपी के सुरेश गोपी की करीब दो लाख वोट से जीत है. तिरुवनंतपुरम लोकसभा सीट पर भी बीजेपी के उम्मीदवार ने कांग्रेस के शशि थरूर को कड़ी टक्कर दी और लेफ्ट को तीसरे स्थान पर धकेल दिया. केरल की 20 लोकसभा सीट में से महज एक सीट जीतने वाली बीजेपी छह सीटों पर कड़े मुकाबले में हारी.