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'नेहरू चाहते थे जितनी जल्दी हो सके हम इसे दे दें...', कच्चातिवू द्वीप पर जयशंकर ने पलटे इतिहास के पन्ने

विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि इस मामले को उस समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अधिक महत्व नहीं दिया था. पंडित नेहरू को इसकी कोई चिंता नहीं थी, उन्होंने इसे खास तवज्जो नहीं दी. वह चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके, इससे छुटकारा मिल जाए. श्रीलंका को कच्चातिवु दिए जाने के एक साल पहले तक इस पर चर्चा हो रही थी.

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जयशंकर और नेहरू
जयशंकर और नेहरू

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को कच्चातिवु द्वीप श्रीलंका को देने को लेकर कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधा था. इसके बाद से कच्चातिवु द्वीप एक बार फिर चर्चा में है. सोमवार को विदेश मंत्री जयशंकर ने कच्चातिवु द्वीप को लेकर भारत और श्रीलंका के बीच 1974 में हुए समझौते और इसके प्रभावों पर बात की. उन्होंने इस मामले पर पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू की उदासीनता को भी जिम्मेदार ठहराया.

जयशंकर ने कहा कि आज, लोगों को ये जानना और समझना जरूरी है कि इस मामले को इतने लंबे समय तक लोगों से छिपाकर क्यों रखा गया? हमें पता है कि ये किसने किया है लेकिन हमें ये नहीं पता है कि इसे किसने छिपाया. हमारा मानना है कि लोगों को इस मुद्दे की वास्तविकता जानने का पूरा हक है.

उन्होंने कहा कि  1974 में भारत और श्रीलंका के बीच एक समझौता हुआ था, जहां दोनों ने समुद्री सीमा तय की थी और इस समुद्री सीमा को तय करने में कच्चातिवु श्रीलंका के हिस्से में चला गया था.

जयशंकर ने कहा कि ये कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जो अचानक से चर्चा में आ गया है. ये दशकों पुराना मुद्दा है, जिसका मैने लगभग 21 बार जवाब दिया है. इस मामले पर डीएमके ने इस तरह बर्ताव किया है, जैसे उनकी इसे लेकर कोई जिम्मेदारी नहीं है. इसका सबसे अधिक असर मछुआरों पर  पड़ा है. कच्चातिवु द्वीप मामले से डीएमके के दोहरे मापदंड पूरी तरह से बेनकाब हुए हैं.

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उन्होंने कहा कि इस मामले को उस समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अधिक महत्व नहीं दिया था. पंडित नेहरू को इसकी कोई चिंता नहीं थी, उन्होंने इसे खास तवज्जो नहीं दी. वह चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके, इससे छुटकारा मिल जाए. श्रीलंका को कच्चातिवु दिए जाने के एक साल पहले तक इस पर चर्चा हो रही थी.

उन्होंने कहा कि भारत और श्रीलंका कच्चातिवु को लेकर दावे करते रहे हैं. भारत का दावा है कि कच्चातिवु द्वीप रामनाद के राजा का था, ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें इसकी जमींदारी सौंपी थी. लेकिन बाद में कच्चातिवु द्वीप पर हक रामनाद के राजा से मद्रास रेजिडेंसी के पास चला गया. दूसरा विवाद ये था कि आजादी के बाद कई सालों तक भारतीय कस्टम्स नियमित तौर पर कच्चातिवु द्वीप जाते थे और इनका कोई विरोध भी नहीं किया गया. भारत का मानना था कि इसके कोई दस्तावेजी साक्ष्य नहीं थे कि कच्चातिवु द्वीप पर भारत का वास्तविक हक था. 

जयशंकर ने कहा कि बीते 20 सालों में श्रीलंका ने 6184 भारतीय मछुआरों को डिटेन किया है और 1175 भारतीय मछुआरों की नौकाओं को जब्त की है. बीते पांच साल में विभिन्न पार्टियों ने कच्चातिवु और मछुआरों के मामले को बार-बार संसद में उठाया है. इस पर संसद में काफी चर्चा हुई है. मैंने तमिलनाडु के मौजूदा मुख्यमंत्री को 21 बार इस मुद्दे पर जवाब दिया है. तमिलनाडु की किसी भी पार्टी ने इस पर कोई रुख अख्तियार नहीं किया है. कांग्रेस और डीएमके दोनों पार्टियों ने इस मुद्दे को इस तरह लिया है, जैसे उनकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं है.

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यह भी पढ़ें: 163 एकड़ एरिया में फैला निर्जन द्वीप, 50 साल पुराना समझौता... कच्चातिवु द्वीप के भारत से श्रीलंका के हाथ जाने की पूरी कहानी

1974 के समझौते के तहत श्रीलंका को सौंपा था

साल 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति श्रीमावो भंडारनायके के बीच इस द्वीप पर समझौता हुआ था. 26 जून, 1974 और 28 जून 1974 में दोनों देशों के बीच दो दौर की बातचीत हुई. ये बातचीत कोलंबो और दिल्ली दोनों जगह हुई थी. बातचीत के बाद कुछ शर्तों पर सहमति बनी और द्वीप श्रीलंका को सौंप दिया गया था. इसमें एक शर्त ये भी थी कि भारतीय मछुआरे जाल सुखाने के लिए इस द्वीप का इस्तेमाल करेंगे. साथ ही द्वीप पर बने चर्च पर जाने के लिए भारतीयों को बिना वीजा इजाजत होगी. लेकिन एक शर्त ये भी थी कि भारतीय मछुआरों को इस द्वीप पर मछली पकड़ने की इजाजत नहीं दी गई थी.

मछली पकड़ने के लिए तमिलनाडु के रामेश्वरम जैसे जिलों के मछुआरे कच्चातिवु द्वीप की तरफ जाते हैं. बताया जाता है कि भारतीय जल हिस्से में मछलियां खत्म हो गई है. लेकिन द्वीप तक पहुंचने के लिए मछुआरों को अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा पार करनी पड़ती है. जिसे पार करने पर श्रीलंका की नौसेना उन्हें हिरासत में ले लेती है. इस वजह से इस पर विवाद बना हुआ है.

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