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शनि, भैरव, यम, जस्टिसिया... पुराणों से विश्वभर की सभ्यताओं तक न्याय की देवी और देवता का बदलता रहा रूप

भारतीय मिथकों और पौराणिक संदर्भों की बात करें तो इसमें भी धर्म के साथ-साथ न्याय को सबसे बड़ा माना गया है. पौराणिक कथाओं में न्याय के देवी-देवता और इसके कई प्रतीकों का न सिर्फ जिक्र हुआ है, बल्कि ये सभी एक किरदार की तरह पुराणों में शामिल रहे हैं. पुराणों में शनिदेव, यमराज और काल भैरव जैसे देव हैं जो न्याय के देवता कहे जाते हैं.

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पुराणों से लेकर विश्व की अनेक सभ्यताओं तक न्याय के प्रतीक अलग-अलग देवी-देवता रहे हैं
पुराणों से लेकर विश्व की अनेक सभ्यताओं तक न्याय के प्रतीक अलग-अलग देवी-देवता रहे हैं

CJI ने हाल ही में भारतीय न्याय व्यवस्था की प्रतीक प्रतिमा में कुछ फेरबदल करते हुए उसे नया स्वरूप दिया है. नई प्रतिमा की आंख पर पट्टी नहीं है और उन्होंने हाथ में तलवार की जगह संविधान को थाम रखा है. न्याय की देवी का कॉन्सेप्ट रोमन सभ्यता से आया था. इस देवी का नाम 'जस्टिसिया' (Justitia) है और इसी से जस्टिस शब्द भी निकला है. लेडी ऑफ जस्टिस का ये स्वरूप भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से आया था. आजादी के बाद भी भारत की शासन व्यवस्था और सरकारी काम-काज में ब्रिटिश छाप बाकी रही और इसका असर न्यायालय और न्याय व्यवस्था पर भी पड़ा. भारतीय न्यायालयों में न्याय के प्रतीक के तौर पर लेडी ऑफ जस्टिस की मौजूदगी उसी समय से है.

CJI ने न्याय की मूर्ति को दिया नया कलेवर
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने इसी प्रतीक को बदलते हुए उसे नया कलेवर दिया है और उसे कुछ भारतीय रंगत देने की भी कोशिश की है. जैसे न्याय की देवी की नई प्रतिमा मुकुट धारी है. वह बिल्कुल सफेद है जो न्याय और सच का प्रतीक है. देवी के हाथ में पहले की ही तराजू है, क्योंकि तराजू को भारतीय पौराणिक मिथकों में भी धर्म और निष्पक्षता का प्रतीक माना गया है. देवी के हाथ में अब तलवार नहीं, बल्कि उसकी जगह संविधान है. आंखों पर बंधी पट्टी हटा दी गई है.

Lady of Justice

नई प्रतिमा में है ये संदेश
यह नई प्रतिमा इस बात का संदेश है कि भारत में कानून अंधा नहीं है, बल्कि चौकस है-जागरूक है. इसके साथ ही यह भी न्याय संविधान के साथ और इसके आधार पर चलेगा. हालांकि पुरानी प्रतिमा के आंखों पर बंधी पट्टी, अंधा कानून का प्रतीक नहीं बल्कि निष्पक्षता की कसौटी थी. यह पट्टी इस बात का प्रमाण थी कि न्याय के लिए बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब, बलवान-कमजोर कोई भी मायने नहीं रखता है. उसके लिए सिर्फ और सिर्फ न्याय मायने रखता है.

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पौराणिक कथाओं में न्याय के देवी-देवता
भारतीय मिथकों और पौराणिक संदर्भों की बात करें तो इसमें भी धर्म के साथ-साथ न्याय को सबसे बड़ा माना गया है. पौराणिक कथाओं में न्याय के देवी-देवता और इसके कई प्रतीकों का न सिर्फ जिक्र हुआ है, बल्कि ये सभी एक किरदार की तरह पुराणों में शामिल रहे हैं. 

शनि देव- न्याय के देवता के तौर पर बात होती है तो शनि देव का जिक्र सबसे पहले आता है. ज्योतिष में भी शनि एक महत्वपूर्ण ग्रह है जो कि कर्म के आधार पर किसी भी मनुष्य की कुंडली में फल देता है. इसलिए भारतीय पूजा पद्धति में शनि देव को कर्म फलदाता कहा जाता है. शनि की साढ़ेसाती-ढैय्या, वक्र (तिरछी) दृष्टि, शनि दंड     और शनि पाश ऐसे खास हथियार हैं जो न्याय की रक्षा करते हैं और हर किसी को उसके कर्म के अनुसार दंडित करते हैं. 

शनिदेव

भैरव- पौराणिक कथाओं में न्याय के रक्षक और दंड विधान के देवता के तौर पर भैरव का भी जिक्र हुआ है. हालांकि भैरव की न्याय पद्धति हिंसक है और वह नकारात्मक शक्तियों वाले लोगों को सीधे दंडित करते हैं. उन्हें काल भैरव भी कहा जाता है और इस तरह वह महादेव शिव के साथ भी जुड़ जाते हैं और कई जगहों पर भैरव को शिव का ही एक स्वरूप कहा गया है. भैरव की सवारी श्वान (कुत्ता) है, इसलिए भारतीय समाज में श्वान भी सम्मानित दृष्टि से देखा जाने वाला पशु है. ऐसा माना जाता है कि भैरव हर किसी के सभी अच्छे-बुरे कर्म की निगरानी करते हैं. 

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यम या यमराज - न्याय विधान के देवता कहे जाने वालों में यमराज भी प्रमुख हैं. भैरव और शनि तो किसी के जीवन में ही उसे उसके कर्मों का दंड दे सकते हैं, लेकिन यमराज से सामना मृत्यु के बाद ही हो सकता है. वह व्यक्ति से नहीं आत्मा से संवाद करते हैं और दंड भी आत्मा को ही देते हैं. उनके पास एक दंड (गदा) होती है, जो उनके न्याय और शक्ति का प्रतीक है. यमराज मृत आत्माओं का न्याय करते हैं और उन्हें उनके कर्मों के आधार पर स्वर्ग या नरक भेजते हैं. यमराज का वाहन भैंसा है, जो दृढ़ता और शक्ति का प्रतीक है और यह बताता है कि न्याय को बिना किसी डर के लागू होना चाहिए. 

यमराज

देवी त्रिपुर सुंदरीः  देवी भागवत और शाक्त परंपरा में देवी त्रिपुर सुंदरी न्याय की संस्थापक देवी हैं. देवी त्रिपुर सुंदरी ही संसार की वह आदिशक्ति हैं, जिनके अलग-अलग स्वरूप ही दुर्गा, काली, लक्ष्मी और पार्वती के नाम से जाने जाते हैं. इन्हें ही अंबा या माता कहकर पुकारा गया है और देवी ने देवताओं की पुकार सुनकर उन्हें अभय दिया था और कहा था कि न्याय की रक्षा और उसकी स्थापना के लिए वह बार-बार आएंगी. त्रिपुर सुंदरी को दस महाविद्याओं में भी गिना जाता है.

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उनके एक हाथ में गन्ने की छड़ी भी दिखाई देती है. इसी गन्ने की छड़ी से उन्होंने एक बार लोभासुर (लोभ का प्रतीक), मोहासुर (मोह का प्रतीक) क्रोधासुर (क्रोध का प्रतीक) और कामासुर (वासना का प्रतीक) इन चारों की पिटाई की थी और उन्हें अपनी शक्ति नियंत्रित करने के लिए विवश किया था. त्रिपुर सुंदरी की पूजा विशेष रूप से तांत्रिक साधना में की जाती है, और उन्हें परम शक्ति या पराशक्ति के रूप में माना जाता है.

न्याय के प्रतीक और धर्म मूर्ति राजा
भारतीय पुराणों में न्याय प्रिय और धर्म मूर्ति राजाओं का भी विस्तार से वर्णन है. ऐसे राजा जिन्होंने न्याय को ही अपने राज्य की समृद्धि और विकास का कारण मानकर उसे थामे रखा और न्याय के मार्ग से कभी नहीं डिगे. सत्य और न्याय की बात होती है तो राजा हरिश्चंद्र का नाम सबसे पहले आता है, जिन्होंने सत्य और न्याय के लिए राजपाट दान कर दिया. श्मशान में अपने पुत्र का शव देखकर भी वह अपनी पत्नी शैव्या से कर (टैक्स) मांगने में नहीं हिचकिचाए. राजा विक्रमादित्य का नाम भी न्याय प्रियता का बड़ा उदाहरण है. उनकी न्याय प्रियता के किस्से प्रसिद्ध किस्सागोई 'सिंहासन बत्तीसी' और 'बेताल पचीसी' में दर्ज हैं, लेकिन न्याय प्रियता के लिए पुराणों में दो राजाओं का नाम सबसे ऊपर है. 

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1. युधिष्ठिरः महाभारत के प्रमुख पात्र और पांडवों के सबसे बड़े भाई, युधिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है. वे धर्म और न्याय के प्रति अपनी निष्ठा के लिए जाने जाते हैं. महाभारत के युद्ध में भी उन्होंने हमेशा धर्म का पालन किया और राज्याभिषेक के बाद भी धर्मराज के रूप में राज्य किया, जिसमें न्याय और सत्य का शासन स्थापित किया. उनकी न्याय प्रियता के कई किस्से हैं. 

वनवास के दौरान जब एक बार यक्ष ने उनके चारों भाइयों को मूर्छित कर दिया तब युधिष्ठिर उसके पास पहुंचे और उससे अपने भाइयों का जीवन मांगा. यक्ष ने किसी एक भाई को जीवित करने की शर्त रखी और यह भी कहा कि पहले वह उसके सवालों के सही जवाब दे. तब यक्ष ने युधिष्ठिर से कई प्रश्न किए. जैसे आकाश से बड़ा कौन? धरती से भारी कौन? आश्चर्य क्या है? 

यक्ष प्रश्न- किंस्विद्वधते नित्यं? किंस्विच्चाश्चर्यं? कः पन्थाः? कः समाचारः?

युधिष्ठिर का उत्तर:
 

अहङ्कारो नित्यं वधते, अहंकार ही नित्य नष्ट होता है।
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यमालयम्।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्॥ 

(प्रतिदिन प्राणी यमलोक जाते हैं, फिर भी शेष लोग अमरता की आकांक्षा रखते हैं, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है.)

तद्वृत्तं सुमहाजनो यत्र गच्छति स पन्थाः।
 

(महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वही श्रेष्ठ मार्ग है.)

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यक्ष प्रश्न-  किं मित्रं गृहस्थस्य?
युधिष्ठिर का उत्तर:

पतिव्रता धर्मपत्नी तु गृहस्थस्य परं मित्रम्।
 

(पतिव्रता धर्मपत्नी गृहस्थ के लिए सर्वोत्तम मित्र होती है.)

इस तरह कई प्रश्न पूछने के बाद यक्ष जब युधिष्ठिर के उत्तरों से सहमत होता है तब वह प्रसन्न हो जाता है और कहता है कि मैं तुम्हारे किसी एक भाई को जीवित कर सकता हूं, बताओ किसे जीवित करूं? यहां युधिष्ठिर चाहते तो अर्जुन या भीम के प्राण वापस मांग सकते थे, क्योंकि ये दोनों महाभारत के होने वाले युद्ध में  बड़े सहायक सिद्ध होते, लेकिन इसके उलट युधिष्ठिर ने कहा कि, माता कुंती का एक पुत्र मैं तो जीवित ही हूं, आप नकुल को जीवित कीजिए, ताकि माता माद्री का भी एक पुत्र जी उठे. यक्ष युधिष्ठिर की इस न्यायप्रियता से बहुत ही प्रसन्न होता है और सभी भाइयों को जीवित कर देता है. 

युधिष्ठिर

जब युधिष्ठिर ने किया था हत्या के मामले में न्याय
इसी तरह जब युधिष्ठिर युवराज थे तब एक बार दरबार में किसी नागरिक की हत्या का मामला सामने आता है. इस हत्या के चार आरोपी थे. दुर्योधन से जब इस पर न्याय करने को कहा जाता है तो वह कहता है कि हत्या का मामला स्पष्ट है और इन चारों को हाथी के नीचे कुचलवा दिया जाए, लेकिन युधिष्ठिर पहले चारों से वर्ण और जाति पूछते हैं तो सभा में हंगामा मच जाता है.

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दुर्योधन कहता है कि हत्या के मामले में जाति कहां से आ गई? तब युधिष्ठिर कहते हैं कि शूद्र हत्यारोपी को सही-गलत का ज्ञान नहीं है, इसलिए उसे इसके लिए चार वर्ष का कारावास दिया जाए. वैश्य आरोपी को शूद्र जितना अज्ञानी नहीं, इसलिए उसका दंड दोगुना हो जाता है और उसे 8 वर्ष का कारावास दिया जाए.

क्षत्रिय का धर्म रक्षा करना है और वही भक्षक बन जाए तो न्याय कहता है कि उसे वैश्य से भी दोगुना दंड मिलना चाहिए. इसलिए इसे 16 वर्ष का कारावास दिया जाए. अब बचा ब्राह्मण, तो उसका ये कृत्य तो मृत्यु दंड से कम नहीं, लेकिन ब्राह्मण अवध्य है इसलिए इस ब्राह्मण दोषी का दंड कुलगुरु कृपाचार्य तय करें. वह चाहें तो मृत्यु दंड की आज्ञा दे सकते हैं. 

युधिष्ठिर के न्याय की जद में धृतराष्ट्र भी आए
इसके बाद वह महाराज धृतराष्ट्र की ओर मुड़ते हैं और कुछ कहने के लिए आज्ञा मांगते हैं. तब धृतराष्ट्र पूछते हैं कि क्या कुछ कहना चाहते हो? तब युधिष्ठिर कहते हैं कि न्याय अभी पूरा नहीं हुआ. अगर किसी राज्य में हत्या जैसा एक भी अपराध हो जाए तो राजा को चाहिए कि वह इस बात पर विचार करे कि क्या वह राजा बने रहने योग्य है? जिसकी प्रजा में इतना असंतोष है कि वह हत्या जैसा अपराध करने पर उतारू हो जाए तो यह राजा के लिए ठीक नहीं है. ऐसा था युधिष्ठिर का न्याय. इसलिए युधिष्ठिर को न्यायप्रिय और धर्ममूर्ति कहा गया है.

राजा शिबि-  पुराणों में इसी तरह एक और न्याय प्रिय राजा शिबि का भी जिक्र हुआ है. उन्हें अपनी न्याय प्रियता के कारण ही इंद्र पद भी मिला था. राजा शिबि अपने राज्य में न्याय और धर्म के लिए प्रसिद्ध थे. एक दिन, एक गिद्ध और एक कबूतर उनके पास आए. गिद्ध ने कहा कि वह भूखा है और उसे भोजन चाहिए. उसने कबूतर को अपना शिकार बनाने का निर्णय लिया है. कबूतर ने गिद्ध से कहा कि वह निर्दोष है और उसे मारना गलत है. राजा शिबि ने यह सब सुना और दोनों पक्षों की बात सुनी. उन्होंने गिद्ध से कहा कि उसे शिकार करने का कोई अधिकार नहीं है. गिद्ध ने कहा कि उसके लिए कबूतर का मांस खाना जरूरी है, क्योंकि वह बहुत भूखा है. राजा ने गिद्ध को यह समझाया कि निर्दोष प्राणियों की हत्या करना धर्म के विरुद्ध है.

राजा शिबि का न्याय और तराजू
गिद्ध ने राजा को चुनौती दी कि यदि वह उसे अपना मांस देने के लिए तैयार हो, तो वह कबूतर को छोड़ देगा. राजा शिबि ने तुरंत ही अपने शरीर का मांस काटकर गिद्ध को देने का प्रस्ताव रखा. अब राजा ने तराजू पर एक तरफ कबूतर को रखा और दूसरी ओर अपना मांस काट-काटकर रखने लगे. राजा अपना जितना भी मांस रखते, वह कबूतर से हल्का निकलता. इस पर राजा ने मांस काटना छोड़कर खुद ही पलड़े पर बैठ गए. गिद्ध और कबूतर ने राजा की न्यायप्रियता और दानवीरता देख ली और वह अपने असली रूप अग्निदेव (कबूतर) और इंद्रदेव (बाज) के रूप में आ गए. राजा शिबि ने अपनी शौर्य और न्यायप्रियता से यह सिद्ध कर दिया कि वे अपने प्राणों की परवाह किए बिना दूसरों के जीवन की रक्षा के लिए तत्पर हैं. न्याय के तराजू का उदाहरण भी यहीं से लिया गया है.

न्याय के लोक देवता
गोलू देवता-
उत्तराखंड में गोलू देवता की पूजा विशेष रूप से न्याय और सत्य के प्रतीक के रूप में की जाती है. उन्हें लोकदेवता के रूप में मान्यता प्राप्त है, जो अपने भक्तों की समस्याओं का समाधान करते हैं और न्याय की रक्षा करते हैं. 

गोगाजी देव- राजस्थान के कई ग्रामीण इलाकों में न्याय के देवता के रूप में पूजे जाने वाले क्षेत्रीय देवता, इनके मंदिरों में घंटियां बंधी मिलती हैं, जो न्याय की गुहार की प्रतीक हैं.

वीर तेजाजी- राजस्थान के साथ ही मध्य प्रदेश में भी न्याय के लिए पूजे जाने वाले एक और लोक देवता हैं.

कान्हा बाबा- यूपी-बिहार में गांव की सीमाओं पर इनके मंदिर बने होते हैं, क्षेत्र की रक्षा करने के साथ ये न्याय की भी रक्षा करने वाले माने जाते हैं.

दक्षिण भारत में न्याय के लोक देवता

मदुरै वीरन: तमिलनाडु में मदुरै वीरन को न्याय और साहस के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है. वे विशेष रूप से उत्पीड़ित समुदायों के रक्षक माने जाते हैं.

अय्यनार: तमिलनाडु, केरल, और कर्नाटक में अय्यनार भी एक प्रमुख ग्रामीण देवता हैं. उन्हें न्याय, धर्म और गांव की सुरक्षा का रक्षक माना जाता है. वे गांवों की सीमाओं पर स्थापित मंदिरों में पूजे जाते हैं और न्यायप्रियता के प्रतीक माने जाते हैं. 

विश्व की सभ्यताएं और उनमें न्याय के देवी-देवता

1. ग्रीक सभ्यता: थीमिस (Themis)
थीमिस ग्रीक पौराणिक कथाओं में न्याय और व्यवस्था की देवी हैं. उन्हें न्याय और ईश्वरीय नियमों का प्रतीक माना जाता था. थीमिस की मूर्ति में एक हाथ में तराजू और दूसरी में तलवार है. यह जो निष्पक्षता और सजा का प्रतीक हैं. उनका एक और प्रमुख प्रतीक आंखों पर पट्टी है, जो यह बताता है कि न्याय बिना किसी पक्षपात के होता है. तराजू निष्पक्षता का प्रतीक है, जो सही और गलत के बीच संतुलन को दर्शाता है.  तलवार न्याय और अनुशासन का प्रतीक है. 

2. मिस्र की सभ्यता: मात या माट (Ma'at)
प्राचीन मिस्र में, मात न्याय, सत्य, और सद्भाव की देवी थीं. उन्हें ब्रह्मांडीय व्यवस्था, कानून, और नैतिकता की संरक्षक माना जाता था. मिस्रवासी मानते थे कि उनकी मृत्यु के बाद, उनका दिल मात के पंख के साथ तोला जाएगा. अगर उनका दिल पंख से हल्का हुआ, तो उन्हें स्वर्ग में स्थान मिलेगा नहीं तो उन्हें दंडित किया जाएगा. मात के पंख सत्य और न्याय का प्रतीक है. मिस्र की सभ्यता में मात का न्याय बहुत महत्वपूर्ण था, और उसकी पूजा फेराओ द्वारा उनकी मृत्यु के बाद न्याय के लिए की जाती थी.

3. रोमन सभ्यता: जस्टिसिया (Justitia)
रोमन सभ्यता में, जस्टिसिया को न्याय की देवी के रूप में पूजा जाता था. वह ग्रीक थीमिस के ही समकक्ष हैं, और उनके हाथों में भी तराजू और तलवार होती है. जस्टिसिया की मूर्ति को अक्सर आंखों पर पट्टी के साथ दर्शाया जाता है, जो निष्पक्षता का प्रतीक है. आंखों पर पट्टी यह बताती है कि न्याय किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त होता है और केवल तथ्यों के आधार पर किया जाता है.

4. नॉर्स (Viking) सभ्यता: बाल्डर (Balder)
नॉर्स मिथक में, बाल्डर को सत्य, न्याय, और पवित्रता का देवता माना जाता था. वह भगवान ओडिन और देवी फ्रिग्ग के पुत्र थे, और नॉर्स पौराणिक कथाओं में उनका संबंध निष्पक्षता और सत्य से था. बाल्डर को न्याय और नैतिकता का प्रतीक माना जाता था.

5. मेसोपोटामिया: शामाश (Shamash)
प्राचीन मेसोपोटामिया में, शामाश (या उतु) सूर्य और न्याय के देवता माने जाते थे. वह प्रकाश और सत्य के प्रतीक थे और उन्हें अंधकार और अन्याय से लड़ने वाला माना जाता था.
उन्हें अक्सर सिंहासन पर बैठे हुए और कानूनों को स्थापित करते हुए दर्शाया जाता है, जो कि उनकी न्याय और सत्य के प्रति दृढ़ता को दर्शाता है.

6. चीन: यिन और यांग
चीनी सभ्यता में, यिन और यांग न्याय और संतुलन का प्रतीक है. यह दर्शाता है कि हर चीज में एक संतुलन होता है और न्याय इसी संतुलन से आता है. 

7. सुमेरियन सभ्यता: नानसे (Nanshe)
सुमेरियन सभ्यता में, नानसे देवी को सामाजिक न्याय की देवी माना जाता था. उनका काम अन्याय और गरीबी से लड़ने के साथ-साथ कमजोरों की सहायता करना था. उनके द्वारा सभी को समान न्याय और अधिकार दिलाने का प्रयास किया जाता था.

8. जर्मनिक और केल्टिक सभ्यता: टीयर (Týr)
जर्मनिक और केल्टिक सभ्यताओं में, टीयर युद्ध और न्याय के देवता माने जाते थे. उन्हें न्याय की निष्पक्षता और सच्चाई का प्रतीक माना जाता था. उनका एक हाथ भेड़िए फेनरिस द्वारा काटा गया था, जो न्याय के लिए उनके बलिदान को दर्शाता है.

9. बौद्ध धर्म: धर्मपाल (Dharmapāla)
बौद्ध धर्म में, धर्मपाल न्याय के संरक्षक माने जाते हैं. वे अहिंसा और नैतिकता की रक्षा के लिए खड़े होते हैं और बौद्ध धर्म के अनुयायियों को सही मार्ग दिखाते हैं. धर्मपाल बौद्ध न्याय और सत्य के प्रतीक हैं.

फिल्मों में न्याय और उसके प्रतीक
मुगल-ए-आजमः
फिल्म मुगल-ए-आजम में एक विशालकाय तराजू को न्याय के प्रतीक के रूप में दिखाया गया है. शहंशाह अकबर का न्याय जब लड़खड़ाता है तो अनारकली की मां तराजू के एक पलड़े पर अकबर के कौल की दी हुई अंगूठी रख देती है. उस एक अंगूठी का वजन, अकबर की पूरी शहंशाही से अधिक होता है. फिल्म में इस तरह न्याय को सबसे बड़ा दिखाया गया है.

मशालः दिलीप कुमार की इस फिल्म में भी न्याय की तलाश में घंटा बजाने का एक बहुत ही प्रतीकात्मक दृश्य है, जो न्याय और सत्य की पुकार को दर्शाता है.

बुलंदीः अनिल कपूर और रजनीकांत की इस फिल्म में न्याय का प्रतीक हाथ में पहनने वाला एक कड़ा है. इस 'कड़े' को पहनना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और यह जिम्मेदारी न्याय से जुड़ी है, जिस दिन न्याय गलत हुआ, उस दिन नायक की जान चली जाएगी. 

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