5 जून 1984 को भारतीय सेना ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से सिख उग्रवादियों को हटाने के लिए ऑपरेशन ब्लूस्टार शुरू किया. जरनैल सिंह भिंडरावाले के नेतृत्व में उग्रवादी खालिस्तान (पवित्र भूमि) नाम के एक अलग सिख राज्य के लिए सशस्त्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे.
आजादी से पहले की जड़ें
भारत की आज़ादी से पहले सिखों ने एक अलग राष्ट्र का आइडिया दिया था. जब ब्रिटिश सरकार के क्रिप्स मिशन ने 1942 में स्वराज पर बातचीत करने के लिए भारत का दौरा किया, तो बाबा खड़क सिंह जैसे लोगों के नेतृत्व में अकाली दल ने अमृतसर में बैठक की, जिसमें विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया और झेलम नदी से सतलुज नदी तक एक सिख राज्य की मांग की गई. अंग्रेजों ने इस मांग को खारिज कर दिया.
प्रवासी समुदाय का सपना
साल 1971 में पंजाब के पूर्व वित्त मंत्री जगजीत सिंह चौहान ने ब्रिटेन में सिख होम रूल आंदोलन को पुनर्जीवित किया और इसका नाम बदलकर खालिस्तान रख दिया. उन्होंने खुद के एक दूतावास की स्थापना की, टिकट, करंसी और पासपोर्ट छापे. कथित तौर पर पाकिस्तान समर्थित तत्वों की मदद से उन्होंने सिख प्रवासियों को एकजुट किया.
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12 अक्टूबर, 1971 को न्यूयॉर्क टाइम्स में एक आधे पेज का विज्ञापन छपा, जिसके लेखक कथित तौर पर जगजीत सिंह चौहान थे और जिसे पाकिस्तान की आईएसआई ने फंडिंग दी थी. इसमें बफर स्टेट खालिस्तान की मांग की गई थी, जिसे उपमहाद्वीप में शांति की एकमात्र गारंटी बताया गया था. बहुत कम लोगों ने इस लेख को गंभीरता से लिया.
एक मौन दफ़न
साल 1966 में, सिखों की मांगों पर प्रतिक्रिया देते हुए सरकार ने भाषाई आधार पर पंजाब का पुनर्गठन किया, जिससे आज का पंजाब बना. इसमें जुल्लुंदुर (जालंधर), होशियारपुर, लुधियाना, फिरोजपुर, अमृतसर, पटियाला, भटिंडा, कपूरथला, गुरदासपुर, अंबाला और संगरूर के कुछ हिस्से शामिल थे. सिख बहुसंख्यक और पंजाबी प्राथमिक भाषा वाले इस नए राज्य में भारत के ज्यादातर सिख रहते थे. केंद्र की ओर से पंजाबी सूबा (राज्य) की मांग को स्वीकार करने के बाद सिखों के लिए एक अलग राज्य की मांग कम हो गई.
जैल सिंह और पवित्र घोड़ा
साल 1972 में ज्ञानी जैल सिंह, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति और पंजाब के मुख्यमंत्री बने. सिख मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए उन्होंने सिख धार्मिक भावनाओं से जुड़ी पहल की, जिसमें प्रतीकात्मक रूप से ब्रिटेन से एक घोड़ा लाना भी शामिल था, जिसके बारे में दावा किया गया कि वह गुरु गोबिंद सिंह की सवारी रहे घोड़े का वंशज है.
सिखों के स्वयंभू राजनीतिक प्रतिनिधि अकाली दल ने आनंदपुर साहिब में जमा होकर, जहां खालसा परंपरा शुरू हुई थी, पंजाब को ज्यादा स्वायत्तता देने की मांग की.
आनंदपुर साहिब संकल्प
स्वतंत्रता के बाद बर्खास्त किए गए भारतीय सिविल सेवा के पूर्व अधिकारी सरदार कपूर सिंह ने 1973 के आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का मसौदा तैयार करने में मदद की. इसने पंजाब के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग की, जिसमें केंद्र की भूमिका को रक्षा, बाहरी मामलों और मुद्रा तक सीमित करने का प्रस्ताव था, हालांकि इसके दायरे पर बहस जारी है.

बाद में संशोधित इस मसौदे ने ज्यादा पानी और चंडीगढ़-एक केंद्र शासित प्रदेश को पंजाब में ट्रांसफर करने जैसी मांगों पर फोकस किया. साल 1977 के पंजाब चुनावों में अकालियों के जीतने पर यह प्रस्ताव फीका पड़ गया, लेकिन 1980 में कांग्रेस से हारने के बाद इसे फिर से शुरू किया गया. अमृतसर के पास एक पाठशाला, दमदमी टकसाल के जत्थेदार (लीडर) के रूप में भिंडरावाले के उदय से इसे ताकत मिली.
भिंडरावाले की एंट्री
सिख धर्मगुरु ने डेमोग्राफिक चेंज और उनकी विशिष्ट पहचान के खत्म होने के बारे में सिखों के बीच चिंताओं को उजागर किया. उन्होंने सिखों के बीच इस डर का फायदा उठाया कि हिंदू जल्द ही उनसे अधिक संख्या में हो जाएंगे और उनकी स्वतंत्र पहचान मिट जाएगी. खालिस्तान पर सार्वजनिक रूप से अस्पष्ट, उन्होंने कहा कि वे न तो इसके पक्ष में हैं और न ही इसके खिलाफ, फिर भी उन्होंने दावा किया कि सिख अब भारत में नहीं रह सकते.
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उनके एक अनुयायी बलबीर सिंह संधू ने खुद को खालिस्तान की स्वघोषित राष्ट्रीय परिषद का महासचिव बताया. उन्होंने खालिस्तान का एक हस्तलिखित संविधान रखा था, जिसे वे हर उस व्यक्ति को पढ़कर सुनाते थे जो सुनना चाहता था. संधू के दिमाग में खालिस्तान साम्यवादी आदर्शों वाला एक धार्मिक राज्य था- सिखों के लिए एक तरह का कम्युनिस्ट इजरायल. कांग्रेस और अकालियों के बीच छोटी-मोटी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने हिंदू-सिख तनाव को गहरा कर दिया, जिससे दशकों का सह-अस्तित्व बिखर गया.
धर्म युद्ध मोर्चा
24 अप्रैल 1982 को अकालियों ने सतलुज यमुना लिंक नहर के खिलाफ आंदोलन शुरू किया, जो पड़ोसी राज्यों को पानी की सप्लाई करने वाली एक परियोजना थी. इस प्रोजेक्ट का शुभारंभ खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कपूरी नाम के स्थान पर किया था, आंदोलन को कपूरी मोर्चा भी कहा जाता था. जून की शुरुआत में नहर के खिलाफ विरोध एक सविनय अवज्ञा आंदोलन में बदल गया.
इस बीच, भिंडरावाले ने गिरफ्तार ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन के सदस्यों की रिहाई की मांग करते हुए स्वर्ण मंदिर से अपना मोर्चा शुरू किया. 4 अगस्त 1982 को वह और अकाली धर्म युद्ध मोर्चा (धार्मिक संघर्ष) के तहत एकजुट हुए और आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पर दबाव बनाने के लिए गिरफ्तारी दी. भिंडरावाले स्वर्ण मंदिर के पास एक हॉस्टल, गुरु नानक निवास में चले गए. सैकड़ों अनुयायी उनके साथ शामिल हो गए. उनमें से ज्यादातर ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन के सदस्य और बपतिस्मा लिए गए निहंग थे. उनके गार्ड्स सेना और पुलिस के पूर्व कर्मचारी थे. अराजकता का लाभ उठाते हुए पंजाब में एक्टिव कुछ खूखांर अपराधियों और तस्करों ने भी मंदिर में शरण ली.
ऑपरेशन ब्लूस्टार
15 दिसंबर 1983 को गिरफ्तारी के डर से भिंडरावाले स्वर्ण मंदिर परिसर में चले गए. 1983 के आखिर तक प्रतिद्वंद्वी सिख उग्रवादी समूहों के बीच संघर्ष ने मंदिर के गलियारों को युद्ध के मैदान में बदल दिया. भिंडरावाले के अनुयायियों का संबंध पंजाब में हिंसा की लहर से था, जिससे हिट लिस्टों और खालिस्तान की घोषणा की अफवाहों के बीच डर फैल गया, जिसे कथित तौर पर पाकिस्तान का समर्थन हासिल था.
पंजाब में बढ़ते संकट और अपनी 'आयरन लेडी' की इमेज को खतरे में देखते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वर्ण मंदिर में सेना को भेजने का आदेश दिया. 5 जून 1984 को ऑपरेशन ब्लूस्टार की शुरुआत हुई, जब टैंकों ने हमला बोल दिया, जिसके परिणामस्वरूप एक दुखद मुठभेड़ हुई, जिसने सिख समुदाय और भारत के इतिहास पर गहरे दाग छोड़ दिए.