scorecardresearch
 

जंगल की सियासत से दिल्ली दरबार में धमक तक... झारखंड के नायक शिबू सोरेन की कहानी!

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का 81 साल की उम्र में निधन हो गया है. आदिवासी परिवार में जन्मे सोरेन ने जंगल से लेकर दिल्ली की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ बनाई. झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन कर आदिवासी समुदाय को राजनीतिक पहचान दिलाई तो अपनी हनक भी बरकार रखी.

Advertisement
X
झारखंड में आदिवासियों का मसीहा शिबू सोरेन का निधन (Photo-ITG)
झारखंड में आदिवासियों का मसीहा शिबू सोरेन का निधन (Photo-ITG)

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का सोमवार सुबह निधन हो गया है. वो लंबे समय से बीमार चल रहे थे. दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में 81 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. झारखंड के नेमरा गांव के आदिवासी परिवार में जन्मे शिबू सोरेन लाखों-करोड़ों आदिवासियों के लिए किसी भगवान से कम नहीं थे. 

शिबू सोरेन के समर्थक उनकी एक झलक पाने के लिए हर वर्ष दो फरवरी को झारखंड की उपराजधानी दुमका में देर रात तक जमे रहते थे. शिबू सोरेन जब अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते थे तो उनके समर्थक जोश से भर जाते थे. लंबी बाल-दाढ़ी वाले इस करिश्माई नेता ने झारखंड बनवाने से लेकर आदिवासी समाज को राजनीतिक पहचान दिलाने तक बड़ी भूमिका निभाई. उन्होंने जंगल से दिल्ली तक की सियासत में अपनी हनक बरकरार रखी. 

आजादी से तीन साल पहले 11 जनवरी 1944 को जन्में  शिबू सोरेन का बचपन मुश्किलों से भरा था.उनके पिता सोबरन मांझी की गिनती उस इलाके में सबसे पढ़े लिखे आदिवासी शख्सियत के रूप में होती थी. शिबू सोरेन ने रूपी किस्कू से शादी की. उनके तीन बेटे दुर्गा, हेमंत और बसंत और एक बेटी अंजली है.

शिबू सोरेन के बचपन में पिता की हत्या

Advertisement

शिबू सोरेन के पिता पेशे से एक शिक्षक थे. यूं तो वे बेहद सौम्य स्वाभाव के माने जाते थे, लेकिन सूदखोरों और महाजनों से उनकी बिल्कुल नहीं बनती थी. इसकी सबसे बड़ी वजह सूदखोरों और महाजनों का उस वक्त आदिवासियों के प्रति बर्ताव था. शिबू सोरेन के  सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ गया था.

शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन को महाजनों ने उनकी जमीन के लिए मार डाला. यह घटना शिबू सोरेन के जीवन का ऐसा मोड़ बन गई जिसने उनके दिल में न्याय और समानता की ज्वाला जला दी. इसके बाद शिबू सोरेन ने लकड़ी बेचने का काम शुरू कर दिया. शिबू सोरेन ने महाजनी प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने का संकल्प लिया.

उन्होंने अपने गांव के आदिवासियों को संगठित किया और 'धानकटनी आंदोलन' शुरू किया. शिबू  सोरेन का यह आंदोलन केवल उनके साहस को ही नहीं दर्शाता है, बल्कि एक ऐसा इतिहास रचता है, जिसने झारखंड के आदिवासियों को उनकी शक्ति का एहसास कराया था.

70 के दशक में राजनीति में रखा कदम

शिबू सोरेन ने 1970 के दशक में राजनीति में आदिवासियों के नेता के तौर पर कदम रखा. बताया जाता है कि 1975 में उन्होंने बाहरी यानी गैर-आदिवासी लोगों को निकालने के लिए एक आंदोलन भी छेड़ा. इस दौरान कम से कम सात लोगों की मौत हुई थी. तब सोरेन पर हिंसा भड़काने समेत कई आरोप लगे थे. 

Advertisement

शिबू सोरेन ने पहला लोकसभा चुनाव 1977 में लड़ा था, लेकिन उस चुनाव में उन्हें हार मिली थी. वह पहली बार 1980 में लोकसभा सांसद चुने गए. इसके बाद शिबू 1989, 1991 और 1996 में लोकसभा चुनाव जीते. 2002 में वह राज्यसभा में पहुंचे. इसी साल उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा देकर दुमका से लोकसभा का उपचुनाव जीता.

झारखंड मुक्ति मोर्चाकी स्थापना की और उनके नेतृत्व में यह संगठन झारखंड राज्य के निर्माण की लड़ाई में अग्रणी बन गया. उनका उद्देश्य केवल एक अलग राज्य बनाना नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना था कि आदिवासियों के अधिकार और सम्मान की रक्षा होय उनके संघर्ष और आंदोलन के कारण 2000 में झारखंड राज्य अस्तित्व में आया. शिबू सोरेन ने तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे और दिल्ली की सियासत में  भी आदिवासियों की आवाज को बुलंद किया.

विवादों से भरा रहा राजनीतिक जीवन

शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन पांच साल का कार्यकाल एक बार भी पूरा नहीं कर सके. एक कद्दावर आदिवासी नेता और झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी के संस्थापक सदस्य, उन्होंने 38 वर्षो तक झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया. शिबू ने 1987 में पार्टी की बागडोर संभाली और अप्रैल 2025 तक लगभग 38 वर्षों तक इसके निर्विवाद अध्यक्ष रहे. 

Advertisement

शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन विवादों से भरा रहा है. वो पहली बार मार्च 2005 में झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन 9 दिन के बाद ही उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद 2008 में दोबारा झारखंड के सीएम बने, लेकिन छह महीने के बाद ही उनकी कुर्सी चली गई. इसके बाद तीसरी बार 2009 में मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन कुछ महीनों बाद ही भाजपा से समर्थन न मिलने पर वह बहुमत साबित नहीं कर सके और उन्हें मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

दिल्ली की सियासत में सोरेन की हनक
सोरेन के 2006 में केंद्र सरकार में कोयला मंत्री रहने के दौरान दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें अपने सचिव शशि नाथ की हत्या का दोषी माना था. यह चर्चित हत्याकांड 1994 में हुआ था. इसके अलावा भी उन पर कई आपराधिक मामले रहे हैं. हत्या के मामले में उन्हे ंजेल भी जाना पड़ा तो भ्रष्टाचार के मामले में भी उन पर कानूनी शिकंजा कसा. 

1980, 1989, 1991, 1996, 2002 और 2004 में सांसद बने. इसके अलावा 2009 और 2014 में भी सांसद चुे गए. इस तरह से छह बार लोकसभा संसद रहे और दो बार राज्यसभा सदस्य रहे. संसद रहते हुए दिल्ली की सियासत में अपनी हनक को बरकरार रखा था. यूपीए से लेकर एनडीए सरकार को उन्होंने समर्थन दिया. ऐसे में उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटे हेमंत सोरेन को सौंप दी, जो राज्य के मुख्यमंत्री हैं.  

Advertisement

 

 

 

 

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement