निश्चित तौर पर मार्च 2026 के पहले छत्तीसगढ़ के नक्सलवाद का अंत अब तय दिखने लगा है. जंगलों में जहां कभी बंदूकें गरजती थीं, वहां अब शांति के गीत गूंज रहे हैं. बस्तर और आस-पास के इलाकों में एक नई सुबह ने दस्तक दी है. एक ऐसी सुबह जो केवल योजनाओं की घोषणाओं से नहीं, बल्कि जमीनी बदलाव और जन-आस्था से पैदा हुई है. इस विश्वास का सबसे मजबूत आधार बना है- वो नेतृत्व, जिसने खुद को आदिवासी समाज का अपना बेटा साबित किया है.
बच्चों की आंखों में अब डर नहीं, सपनों की चमक है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स की पढ़ाई शुरू होने से लेकर हिंदी में मेडिकल शिक्षा तक... ये पहलें बस्तर के युवाओं को सीधे भविष्य की ओर ले जा रही हैं. जगदलपुर का नवीनीकृत अस्पताल, केशकाल घाट का चौड़ीकरण और नए रेल मार्ग... ये सब बस्तर को भारत की मुख्य धारा से मजबूती से जोड़ रहे हैं.
जब मुख्यमंत्री विष्णु देव साय बस्तर के गांवों में रात्रि विश्राम करते हैं तो यह केवल एक औपचारिकता नहीं होती. स्थानीय बुजुर्गों के माथे पर हाथ रखकर आशीर्वाद लेना, बच्चों के साथ जमीन पर बैठकर बातें करना, और मांओं की आंखों में भविष्य के लिए उम्मीद देखना- ये दृश्य बस्तर के दिल को छू जाते हैं. वहां के ग्रामीण जब कहते हैं कि “अब दिल्ली में भी हमारी आवाज है” तो यह सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि विश्वास का वो बीज है जो अब फलने-फूलने लगा है.
छत्तीसगढ़ के इतिहास में पहली बार कोई आदिवासी नेता, मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश की बागडोर संभाल रहे हैं, लेकिन यह केवल एक सांकेतिक बदलाव नहीं है. विष्णु देव साय ने अपने सरल व्यवहार, दृढ़ इच्छाशक्ति और विकास के प्रति समर्पण से आदिवासी समाज का दिल जीत लिया है. उनकी नीतियों ने यह एहसास कराया है कि सरकार अब दूर बैठी कोई शक्ति नहीं, बल्कि घर का ही एक सदस्य है.
पहले जिन इलाकों में सरकारी अमला भी जाने से कतराता था, वहां अब सड़कों का जाल बिछ रहा है. मोबाइल टावर खड़े हो रहे हैं. बाजारों में चहल-पहल है. आदिवासी युवाओं के हाथों में अब किताबें हैं, हथियार नहीं. बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर जैसे जिलों में छोटे-छोटे उद्योग, कृषि आधारित व्यवसाय और स्टार्टअप्स की लहर देखने को मिल रही है. यह लहर सिर्फ आर्थिक बदलाव नहीं है, बल्कि एक सामाजिक क्रांति की आहट भी है.
नक्सल हिंसा से जख्मी इस धरती को सींचने का काम अब सुरक्षा बलों और प्रशासन ने मिलकर किया है. ‘नियद नेल्ला नार’ जैसी योजनाएं बस्तर के सुदूर गांवों में एक नया जीवन संचार कर रही हैं, लेकिन साथ ही, सरकार ने यह भी समझा कि केवल फोर्स से जीत नहीं मिलती- जीत दिल से मिलती है. यही वजह है कि पुनर्वास योजनाएं, आत्मसमर्पण की नीतियां और आदिवासी समाज के सम्मान को प्राथमिकता देकर एक स्थायी समाधान की राह खोली गई है.
यही कारण है कि आज लोग खुद आगे आकर नक्सलियों का विरोध कर रहे हैं. ग्रामीण इलाकों में “शांति समितियों” का गठन हुआ है, जो गांव-गांव जाकर शांति का संदेश फैला रहे हैं. बच्चे और युवा अब अपने भविष्य को उजाले में देख रहे हैं, न कि बंदूक के साए में.
तेदूपत्ता संग्राहकों को प्रधानमंत्री की गारंटी के अनुरूप, बढ़ी हुई दरें मिलना और वनोपज पर आधारित आजीविका के नए अवसर बस्तर की आर्थिक आत्मनिर्भरता की कहानी गढ़ रहे हैं. आदिवासी समुदाय के एक बुजुर्ग ने हमें कहा- “पहले हमारे पत्तों का भी कोई मोल नहीं था, अब हर पत्ता हमारी इज्जत बन गया है.” ऐसे शब्द जब ज़मीन से निकलते हैं तो समझ आता है कि बदलाव केवल आंकड़ों में नहीं, दिलों में भी उतर चुका है.
स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में भी बड़े सुधार हुए हैं. महारानी अस्पताल का जीर्णोद्धार और नई स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थापना ने स्वास्थ्य सेवा को गांव-गांव तक पहुंचाया है. सड़क और पुलों के निर्माण से दुर्गम इलाकों को मुख्यधारा से जोड़ा गया है, जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य और व्यापार के नए अवसर सामने आए हैं. नगरनार में बन रहा नया औद्योगिक क्षेत्र, आत्मसमर्पित नक्सलियों को रोजगार देने की योजना- ये सब बस्तर में स्थायी शांति का आधार बना रहे हैं.
पर्यटन और औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए बस्तर को केंद्र में रखकर बनाई गई नई उद्योग नीति ने स्थानीय लोगों को रोजगार और उद्यमिता के नए अवसर दिए हैं. होम स्टे सेवाओं को बढ़ावा देना और संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर धुड़मारास गांव की पहचान बनाना, बताता है कि बस्तर अब न केवल राष्ट्रीय, बल्कि वैश्विक मानचित्र पर भी उभर रहा है.
जनजातीय संस्कृति को सम्मान और संरक्षण देने के लिए भी ऐतिहासिक कदम उठाए गए हैं. धरुआ, गुनिया, सिरहा जैसे परंपरागत ज्ञान रखने वाले समुदायों को सम्मान निधि देना केवल उनकी जीवन शैली को बचाने का प्रयास नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक क्रांति है, जो बस्तर को उसकी जड़ों से जोड़ते हुए आगे ले जा रही है.
पूर्ववर्ती जैसे गांव, जो कभी हिंसा के पर्याय थे, अब शांति और एकता के प्रतीक बन रहे हैं. पहली बार जब वहां तिरंगा लहराया गया तो केवल एक झंडा नहीं फहरा, बल्कि बस्तर के सपनों ने आसमान छू लिया.
प्रशासनिक अधिकारियों का भी कहना है कि मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के नेतृत्व में न केवल नीतियों में संवेदनशीलता आई है, बल्कि जमीनी कार्यों की गति भी कई गुना बढ़ी है. एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “पहली बार ऐसा महसूस हो रहा है कि सरकार की प्राथमिकता कागजों से हटकर वास्तव में गांवों और लोगों तक पहुंचने की है.
यह बदलाव केवल आर्थिक या प्रशासनिक नहीं है. यह एक भावनात्मक जुड़ाव की कहानी है. एक ऐसी कहानी जिसमें विकास योजनाएं सिर्फ आंकड़े नहीं बनतीं, बल्कि जीवन का हिस्सा बनती हैं.
बस्तर के सैकड़ों गांव, जो कभी नक्सली गतिविधियों के कारण भय के साये में थे, अब नन्हें कदमों की चहलकदमी से गूंजने लगे हैं. पिछले 14 महीनों में 307 नक्सलियों का मारा जाना, 972 का आत्मसमर्पण और 1183 की गिरफ्तारी- ये आंकड़े बताने के लिए काफी हैं कि बस्तर अब बंदूक नहीं, भरोसे से चल रहा है. नक्सलवाद का अंत केवल एक सुरक्षा विजय नहीं, बल्कि दिलों की जीत है.
आज जब बस्तर के लोग मुस्कुराते हैं, जब उनके बच्चे अपने गांवों से बड़े सपने देखते हैं, जब जंगलों में फिर से जीवन की हलचल होती है तो समझना चाहिए कि यह किसी एक योजना का नहीं, बल्कि विश्वास और अपनेपन के नेतृत्व का परिणाम है. आदिवासी मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बस्तर एक नई कहानी लिख रहा है- एक ऐसी कहानी जिसमें गोली की आवाज नहीं, किताबों के पन्नों की खड़खड़ाहट है जिसमें दहशत नहीं, मुस्कुराहट है और जिसमें जंगलों की हरियाली के साथ दिलों में भी हरियाली लौट आई है. यह बस्तर का वरदान है- उस नेतृत्व के लिए जिसने पहली बार उन्हें अपने जैसा महसूस कराया.