दवा, ऑक्सीजन, बेड के लिए तड़पते लोगों को देखिए, दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता का यह बदनुमा चेहरा हमें बुरी तरह परेशान कर रहा है.
सरकारों ने लॉकडाउन लगाने और उठाने को कोविड संक्रमण घटने-बढऩे से जोड़ दिया जबकि प्रत्यक्ष रूप से लॉकडाउन लगने से कोविड संक्रमण थमने का कोई ठोस रिश्ता आज तक तय नहीं हो पाया.
बेरोजगारी राष्ट्रीय शर्म है लेकिन भारत में यह शर्म केवल बेरोजगारों को आती है, सरकारों को नहीं.
भारत में कानून इस तरह गढ़े जाते हैं कि जैसे बनाने वालों ने भविष्य देख रखा है. नीति बनाने वाले कभी यह मानते नहीं कि भविष्य अनिश्चित है.
जीएसटी में नुक्सान की भरपाई पर केंद्र के इनकार के बाद अगले साल राज्यों को 2.2 लाख करोड़ रु. अतिरिक्त कर्ज उठाने होंगे.
मंदी का दबाव है इसलिए बैंकों को सरकार के साथ और कंपनियों को भी सस्ता कर्ज देना है, नतीजतन बचत के ब्याज पर छुरी चल रही है.
भारत के जीडीपी में गिरावट की अनुपात में लोगों की खर्च योग्य आय में गिरावट कहीं ज्यादा रही है. अब इसके बाद कमाई खा जाने वाली महंगाई आ धमकी है.
मंदी से निकलने के जद्दोजहद के बीच जीडीपी को लेकर जब कई भ्रम टूट ही रहे हैं तो भारत में इसकी पैमाइश के तौर तरीकों पर भी नए सिरे से विचार करने की जरूरत है.
सरकारों की प्रत्यक्ष नीतियों से निकलने वाली महंगाई, जो सिद्धांतों का हिस्सा थीं, वह भारत में हकीकत बन गई है.
नवंबर 2018 में नीति आयोग ने न्यू इंडिया @75 नाम का दस्तावेज बनाया था, जिसकी भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखी थी.
गौर करिए कि इतने भारी संसाधन पचाने के बावजूद बजट हमारी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं लाता. अर्थव्यवस्था में कुल पूंजी निवेश की पांच फीसद जरूरत भी सरकार पूरी नहीं कर पाती.