रूस और यूक्रेन युद्ध को साढ़े तीन साल होने जा रहे हैं. डोनाल्ड ट्रंप ने वाइट हाउस में आते ही एलान किया कि वे सारे फसाद रुकवा देंगे. इधर रूस ने यूक्रेन से बात-भर करने के लिए कई शर्तें रख दी हैं, जिनमें यूक्रेनी सेना का अपने ही पांच राज्य खाली करना भी है. जंग से पहले इन राज्यों में एक करोड़ से ज्यादा यूक्रेनी आबादी रहती थी. दिलचस्प ये है कि शांति के इस खाके पर अमेरिका को ज्यादा एतराज नहीं.
शांति की जो कुछ गिनी-चुनी साफ-साफ पेशकशें हुई हैं, उनमें से एक ये है कि यूक्रेन कानूनी तौर पर क्रीमिया को रूस के हवाले कर दे. साथ ही पांच राज्यों से अपनी आर्मी हटा ले ताकि वो भी रूस के हिस्से आ जाएं. यूक्रेनी लीडर वोलोदिमीर जेलेंस्की ने खुद इस बात की पुष्टि की.
क्या यूक्रेन के लोग जगह छोड़ देंगे या बने रहेंगे
बहुत सारे यूक्रेनी लोगों के लिए इस शांति प्रस्ताव का मतलब है, अपने घर कभी वापस न जा पाना. जिन इलाकों पर अब रूस का कब्जा है, वो अगर रूस का मान लिया जाए, तो वहां के लोग या तो विस्थापित हो जाएंगे, या फिर भेदभाव और हिंसा के बीच रहने को मजूबर होंगे. अंदेशा ये भी है कि मॉस्को यहीं नहीं रुकेगा, वो पांच के बाद और पांच, और दस की तरह आगे बढ़ता रहेगा और पूरा का पूरा यूक्रेन गप कर जाएगा.
लाखों लोग हो चुके विस्थापित
फिलहाल ये साफ नहीं है कि जिन इलाकों पर रूस की सेना भारी पड़ी, वहां कितने यूक्रेनी नागरिक बाकी हैं. कई जगहों पर तो पूरे के पूरे शहर मलबे में बदल गए. ऐसे में यूक्रेनी आबादी देश के सुरक्षित शहरों में चली गई, या फिर पोलैंड से होते हुए दूसरे देशों की शरण में जा चुकी. खुद यूएन ये बात मानता है कि जंग की वजह से करीब 30 लाख यूक्रेनी अपने ही देश में दूसरे ठिकानों पर जा चुके, जबकि 60 लाख से ज्यादा विदेशों में शरण लिए हुए हैं.

किन प्रांतों से यूक्रेनी सेना को हटना पड़ सकता है
रूस जिन पांच जगहों से यूक्रेन की आर्मी को हटाने पर तुला है, वे हैं- डोनेट्स्क, लुहान्स्क, खेरसॉन, जापोरिझझिया और खारकीव.
क्या वहां रूस का कब्जा हो चुका है
डोनेट्स्क एरिया में रशियन बोलने वालों का प्रतिशत ज्यादा है जो खुद को रूस के करीब मानते हैं. आखिरी सेंसस के मुताबिक, डोनेट्स्क की लगभग 75 फीसदी जनसंख्या रूसी बोलती है. वे कल्चरली भी रूस से जुड़े हुए हैं. साल 2014 में रूस-यूक्रेन संघर्ष के पहले यहां के लोग रूस के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की वकालत करते रहे. हालांकि संघर्ष के बाद दोनों देशों की दूरियां बढ़ीं, इस दौरान इस पूरे इलाके के लोग रूस से और भी ज्यादा जुड़ने लगे.
साल 2014 में क्रीमिया के रूस में विलय के बाद यहां के लोग खुलकर मॉस्को के सपोर्ट में आने लगे. यूक्रेनी सेना और रूसी सपोर्टरों के बीच भारी जंग भी हो चुकी.
इन इलाकों में सेपरेटिस्ट संगठन
यहां कई अलगाववादी गुट हैं, जो रूस के पक्ष में आंदोलन चलाए रखते हैं. डोनेट्स्क, जिसमें पोक्रोवस्क शहर भी आता है, के अलावा एक और इलाका लुहान्स्क भी रूस का समर्थन करने वाले अलगाववादियों से भरा हुआ है. यहां तक कि इन इलाकों के सेपरेटिस्ट्स ने अपने-आप को यूक्रेन से अलग करने की भी घोषणा कर दी थी. यूक्रेन इन्हे अपना क्षेत्र मानता है, जबकि रूस इनके विद्रोह को हवा देता रहा. यहां तक कि मॉस्को ने इन प्रांतों को आजाद घोषित कर दिया, जो यूक्रेन से काटने की ही साजिश है.
जापोरिझझिया और खेरसॉन के कई हिस्सों पर साल 2022 में ही रूस ने कब्जा कर लिया था. हालांकि यूक्रेनी सेना ने खेरसॉन शहर जैसे कुछ हिस्से वापस ले लिए. अब मॉस्को वही हिस्से खाली कराना चाहता है. खारकीव की बात करें तो यहां स्ट्रगल चल रहा है और रूस का पूरा कब्जा नहीं हो सका.

अब बात आती है क्रीमिया की
पीस टॉक के लिए शर्तों में एक ये भी है कि क्रीमिया से यूक्रेन हमेशा के लिए दूरी बना ले. दरअसल साल 2014 में यूक्रेन में राजनीतिक उथल-पुथल के बीच रूस ने क्रीमिया में अपनी सेना भेज दी और वहां एक रेफरेंडम के बाद दावा किया कि क्रीमिया के लोग रूस में शामिल होना चाहते हैं. इसके बाद से रूस क्रीमिया को अपना हिस्सा मानने लगा. वहां रूसी कानून और रूसी प्रशासन है. लेकिन यूक्रेन इसे धोखाधड़ी मानता है और क्रीमिया पर अपनी दावेदारी बनाए हुए है.
शांति पर बातचीत के लिए इतनी कड़ी शर्तें क्यों
- रूस इन इलाकों पर पूरा कब्जा चाहता है ताकि वह वहां अपनी सरकार चला सके और यूक्रेनी प्रतिरोध को खत्म हो जाए.
- इन इलाकों पर कब्ज़ा करके रूस, यूक्रेन और नाटो के बीच एक बफर जोन बनाना चाहता है ताकि अचानक उसे कोई खतरा न आ जाए.
- रूस का दावा है कि इन इलाकों में लोग रूस में शामिल होना चाहते हैं. हालांकि इंटरनेशनल स्तर पर ये दावे खोखले माने जाते रहे.
शर्तों पर ट्रंप की सहमति क्यों दिख रही
ट्रंप ने चुनाव से पहले ही कहा था कि वे वाइट हाउस आने के 24 घंटों के भीतर लड़ाई रुकवा देंगे. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा. वे पुतिन की तारीफ करते हैं. जेलेंस्की पर गुस्सा करते हैं, लेकिन काम नहीं बन रहा. ऐसे में वे रूस की कंडीशन्स पर यूक्रेन की मंजूरी चाहते हैं. बात ये भी है कि अमेरिका और यूरोप यूक्रेन की मदद में अरबों डॉलर खर्च कर चुके. अब जंग जल्दी बंद हो, इसका दबाव बढ़ रहा है. कूटनीति ये भी मानती है कि रूस अगर थोड़ा पाकर ज्यादा तबाही से रोका जा सके, तो सौदा बुरा नहीं है.