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पाकिस्तान का न्यूक्लियर कमांड सेंटर क्यों बेहद खतरनाक माना जाता रहा, US ने कई बार चाहा बैकडोर कंट्रोल

ऑपरेशन सिंदूर के तहत भारतीय सेना ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों और फिर कई एयर बेस पर भी हमला किया. इनमें से कई इलाके परमाणु स्टोरेज से जुड़े हुए हैं. खासकर नूर खान एयरबेस पर मची तबाही के बाद चिंता गहरा गई कि पाकिस्तान में परमाणु हथियार कितने सुरक्षित हैं? तमाम न्यूक्लियर पावर देशों में पाकिस्तान सबसे ज्यादा जोखिम में माना जाता रहा.

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पाकिस्तान की परमाणु ताकत वाइट हाउस को भी परेशान करती रही. (Photo- Getty Images)
पाकिस्तान की परमाणु ताकत वाइट हाउस को भी परेशान करती रही. (Photo- Getty Images)

बंदर के हाथ में उस्तरा आना बेहद खतरनाक हो सकता है. यही डर पाकिस्तान के परमाणु संपन्न होने के बाद से दुनिया को सताता रहा. ताकत तो है, लेकिन क्या उसे संभालने या साधने की पावर भी उसके पास है? कोई भी फसाद हो, वो झट से न्यूक्लियर वेपन्स की धौंस जमाने लगता है. देश में राजनैतिक हालात भी खास अच्छे नहीं. ऐसे में अमेरिका अक्सर ही उसके हथियारों पर कथित कंट्रोल की योजना बनाता रहा. लेकिन क्या कोई भी पावर, किसी दूसरे देश के परमाणु हथियार ले सकती है, और अगर हां, तो पाकिस्तान के साथ ये अब तक क्यों नहीं हो सका?

कितने हथियार हैं पाकिस्तान के पास

दो साल पहले बुलेटिन ऑफ द एटॉमिक साइंटिस्ट्स में पाकिस्तान में जमा परमाणु वेपन्स पर डिटेल में रिपोर्ट छपी थी. अनुमान है कि उसके पास 170 वारहेड्स हैं, और उसका इरादा लगातार इसे बढ़ाने पर है. 

ये हथियार कहां हैं, इसकी जानकारी पब्लिक डोमेन में खुलकर उपलब्ध नहीं. इसका केवल मोटा-मोटा अंदाजा ही लगाया जा सकता है. अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स अलग दावे करती रहीं. लेकिन ये हर देश की हाईली क्लासिफाइड जानकारी है, जिसके बारे में देश के टॉप अधिकारी ही जानते हैं. 

क्यों पाकिस्तान को लेकर होती रही चिंता

इसका परमाणु कमांड सेंटर जोखिम में माना जाता रहा. इसके कई कारण हैं. वहां का राजनैतिक सिस्टम बेहद कमजोर हैं, जिसमें सेना का जोर चलता रहा. जो फोर्स चाहती है, राजनीति में लगभग वही होता रहा. यहां तक भी ठीक है लेकिन सेना का कंट्रोल भी आतंकियों के हाथ में रहा. पाकिस्तान में जैश, लश्कर समेत कई आतंकवादी संगठनों के ठिकाने हैं और यहां से टैरर मूवमेंट्स होती रहीं. इसमें यह डर हमेशा रहता है कि कहीं ये गुट किसी मिलीभगत से न्यूक्लियर सिस्टम तक पहुंच न बना लें. 

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pakistan nuclear power photo Getty Images

यहां पारदर्शिता की भी कमी रही

बाकी देशों की तुलना में पाकिस्तान अपने परमाणु सिस्टम की जानकारी बहुत छिपाकर रखता है. जबकि और देश यह बताते हैं कि उन्होंने इसे कैसे प्रोटेक्ट किया हुआ है, या उसका कमांड सिस्टम कितने लेयर का या कितनी सुरक्षा में है. दरअसल हर देश इसकी जानकारी देता है ताकि बाकी देश निश्चिंत रह सकें कि कोई भी एक या दो लोग मिलकर इतने बड़े हमले का फैसला नहीं ले सकते. वहीं पाकिस्तान के हाइड एंड सीक की वजह से यह भरोसा नहीं बन पाता कि उनका सिस्टम किस हद तक सुरक्षित है. 

अमेरिका को लंबे समय से चिंता रही कि इस्लामाबाद में अचानक कुछ बड़ा हो जाए, जैसे सिविल वॉर, तो न्यूक्लियर हथियार गायब हो सकते हैं. ये बहुत बड़ा खतरा है. इसे ही रोकने के लिए वो लंबे समय से बैकडोर कंट्रोल की प्लानिंग करता रहा. दरअसल परमाणु हथियार बनाने पर रोक तो है लेकिन जो बना चुके, उनके वेपन्स पर कोई भी दूसरा देश औपचारिक रूप से कब्जा नहीं कर सकता, जब कि वो सीधे देश पर ही कब्जा न जमा लें जो कि तकनीकी तौर पर मुमकिन नहीं. हालांकि बैकडोर कंट्रोल एक विकल्प हो सकता था, जिसकी कथित तौर पर यूएस ने कोशिश भी की. 

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एनबीसी सहित कई मीडिया रिपोर्ट्स इसकी बात करती हैं. यहां तक कि ट्विन टावर अटैक के बाद बड़े डिफेंस अधिकारियों ने भी ऐसा कहा था, जिसे मीडिया में ही खारिज भी कर दिया गया. 

बैकडोर कंट्रोल क्या होता है

एक ऐसा छिपा हुआ सिस्टम, जो अमेरिका को दूर बैठकर हथियारों को डीएक्टिवेट करने की क्षमता दे सके. जैसे कोई चिप या कोड जो न्यूक्लियर सिस्टम में फिट किया जाए. या फिर ऐसा सिस्टम जो अमेरिकी मर्जी से लॉन्च कमांड को फेल कर दे. 

कैसे काम कर सकता है ये सिस्टम

वॉशिंगटन ने कोशिश की कि किसी तरीके से पाकिस्तान के हथियारों के लॉन्च सिस्टम में कोई ऐसी चिप या कोड जोड़ दिए जाएं जिससे जरूरत पड़ने पर उसे दूर से बंद किया जा सके. इसे इलेक्ट्रॉनिक किल स्विच भी कहा जाता था. यहां तक कि उसने पाकिस्तान के इंटरनल सिस्टम में सेंध लगाने की भी कोशिश की. जैसे सेना या ISI में ऐसे लोगों से साठगांठ जो जरूरत पड़ने पर सिस्टम को डीएक्टिवेट कर सकें. 

pakistan terrorist groups photo AFP

प्लान कभी लागू नहीं हो सका क्योंकि पाकिस्तानी सेना ने इसकी कभी इजाजत नहीं दी. उन्होंने साफ कर दिया कि न्यूक्लियर सिस्टम पूरी तरह से उनका है, और इसमें किसी तरह का दखल वे नहीं मानेंगे. और अगर किसी ने ये चाहा तो उसे पाकिस्तान से पूरा युद्ध झेलना होगा. ये बात भी है कि न्यूक्लियर कमांड सिस्टम में किसी तीसरे देश के लिए बैकडोर बनाना बहुत मुश्किल और रिस्की होता. 

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दूसरे देशों के कमांड सेंटर कितने सेफ

अमेरिका में यह सिस्टम पर्मिसिव एक्शन लिंक्स से जुड़ा है जो उसे भारी सुरक्षित बनाता है. इसमें हथियार अगर गलत हाथों में पड़ भी जाए तो भी उसका इस्तेमाल नहीं हो सकता. न्यूक्लियर वेपन वहां तीन लेवल पर कंट्रोल होता है- राष्ट्रपति, डिफेंस सेक्रेटरी और मिलिट्री कमांड. इसमें राष्ट्रपति की मंजरी जरूरी है लेकिन वो अकेले फैसला नहीं कर सकते. 

रूस में चिगेट नाम का परमाणु ब्रीफकेस होता है, जो राष्ट्रपति के पास रहता है. इसके अलावा दो और सैन्य अधिकारियों के पास कोड होते हैं, और सभी की मंजूरी जरूरी है. इसे भी मल्टीलेयर्ड रखा गया है ताकि एक शख्स की मनमानी न हो. साथ ही इतने लोग भी शामिल नहीं किए गए कि जरूरत पड़ने पर सहमति ही न बने. मॉस्को के बाहर अंडरग्राउंड बंकरों से कमांड सिस्टम जुड़ा है. फ्रांस, ब्रिटेन में भी ये सिस्टम सिक्योर माना जाता रहा. 

अब बात करें भारत की, तो हमारा सिस्टम काफी सेफ कहलाता है. ये न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी के तहत काम करता है. पीएम इसके प्रमुख हैं, और तीनों सेनाओं के प्रमुख इसकी सलाह देते हैं. हमने नो फर्स्ट यूज पॉलिसी भी बना रखी है, यानी किसी भी हाल में हम पहला वार नहीं करेंगे. यहां तक कि चीन का सिस्टम भी सेंट्रलाइज्ड और बहुत सीक्रेट है. वहां भी राष्ट्रपति और सेंट्रल मिलिट्री कमीशन की मंजूरी जरूरी होती है. 

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