भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष अब सीजफायर में बदल चुका है. इस बीच लगातार ऐसी तस्वीरें और बातें वायरल हो रही हैं, जिनका सच से कोई ताल्लुक नहीं, फिर चाहे वो भारतीय महिला पायलेट के बंधक होने की बात हो, या फिर भारत में कथित बर्बादी की. दिलचस्प ये है कि पाकिस्तान समेत इसे कई बड़े देशों का मीडिया भी दिखा रहा है. ये कोशिश नैरेटिव वॉर है, यानी कहानी के जरिए अपना पक्ष रखने की कोशिश.
जो देश अपनी कहानी जितने असरदार ढंग से रखेगा, उसकी इमेज उतनी चमकेगी. भले ही डिप्लोमेटिक हलका सच जानता हो, लेकिन जनता के बीच ये भारी मायने रखता रहा, जिसका असर भले ही धीमा लेकिन गहरा होता है.
क्या है नैरेटिव बैटल
नैरेटिव वॉर का मतलब है विचारधारा या कहानी पर कंट्रोल की लड़ाई. इसमें युद्ध या संघर्ष केवल हथियारों से नहीं, बल्कि कहानी कहने, छवि गढ़ने और लोगों की सोच पर असर डालने से भी लड़ा जाता है. हारने वाला पक्ष भी सही दिखाया जा सकता है अगर वह नैरेटिव पर काबू पा ले. दरअसल जंग अक्सर याददाश्त के आसपास घूमती है कि कौन हीरो है, या कौन विलेन. इसमें हकीकत से कम ही वास्ता रहता है, खासकर आम लोगों का या विदेशी थिंक टैंक और मीडिया का. उन्हें ही साधने का हुनर है नैरेटिव तैयार करना.
क्यों रचा जाता है नैरेटिव
इसका मकसद सीधा है- दुनिया की नजरों में अपनी वैधता और नैतिकता साबित करना. अब जैसे पाकिस्तान को ही लें तो वो खुद आतंकवाद से प्रभावित होने का रोना रोता रहा, जबकि सच तो ये है कि देश आतंक की फैक्ट्री रहा. वहां से दुनिया के कई बड़े आतंकी ऑपरेशन या तो ऑपरेट हुए, या फिर ऑपरेशन के बाद टैररिस्ट्स को पनाह मिली. अप्रैल में भारत पर हुए पहलगाम हमले के तार भी पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं. इसके बाद जवाबी कार्रवाई के तौर पर भारत ने जब उसपर स्ट्राइक किया, वो दुनिया के सामने खुद को पीड़ित बताने लगा.
बड़ी संस्थाओं की मदद भी वो कुछ हद तक यही दुखियारी इमेज दिखाकर हासिल करता रहा. नैरेटिव गढ़ने में वो हाल में और आगे बढ़ा और भारत के साथ सैन्य तनाव में हारने के बाद भी उसने मनगढ़ंत कहानियां बना दीं, और खुद को जीता हुआ बताने लगा.
नैरटिव रचने का क्या फायदा
जो कोई भी देश या नेता अपनी कहानी ज़्यादा असरदार ढंग से पेश कर लेता है, भले ही ज़मीन पर वो हार रहा हो, लोगों की नजरों में जीत सकता है. मान लीजिए, कोई देश युद्ध हार गया या उसके जंग का हिस्सा बनने पर इंटरनेशनल थू-थू हो रही हो, लेकिन अगर वो साबित कर दे कि असल में उसपर जुल्म हुआ, या उसकी कार्रवाई मजबूरी में थी, तो भले ही वह सैन्य रूप से हार गया हो, मगर लोगों की नजरों में उसकी छवि बच सकती है. यही नैरेटिव वॉर की ताकत है. आबादी के अलावा उसे इंटरनेशनल सपोर्ट और मीडिया का भी साथ मिल सकता है.
वियतनाम की जंग इसकी बड़ी मिसाल है. अमेरिका ने टेक्नोलॉजी, सेना और रिसोर्स के मामले में वियतनाम को रौंद दिया, लेकिन अमेरिकी मीडिया और युवाओं ने जंग के खिलाफ एक नैरेटिव खड़ा किया कि अमेरिका एक छोटे-गरीब देश पर हिंसा कर रहा है. ये नैरेटिव इतना मजबूत हो गया कि अमेरिका को पीछे हटना पड़ा. इस तरह तकनीकी रूप से हारे हुए देश ने नैरेटिव के जरिए जीत हासिल कर ली.
नैरेटिव वॉर को चलाता कौन है
ये मल्टीलेयर्ड खेल है. इसमें सरकारें, इंटेलिजेंस, थिंक टैंक, सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स और यहां तक कि आम लोग भी शामिल हैं. एक सोच वाले तमाम लोग कहे-अनकहे ढंग से साथ आते हैं और अपने-अपने तरीके से युद्ध में कूद पड़ते हैं. वे एक साथ मिलकर एक आइडियोलॉजी या एक बात को आगे बढ़ाते और इतना फैलाते हैं कि बाकी लोग भी उसपर यकीन करने लगे.
कौन-कौन करता है किस तरह के काम
- सबसे पहले आती है सरकार. इसके पास सारे आधिकारिक विभाग हैं, जो देश की औपचारिक छवि तय करती हैं. ये मंत्रालय अपनी बात को दुनिया के सामने रखने के लिए सारे तामझाम का इस्तेमाल करते हैं. जैसे दो देश आपस में लड़ें तो कहते हैं कि हम आम लोगों नहीं, एक खास सोच के खिलाफ हैं, या आतंकवाद के खिलाफ हैं.
- इसके बाद बारी आती है इंटेलिजेंस की. ये एजेंसियां अपनी सरकारों के लिए ऐसा डेटा, ऐसी स्टोरी, ऐसी तस्वीरें तैयार करती हैं जो मीडिया के ज़रिए लोगों तक पहुंचती हैं.
- अब आते हैं थिंक टैंक. ये सरकार में न होकर भी सरकार पर असर डालते हैं. यानी दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं. आमतौर पर रिचर्स, रिपोर्ट और भाषणों के जरिए वे एक खास घटना में से सही-गलत को फिल्टर करते और लोगों तक ले जाते हैं.
- इसके बाद है मेनस्ट्रीम मीडिया. ये नैरेटिव सेट करने में बड़ा रोल निभाता है. वो खबरों के बीच ओपिनियन का तड़का लगाकर दिखाता है कि कौन हीरो है और कौन विलेन. इसकी पहुंच चूंकि काफी दूर तक है, लिहाजा असर भी गहरा होता है.
- सोशल मीडिया काफी तेजी से नैरेटिव वॉर में का हिस्सा बन गया. यहां पर बड़े नामों से लेकर आम लोग एक खास शख्स, सोच, देश या फसाद पर बात करते हैं. जैसे दो देशों की जंग को ही लें तो ये एक देश को पीड़ित और बहादुर बता सकते हैं, जबकि दूसरे को हिंसा करने वाला.
- आपसी बातचीत में भी नैरेटिव सेट किया जा सकता है. जैसे घरों में चलने वाली, या पास-पड़ोस की बातचीत में डेटा भले कम हो, लेकिन इमोशन भरपूर होता है जो एक पक्ष को सही साबित कर सकता है.