एक ओर रूस-यूक्रेन में जंग चल रही है तो दूसरी ओर आर्मेनिया और अजरबैजान में एक बार फिर से संघर्ष शुरू हो गया है. आर्मेनिया ने अजरबैजान पर हमला करने का आरोप लगाया है. वहीं, अजरबैजान ने इसे आर्मेनिया के 'उकसावे' के बदले की कार्रवाई बताया है. आर्मेनिया के प्रधानमंत्री निकोल पशिनियन ने इन आरोपों को खारिज किया है.
दोनों देशों में फिलहाल संघर्ष विराम पर सहमति बन गई है. लेकिन दो दिन में ही दोनों देशों के कम से कम 155 सैनिक मारे गए हैं. दावा है कि अजरबैजान ने आर्मेनिया में नागरिकों की बस्ती पर भी हमला किया था. हालांकि, अभी तक आम नागरिकों की मौत का आंकड़ा नहीं आया है.
अजरबैजान और आर्मेनिया में 27 सितंबर 2020 को भी युद्ध छिड़ गया था. बाद में संघर्ष विराम के बाद युद्ध रुक तो गया, लेकिन दो साल में दोनों देशों के बीच सीमा पर झड़पें होती रहीं हैं. दोनों देशों के बीच नागोर्नो-काराबाख इलाके को लेकर विवाद है.
31 अगस्त को आर्मेनिया के प्रधानमंत्री निकोल पशिनियन और अजरबैजान के राष्ट्रपति इल्हम अलीयेव के बीच ब्रसेल्स में मुलाकात भी हुई थी. इसमें शांति वार्ता पर चर्चा होनी थी.
लेकिन विवाद क्या है?
अजरबैजान और आर्मेनिया, दोनों ही सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे. 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद जो 15 नए देश बने, उनमें अजरबैजान और आर्मेनिया भी थे. हालांकि, दोनों के बीच 1980 के दशक से ही विवाद शुरू हो गया था.
दोनों के बीच नागोर्नो-काराबाख इलाके को लेकर विवाद है. इलाके पर कब्जे को लेकर दोनों के बीच चार दशकों से विवाद है. सोवियत संघ टूटने के बाद नागोर्नो-काराबाख अजरबैजान के पास चला गया.
अजरबैजान मुस्लिम देश है, जबकि आर्मेनिया ईसाई बहुल राष्ट्र है. नागोर्नो-काराबाख की बहुल आबादी भी ईसाई ही है. इसके बावजूद सोवियत संघ जब टूटा तो इसे अजरबैजान को दे दिया गया. यहां रहने वाले लोगों ने भी इलाके को आर्मेनिया को सौंपने के लिए वोट किया था.
1980 के दशक में पहली बार विवाद तब शुरू हुआ, जब नागोर्नो-काराबाख की संसद ने आधिकारिक तौर पर आर्मेनिया का हिस्सा बनने के लिए वोट किया. बाद में अजरबैजान ने यहां अलगाववादी आंदोलनों को दबाने की कोशिश भी की.
1994 में हुआ था भयंकर युद्ध
सोवियत संघ टूटने के बाद 1994 में दोनों देशों के बीच भयंकर युद्ध भी हुआ था. इस कारण लाखों लोगों को पलायन करना पड़ा था और सैकड़ों-हजारों लोगों की मौत भी हुई थी. बाद में दोनों देशों के बीच युद्धविराम तो हो गया था, लेकिन उसके बाद भी दोनों लड़ते रहे.
युद्धविराम से पहले नागोर्नो-काराबाख पर आर्मेनिया की सेना का कब्जा हो गया था. युद्धविराम के बाद ये इलाका अजरबैजान का ही रहा, लेकिन यहां अलगाववादियों की हुकूमत चलने लगी.
दो साल पहले सितंबर 2020 में भी दोनों देशों के बीच युद्ध हुआ था. इसमें 50 हजार से ज्यादा लोगों के मारे जाने का दावा किया जाता है. फिलहाल इस इलाके में शांति के लिए शांति वार्ता जारी है, लेकिन अब तक बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है. दोनों देशों के बीच अक्सर सैन्य झड़पें होती रहतीं हैं.
क्यों खतरनाक है दोनों के बीच जंग?
दोनों देशों के बीच जंग इसलिए खतरनाक है, क्योंकि इससे एक बड़ा युद्ध होने का खतरा है. इसकी वजह ये है कि अजरबैजान को तुर्की को समर्थन है. तुर्की NATO का सदस्य देश है. जबकि, आर्मेनिया को रूस का समर्थन है.
अजरबैजान की बड़ी आबादी तुर्क मूल के लोगों की है. इसलिए तुर्की इसका साथ देता है. तुर्की ने तो एक बार दोनों देशों के रिश्तों को 'दो देश एक राष्ट्र' तक कह दिया था. वहीं, आर्मेनिया के साथ तुर्की के कोई आधिकारिक संबंध नहीं है. 1993 में जब दोनों देशों के बीच सीमा विवाद बढ़ा तो अजरबैजान का साथ देते हुए तुर्की ने आर्मेनिया से सटी अपनी सीमा बंद कर दी थी.
आर्मेनिया और रूस में अच्छे रिश्ते हैं. आर्मेनिया में रूस का सैन्य ठिकाना भी है. तुर्की कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीट ऑर्गनाइजेशन (CSTO) का सदस्य भी है. NATO की तरह ही CSTO भी सैन्य गुट है. इसमें आर्मेनिया के अलावा रूस, बेलारूस, ताजिकिस्तान, किर्गीस्तान और कजाखिस्तान शामिल हैं.
मौजूदा तनाव के बीच भी आर्मेनिया ने रूस और CSTO से मदद मांगी है. आर्मेनिया को उम्मीद है कि अजरबैजान के हमले का जवाब देने के लिए रूस और CSTO उसकी मदद करेंगे. हालांकि, रूस अभी नरम है.
न्यूज एजेंसी के मुताबिक, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन उज्बेकिस्तान के समरकंद में SCO समिट में अजरबैजान के राष्ट्रपति इल्हम अलीयेव से मुलाकात कर सकते हैं. देश की नाजुक स्थिति के कारण आर्मेनिया के प्रधानमंत्री पशिनियन इस समिट में हिस्सा नहीं लेंगे.
इनपुटः एनी एवेतिस्यान, आर्मेनिया की पत्रकार