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ऋतुपर्णो घोष: एक नायाब फिल्‍मकार...

इस अहद के नायाब फ़िल्मकार ऋतुपर्णो घोष और जदीद शायर डॉ. बशीर बद्र आपस में कभी नहीं मिले थे. बशीर साहब ने शायद ही ऋतुपर्णो की कोई फ़िल्म भी देखी हो. लेकिन उनके इस शेर की अगर शक्ल बनाने बैठें तो अनायास ही ऋतुपर्णो का स्केच बन आएगा.

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चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं
ग़ज़ल के शेर कहां रोज़-रोज़ होते हैं

इस अहद के नायाब फ़िल्मकार ऋतुपर्णो घोष और जदीद शायर डॉ. बशीर बद्र आपस में कभी नहीं मिले थे. बशीर साहब ने शायद ही ऋतुपर्णो की कोई फ़िल्म भी देखी हो. लेकिन उनके इस शेर की अगर शक्ल बनाने बैठें तो अनायास ही ऋतुपर्णो का स्केच बन आएगा. वो चेहरा और वो शख़्तियत उभर आएगी जो अब ख़लाओं में खो गई है.

कोलकाता की सुबह आज उस वक़्त भीग गई जब उसकी ओट से सूरज की किरणों के साथ ये ख़बर भी फ़ज़ाओं में फैलने लगी कि ऋतुपर्णो घोष नहीं रहे. गुरुवार 30 मई की अल-सुबह कोई साढ़े तीन बजे ऋतुपर्णो घोष ने आख़िरी सांस ली. दिल की गहराइयों से सेल्यूलाइड पर ज़िंदगी उतारने वाला ये दिग्गज फ़िल्मकार दिल के हाथों ही मात खा गया. दिल का दौरा पड़ा और 49 साल के ऋतुपर्णो घोष दिल में नए सिनेमा के न जाने कितने ख़्वाब दबाये हमसे दूर चले गए. एक अर्से से वे पैंक्रियाटाइटिस से पीड़ित थे.

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वे बांग्ला में सोचते थे और ठेठ बंगाली थे. बंगाल के सदियों पुराने संस्कार, उसके जीवन दर्शन के आसपास ही ज़्यादातर फ़िल्मों का तानाबाना बुनते थे. लेकिन सिनेमा का ग़ैरबंगाली दर्शक भी उनकी कला का कम क़ायल नहीं था. ऐश्वर्या के सौंदर्य और उसके कलाबोध को पढ़ते हुए उन्होंने हिंदी फ़िल्मों की इस ख़ूबसूरत अभिनेत्री के साथ 2003 में फ़िल्म 'चोखेर बाली' बनाई, जो हाथों-हाथ नायाब फ़िल्मों की फ़हरिस्त में शामिल करली गई.

2007 में फिर एक बार ऐश्वर्या के साथ अपनी जुगलबंदी दोहराते हुए उन्होंने फ़िल्म 'रेनकोट' निर्देशित की जिसमें कमर्शियल हिंदी फ़िल्मों के सुपरस्टार अजय देवगन को भी ऋतुदा ने अपने साथ काम करने का मौक़ा दिया. 2007 में ही सिनेमा के दो दिग्गज एक साथ आए. अमिताभ के साथ ऋतुपर्णो घोष ने 'द लास्ट लियर' बनाई. ये तमाम फ़िल्में ख़ासी चर्चित रहीं. अवॉर्ड्स से नवाज़ी गईं. बंगाली फिल्म 'आबोहोमान' के लिए वे बेस्ट डायरेक्टर के नेशनल अवॉर्ड से नवाज़े गए. यूं ऋतुपर्णो घोष को बारह बार नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड्स से नवाजा गया जो अपने आपमें एक इतिहास बना. जैसे अपना एक अलग इतिहास बना गए हैं दादा ऋतुपर्णो घोष.

कोलकाता में जन्मे, पले-बढ़े ऋतुपर्णो को फिल्म निर्माण पिता से विरासत में मिला जो डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाया करते थे. घोष ने अपने करियर की शुरुआत बाल-फ़िल्मों के निर्माण से की. 1994 में ही बाल फिल्म 'हिरेर आंग्टी' के निर्देशन से उन्हें शोहरत मिलने लगी थी. इसके बाद 'उनिशे एप्रिल' के लिए उन्हें 1995 में नेशनल अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसके अलावा 'दहन', 'असुख', 'बेरीवाली', 'अंतरमहल' और 'नौकाडूबी' जैसी बेहतरीन फ़िल्मों का निर्देशन भी उन्हीं के खाते में गया. बंगाली फ़‍िल्म 'चित्रांगदा' ऋतुपर्णो घोष की आखिरी फ़िल्म थी. इसके लिए भी वे नेशनल अवॉर्ड से नवाज़े गए. इन दिनों वे रवींद्रनाथ टैगोर पर एक डॉक्युमेंट्री बना रहे थे.

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