scorecardresearch
 

बड़े बजट की फ्लॉप्स से नहीं टेंशन, ऑस्कर्स में गई फिल्म से प्रॉफिट की आस? करण जौहर की चॉइस में है ये गड़बड़...

करण जौहर की फिल्म 'होमबाउंड' इस साल भारत की तरफ से ऑस्कर्स में भेजी गई है. मगर करण का कहना है कि वो शायद ऐसी फिल्म दोबारा ना बनाएं क्योंकि इसमें प्रॉफिट नहीं है. उनका ये बयान वही चीज है जिसकी शिकायत फिल्मलवर्स को बॉलीवुड से रहती है. कैसे? चलिए बताते हैं...

Advertisement
X
करण जौहर के बयान पर क्यों छिड़ा विवाद? (Photo: Instagram/karanjohar)
करण जौहर के बयान पर क्यों छिड़ा विवाद? (Photo: Instagram/karanjohar)

कहा जाता है कि कुछ रिश्ते धरती पर नहीं बनते, ऊपर से बने-बनाए आते हैं. लगता है करण जौहर और विवादों का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है! बॉलीवुड के टॉप फिल्ममेकर्स में से एक करण, एक बार फिर विवादों में हैं. विवाद की वजह है उनका एक बयान जो उन्होंने हाल ही में एक पॉडकास्ट पर दिया है. 

करण के धर्मा प्रोडक्शन में बनी फिल्म ‘होमबाउंड’ को इस साल ऑस्कर्स में भारत की ऑफिशियल एंट्री चुना गया है. इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में खूब तारीफें बटोर चुकी ‘होमबाउंड’ को क्रिटिक्स ने ऑस्कर्स के लिए सॉलिड चॉइस बताया है. लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म के बेहद कमजोर बिजनेस की तरफ इशारा करते हुए करण ने कहा है कि वो शायद भविष्य में ऐसी फिल्में ना बनाएं. 

उनके इस बयान ने फिल्मों की आर्ट और उनके बिजनेस पर एक नई बहस छेड़ दी है. और खुद करण का ही रिकॉर्ड इस बहस के दूसरी तरफ खड़ा है. चलिए बताते हैं कैसे…

करण ने ऐसा क्या कह दिया?
करीब साल भर पहले करण ने अपने प्रोडक्शन बिजनेस में 50% की हिस्सेदारी के लिए, आदर पूनावाला से 1000 करोड़ रुपये की डील की है. क्या इस डील से करण पर ये जिम्मेदारी बढ़ गई है कि वो बिजनेस में फायदा कमाने वाली ही फिल्में बनाएं? ट्रेड एनालिस्ट कोमल नाहटा के पॉडकास्ट ‘गेम चेंजर्स’ में करण इसी सवाल का जवाब दे रहे थे. 

Advertisement

उन्होंने ‘लम्हे’ (1991), ‘अग्निपथ’ (1990) और ‘परिंदा’ (1989) जैसी फिल्मों को याद किया जो आज आइकॉनिक हैं, मगर जब रिलीज हुई थीं तो फ्लॉप थीं. इस उदाहरण के साथ करण ने कहा कि एक ‘क्रिएटिव व्यक्ति’ होने की वजह से उनका दिल ऐसी और फिल्में बनाने का करता है जो सिनेमा में यादगार हों, भले उनका बिजनेस कुछ भी ना हो. 

मगर अब अपने प्रोडक्शन हाउस की नई डील के बाद उनपर ‘आर्ट्स और कॉमर्स’ को बैलेंस करने की जिम्मेदारी बढ़ गई है. ऐसे में अब वो शायद ‘होमबाउंड’ जैसी फिल्में ना बनाएं, जिसे क्रिटिक्स से बहुत तारीफ मिल रही है. इसी बयान के चलते फिल्म लवर्स अब करण से खफा हो गए हैं. और वजह ये है कि करण के इस बयान में कई विडंबनाएं हैं.

सिनेमा की ‘आर्ट’ पर कैसा रहा है करण का फोकस?
करण ने धर्मा प्रोडक्शन की कमान अपने पिता के निधन के बाद संभाली है. तब से ही जोड़ें तो धर्मा की इमेज एक टॉप कमर्शियल सिनेमा बनाने वाले प्रोडक्शन हाउस की है. 'कभी खुशी कभी गम' और 'कल हो ना हो' से लेकर 'दोस्ताना', 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' और 'केसरी' जैसी फिल्मों तक... करण के प्रोडक्शन हाउस ने कहानियां तो खूब अलग-अलग ट्राई की हैं. मगर उनकी ज्यादातर फिल्में कमर्शियल फ्लेवर वाली ही रही हैं. 

Advertisement

2013 में आई 'द लंचबॉक्स' शायद वो पहली फिल्म कही जा सकती है जो कमर्शियल स्पेस से हटकर, आर्ट की तरफ ज्यादा फोकस्ड थी. पिछले कुछ सालों में 'होमबाउंड' के अलावा धर्मा की जो फिल्म उनकी फिल्मोग्राफी में बहुत अलग लगती है वो हाल ही में आई 'धड़क 2' है. आलिया भट्ट की 'जिगरा' और लक्ष्य स्टारर 'किल' भी इस प्रोडक्शन हाउस के टेस्ट से अलग स्टाइल की फिल्में थीं. मगर थीं ये भी पूरी तरह कमर्शियल ही. 

ऐसे में करण का ये कहना विडंबना ही है कि अब वो 'होमबाउंड' जैसी फिल्में शायद ही बनाएं. क्योंकि इस टाइप के सिनेमा को लाने में उनका पिछला योगदान बहुत बड़ा नहीं रहा है. इसलिए करण ने 'होमबाउंड' के कमजोर बिजनेस को जिस तरह अलग से हाईलाइट किया, वो ऐसी फिल्मों से दूरी बनाने के लिए बहुत मजबूत उदाहरण नहीं है. क्योंकि इससे पहले भी धर्मा के कई मेनस्ट्रीम कमर्शियल प्रोजेक्ट बिजनेस के पैमाने पर बहुत खरे नहीं उतरे हैं. 

'होमबाउंड' के सामने थी करण की अपनी ही फिल्म 
ईशान खट्टर और विशाल जेठवा स्टारर 'होमबाउंड' को लोकप्रिय कमर्शियल सिनेमा में ना गिनना एक जायज बात है, इसलिए इससे बहुत बड़े बिजनेस की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. मगर इसे जिस तरह रिलीज किया गया, वहां एक गौर करने वाली बात है. ऑस्कर्स में भारत की ऑफिशियल एंट्री बनी इस फिल्म के लिए कोई बहुत बड़ा प्रमोशन कैम्पेन नहीं चला था. यानी जनता में इसे लेकर अवेयरनेस फैलाने की बहुत बड़ी कोशिश नहीं नजर आती. 

Advertisement

दूसरा बड़ा फैक्टर इस फिल्म को मिली स्क्रीन्स और शोज हैं. बॉलीवुड हंगामा की एक रिपोर्ट बताती है कि शुरुआत में ये फिल्म 200-250 स्क्रीन्स पर ही रिलीज हुई थी. और स्क्रीन्स के हिसाब से इसे असल में ठीकठाक शुरुआत भी मिली. जनता के वर्ड ऑफ माउथ और दमदार रिव्यूज ने ही इसका माहौल बनाया. इसका सबूत ये है कि रिलीज के तीसरे हफ्ते में, 'कांतारा चैप्टर 1' जैसी बड़ी फिल्म के होते हुए भी इसकी स्क्रीन्स और शोज बढ़ाए गए. मगर करण के प्रोडक्शन हाउस की तरफ से एक बड़ी कमी फिल्म लवर्स खूब हाईलाइट कर रहे हैं. 

धर्मा प्रोडक्शन की 'होमबाउंड' 26 सितंबर को थिएटर्स में रिलीज हुई थी. इसके अगले ही हफ्ते धर्मा की ही कमर्शियल मसाला एंटरटेनर 'सनी संस्कारी की तुलसी कुमारी' भी थिएटर्स में पहुंच गई. क्या इससे थिएटर्स के सामने एक ही प्रोडक्शन हाउस की दो फिल्मों में से एक को चुनने का ऑप्शन नहीं खड़ा हुआ? वो भी तब, जब 'कांतारा चैप्टर 1' जैसी बड़ी फिल्म को ज्यादा स्क्रीन्स और लाइमलाइट मिलना तय था. क्या इससे 'होमबाउंड' का कमर्शियल फायदा कमाने का चांस और कम नहीं हुआ?! 

कमर्शियल जॉनर में भी करण के हिस्से आईं बड़ी फ्लॉप फिल्में
'होमबाउंड' के सामने ही रिलीज हुई करण की दूसरी फिल्म 'सनी संस्कारी की तुलसी कुमारी' कमर्शियल एंटरटेनर है. मगर 10 दिन बाद इस फिल्म का बिजनेस भी कुछ बहुत खास नहीं है. बल्कि बिजनेस के विशुद्ध फिल्मी गणित पर अभी भी ये फिल्म एवरेज कलेक्शन के लिए स्ट्रगल कर रही है, हिट कहलाना तो अलग बात है. 

Advertisement

सॉलिड रिव्यूज के बावजूद करण की 'धड़क 2' भी फ्लॉप ही साबित हुई और इस फिल्म के प्रमोशन में भी प्रोडक्शन हाउस की तरह से एक सुस्ती नजर आई थी. जबकि इसी प्रोडक्शन हाउस ने 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2', 'लाइगर' और 'योद्धा' जैसी फिल्मों को जमकर प्रमोट किया था, जो आखिरकार बड़ी फ्लॉप साबित हुईं.  

ऑब्जर्वेशन के आधार पर ये नजर आता है कि धर्मा प्रोडक्शन खुद अपनी उन फिल्मों को प्रमोट करने में थोड़ा सुस्त नजर आता है जो कमर्शियल होने के बावजूद, रेगुलर बॉलीवुडिया फॉर्मूले से अलग कहानी लेकर आती हैं. इसकी तुलना में अगर साउथ को देखें तो वहां मेकर्स, सामाजिक मुद्दों पर बनी कमर्शियल फिल्मों को जनता तक पहुंचाने में जी-जान लगा देते हैं. साउथ की खूब प्रशंसा करने वाले करण को शायद वहां से ये एक सबक लेना चाहिए था, बजाय इसके कि वो 'होमबाउंड' जैसी फिल्म के बिजनेस को दोष देते. 

सिनेमा के कमर्शियल या आर्ट्स पहलू में से किसे चुनकर आगे बढ़ना है ये फैसला लेने के लिए कोई भी फिल्ममेकर पूरी तरह स्वतंत्र है और इसका सम्मान भी होना ही चाहिए. मगर कई कमर्शियल प्रोजेक्ट्स की नाकामी के बावजूद, एक अकेली फिल्म को सिंगल-आउट करना और उसके बिजनेस को दोष देते हुए वैसी फिल्में ना बनाने का फैसला करना बिल्कुल वही समस्या है, जिसकी शिकायत फिल्म लवर्स को बॉलीवुड से रहती है. 

Advertisement

ये माइंडसेट उन फिल्ममेकर्स पर भी एक व्यंग्य जैसा लगता है जो तमाम नियम-कायदे तोड़कर, फंड्स के लिए स्ट्रगल करते हुए भी हर बार ऐसी फिल्में लेकर आते हैं जो भारतीय सिनेमा को और विस्तार देती हैं. ऐसी बातों से इस धारणा को भी बल मिलता है कि भारतीय सिनेमा का ईकोसिस्टम कमर्शियल मसाला फिल्मों के अलावा दूसरी फिल्मों के लिए बना ही नहीं है. जबकि खुद करण ही 'द लंचबॉक्स' जैसी आर्ट-स्टाइल फिल्म से अच्छा-खासा मुनाफा कमा चुके हैं.

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement