बिहार में बीजेपी और जेडीयू भले ही मिलकर सरकार चला रही हों, लेकिन दोनों दलों के बीच शह-मात का खेल चल रहा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत आधार पर जनगणना और पेगासस जासूसी मामले की जांच कराने की मांग उठाई है. नीतीश और उनकी पार्टी जेडीयू एक के बाद एक कई ऐसे मुद्दों को हवा दे रहे है, जो बीजेपी और मोदी सरकार की असहज करते हैं.
सीएम नीतीश कुमार की दोनों ही डिमांड से बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती है, क्योंकि वह एनडीए के सहयोगी दल के पहले ऐसे नेता हैं जिन्होंने पेगासस मामले में जांच और जातिगत जनगणना कराने की मांग की है. वहीं, जेडीयू संसदीय दल के नेता उपेंद्र कुशवाहा ने रविवार को कहा है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी पीएम मैटेरियल हैं. इतना ही नहीं जातिगत जनगणना की मांग पर नीतीश और तेजस्वी यादव एक मत हैं और दोनों ही नेताओं के बीच हाल ही में मुलाकात हुई है.
बीजेपी नेता संजय पासवान ने जातिगत जनगणना की मांग को सिरे से खारिज कर दिया है तो बिहार के मंत्री और बीजेपी नेता सम्राट चौधरी ने कहा है कि इस गठबंधन सरकार में काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है. मध्य प्रदेश और यूपी की तरह हम बिहार में काम नहीं कर सकते हैं. यहां 4 विचारधाराएं वाली पार्टी एक साथ है, जिसे हमें बहुत कुछ सहना पड़ता है. सम्राट चौधरी के बयान से साफ जाहिर है कि बीजेपी को बिहार में अपना सीएम न होना खल रहा दूसरी तरफ बीजेपी शासित राज्यों की तरह यहां अपने सियासी एजेंडो को जमीन पर नहीं उतार पाने का मलाल है.
नीतीश कुमार के बदले सुर के लेकर बीजेपी भले ही आंख दिखा रही है, लेकिन फिलहाल ये तनातनी महज तनातनी तक ही सीमित रहने वाली है और इसे किसी राजनीतिक बदलाव की वजह बनते नहीं देखा जा रहा. इसके कारण भी हैं और वो बिहार में नहीं बल्कि यूपी की राजनीति से जुड़े हैं, जहां सात महीने के बाद विधानसभा चुनाव हैं. यूपी में नीतीश के कुर्मी समुदाय की काफी आबादी है, जो बीजेपी का परंपरागत वोटर माना जाता है.
नीतीश बीजेपी की मजबूरी बन गए हैं
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं कि नीतीश कुमार बीजेपी के लिए मजबूरी बन गए हैं, जिसके चलते न तो उनसे दूर हो सकती है और न ही उनके बिना बिहार की सत्ता में रह सकती है. यही वजह है कि जेडीयू की सीटें बीजेपी से कम होने के बाद भी नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री है. ऐसे में बीजेपी नीतीश को नाराज करती है तो उसका पहला असर बिहार में दिखेगा और दूसरा सियासी प्रभाव यूपी के चुनाव में भी देखने को मिल सकता है.
अरविंद मोहन कहते हैं कि बिहार में नीतीश कुमार का सारा दारोमदार कुर्मी-कोइरी वोटरों पर हैं और यूपी की सियासत में बीजेपी का सियासी आधार इन्हीं दोनों प्रमुख वोटरों पर टिका हुआ है. नीतीश जिस तरह से उपेंद्र कुशवाहा को लाए हैं और ललन सिंह को जेडीयू की कमान सौंपी है, उससे जाहिर होता है कि वो ओबीसी के साथ-साथ सवर्णों को भी अपने साथ रखना चाहते हैं. नीतीश जिस तरह से बयान दे रहे हैं, उसके जरिए विपक्ष पर सिर्फ डोरे डाल रहे हैं और उनकी थाह लेना चाहते हैं. इस बात को बीजेपी भी बेहतर तरीके से समझ रही है, इसीलिए वो खामोश हैं और वेट एंड वाच की मोड में है.
उत्तर प्रदेश की सियासत में बीजेपी 15 साल के बाद साल 2017 में सत्ता में लौटी, जिसमें गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित मतदाताओं की अहम भूमिका रही. 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी की नजर यूपी में इसी ओबीसी और दलित वोटर पर है. इन्हें बीजेपी के साथ साधे रखने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी कैबिनेट विस्तार में यूपी कोटे से सात मंत्री बनाए है, जिनमें तीन दलित और तीन ओबीसी समाज से हैं. मोदी सरकार ने नीट में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण देने का ऐलान भी कर दिया है, जिसे बीजेपी अपनी एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर भी पेश कर रही है.
नीतीश की जाति यूपी में अहम
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेता सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि जेडीयू का यूपी की सियासत में कोई खास आधार नहीं है, लेकिन नीतीश कुमार जिस कुर्मी समुदाय से आते हैं. वो यूपी में यादव के बाद दूसरी सबसे बड़ी ओबीसी जाति है. बिहार से सटे हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुर्मी समुदाय काफी निर्णायक भूमिका में है. वो कुर्मी समुदाय के इकलौते सीएम हैं, जो पिछले डेढ़ दशक के बिहार की सत्ता के धुरी बने हुए हैं. अकाली दल से नाता टूटने के बाद पंजाब में बीजेपी अलग-थलग पड़ गई है और अब जेडीयू से अलग होकर बिहार में अलग-थलग नहीं होना चाहेगी.
सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि यूपी के चुनाव में इस बार बिहार की राजनीतिक दलों की सक्रियता पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा है. बिहार में एनडीए के सहयोगी जीतनराम मांझी से लेकर निषाद समुदाय के नेता मुकेश सहनी और जेडीयू तक चुनावी मैदान में उतरने के लिए कमर कस रही है. नीतीश कुमार ने यूपी चुनाव से पहले जिस तरह से जातिगत जनगणना की मांग उठाई है. ऐसे में बीजेपी किसी भी सूरत में नीतीश कुमार को नाराज नहीं करना चाहेगी, क्योंकि सहयोगी दल ही नहीं बल्कि ओबीसी समाज में भी एक बड़ा संदेश जाएगा.
यूपी में कुर्मी समुदाय की सियासत
बता दें कि यूपी में की करीब तीन दर्जन विधानसभा सीटें और 10 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिन पर कुर्मी समुदाय निर्णायक भूमिका निभाते हैं. यूपी में कुर्मी जाति की संत कबीर नगर, मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर, बस्ती और बाराबंकी, कानपुर, अकबरपुर, एटा, बरेली और लखीमपुर जिलों में ज्यादा आबादी है. यहां की विधानसभा सीटों पर कुर्मी समुदाय या जीतने की स्थिति में है या फिर किसी को जिताने की स्थिति में.
मौजूदा समय में यूपी में कुर्मी समाज के बीजेपी के छह सांसद और 26 विधायक हैं. केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री पंकज चौधरी और अनुप्रिया पटेल इसी समुदाय से आते हैं. इसके अलावा यूपी में योगी सरकार में कुर्मी समुदाय के तीन मंत्री है. इसमें कैबिनेट मंत्री मुकुट बिहारी वर्मा, राज्यमंत्री जय कुमार सिंह 'जैकी' हैं. कुर्मी समुदाय पहले भी बीजेपी के साथ मजबूती से जुड़ा रहा है. स्वतंत्र देव पार्टी की कमान संभाल रहे हैं तो अपना दल (एस) के साथ बीजेपी का गठबंधन है.
यूपी में जातीय समीकरण
उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरणों पर नजर डालें तो इस राज्य में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग है. यूपी में सवर्ण जातियां 19 फीसदी हैं, जिसमें ब्राह्मण करीब 10 फीसदी, 6 फीसदी राजपूत और बाकी वैश्य, भूमिहार और कायस्थ हैं. पिछड़े वर्ग की संख्या 39 फीसदी है, जिसमें यादव 10 फीसदी, कुर्मी-कुशवाहा, सैथवार 12 फीसदी, जाट 3 फीसदी, मल्लाह 5 फीसदी, विश्वकर्मा 2 फीसदी और अन्य पिछड़ी जातियों की तादाद 7 फीसदी है. इसके अलावा प्रदेश में अनुसूचित जाति 25 फीसदी हैं और मुस्लिम आबादी 18 फीसदी है.
नीतीश कुर्मी समुदाय का चेहरा
कुर्मी-कुशवाहा-सैथवार मिलाकर 12 फीसदी वोट हैं, जिस पर बीजेपी अपनी पैनी निगाह रख रही है. पूर्वांचल और अवध के बेल्ट में की करीब 32 विधानसभा सीटें और आठ लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिन पर कुर्मी, पटेल, वर्मा और कटियार मतदाता चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं. पूर्वांचल के कम से कम 16 जिलों में कहीं 8 तो कहीं 12 प्रतिशत तक कुर्मी वोटर राजनीतिक समीकरण बदलने की हैसियत रखते हैं. यूपी में रामस्वरुप वर्मा और सोनेलाल पटेल के बाद और इनके नहीं रहने पर देश में कुर्मी के बड़े नेता के तौर पर नीतीश कुमार ही हैं. जाहिर है बिहार के साथ-साथ यूपी चुनावों में भी बीजेपी के लिए जरूरी है कि वो नीतीश को नाराज न होने दे. नीतीश भी इसे समझ रहे हैं और उनके तेवरों के पीछे ये भी एक बड़ा कारण है.