बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने से पहले मशहूर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने दो भविष्यवाणियां की थीं. एक अपनी जन सुराज पार्टी को लेकर और दूसरी जेडीयू को लेकर, जिसके वे कभी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रह चुके हैं. अपनी पार्टी के बारे में उनके द्वारा किया गया 'अर्श पर या फर्श पर' वाला दावा इस बार उनके लिए कड़वी सच्चाई बनकर सामने आया है. वहीं दूसरी ओर, उनकी यह भविष्यवाणी कि जेडीयू '25 से ज्यादा सीटें नहीं जीत पाएगी', इस समय जेडीयू और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समर्थकों के लिए मज़ाक का विषय बनी हुई है.
जेडीयू का आंकड़ा 80 के पार जाता दिख रहा है, जो 2010 के बाद का उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है. तब पार्टी ने 100 से ज्यादा सीटें जीती थीं, हालांकि तब उसने इस बार के मुक़ाबले कहीं अधिक सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, जबकि इस चुनाव में उसने 101 सीटों पर ही उम्मीदवार खड़े किए.
कई कैंडिडेट जमानत नहीं बचा पाए
दूसरी ओर प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की स्थिति बेहद खराब दिख रही है. पार्टी ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की कोशिश की थी और नामांकन न दाखिल कर पाने के लिए उसने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह सहित भाजपा के शीर्ष नेताओं को जिम्मेदार ठहराया था. लेकिन नतीजा यह है कि पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई. अधिकांश सीटों पर उसके प्रत्याशी अपनी ज़मानत भी बचाते नहीं दिख रहे हैं.
47 वर्षीय किशोर ने लगभग एक वर्ष पहले जन सुराज पार्टी की शुरुआत की थी. इससे पहले उन्होंने कई महीनों तक बिहार के कोने-कोने में ‘पदयात्रा’ की, जिसके बाद पार्टी लॉन्च हुई और इसे जोरदार प्रचार मिला.
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'कमजोर विपक्ष नहीं है, बल्कि विपक्ष में मौजूद पार्टियां कमजोर हैं'
हालांकि किशोर को अक्सर इस बात के लिए आलोचना झेलनी पड़ती है कि उन्होंने लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा को 300 से ज्यादा सीटें मिलने का अनुमान लगाया था, लेकिन वे इस बात पर हमेशा कायम रहे हैं कि भारत जैसे देश में, जहां बड़ी आबादी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में ही संघर्ष करती है, वहां विपक्ष के लिए हमेशा एक महत्वपूर्ण जगह बनी रहेगी. उनका यह कहना, 'कमजोर विपक्ष नहीं है, बल्कि विपक्ष में मौजूद पार्टियां कमजोर हैं', चुनावी राजनीति पर उनका सबसे सटीक और चर्चा योग्य विश्लेषण माना जाता है.
प्रशांत के पास क्या हैं विकल्प?
आई-पैक के संस्थापक के रूप में उनकी रणनीति का लाभ नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, जगन मोहन रेड्डी, उद्धव ठाकरे और एम. के. स्टालिन जैसे बड़े नेताओं को मिलता रहा है. हालांकि उनके सभी राजनीतिक अभियानों ने सफलता नहीं दिलाई. आलोचकों के अनुसार, किशोर इस बात को स्वीकार करना पसंद नहीं करते. लेकिन उम्र उनके साथ है और बिहार में इंडिया गठबंधन की करारी हार के बाद उनके लिए नई संभावनाएं और एक ‘वर्जिन टेरिटरी’ मौजूद है, जिसे वे अपनी जन सुराज पार्टी के माध्यम से तलाश सकते हैं.
प्रशांत को कैबिनेट मंत्री के दर्जे के साथ सलाहकार बनाया गया
जन सुराज पार्टी उनकी पहली राजनीतिक पारी नहीं है. इससे पहले भी वे राजनीति में सक्रिय रहे हैं. 2015 में नीतीश कुमार के सत्ता में लौटने के बाद उन्हें कैबिनेट मंत्री के दर्जे के साथ सलाहकार बनाया गया था. तीन साल बाद उन्होंने जेडीयू जॉइन की और जल्द ही राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बन गए. इस दौरान यह अटकलें भी चलने लगी थीं कि नीतीश कुमार उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत का वारिस मानते हैं.
लेकिन करीब एक साल बाद ही सीएए पर नीतीश कुमार के अस्पष्ट रुख की खुली आलोचना करने पर किशोर को पार्टी से निकाल दिया गया. इसके बाद उन्होंने 'बात बिहार की' अभियान की शुरुआत की, जो आगे नहीं बढ़ पाया.
ममता बनर्जी के लिए किया काम
2021 के पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी की भारी सफलता के बाद प्रशांत किशोर की रणनीति को एक बार फिर जोरदार प्रशंसा मिली. इसके बाद उन्होंने कांग्रेस को 'रीवाइव' करने का खाका भी पार्टी नेतृत्व के सामने रखा, लेकिन यह प्रस्ताव कभी अमलीजामा नहीं पहन सका.
अब जबकि बिहार में जन सुराज पार्टी ने शुरुआत में ही करारा झटका खाया है, आगे की राह प्रशांत किशोर के लिए चुनौतीपूर्ण है. लेकिन राजनीतिक जमीन पर उनकी पकड़, अनुभव और विश्लेषण क्षमता उन्हें भविष्य में एक बार फिर वापसी का मौका दे सकती है.