scorecardresearch
 

जात और भात के चक्कर में फंसा मोकामा... अनंत सिंह की बाहुबली छवि से हुआ नुकसान?

अनंत सिंह बाढ़ के ही नदवां गांव से आते हैं. बाढ़ शहर में उनकी एक मार्केट है जिसका नाम है कारगिल मार्केट. यहीं छत पर उनका दरबार लगता है. अनंत सिंह के विरोधी बताते हैं कि जब भी अनंत सिंह का चुनाव फंसता है, वो हिंसा का सहारा लेते हैं.

Advertisement
X
एक दशक में सोशल मीडिया के उभार के साथ अनंत सिंह मोकामा की पहचान बन गए हैं. (File Photo- ITG)
एक दशक में सोशल मीडिया के उभार के साथ अनंत सिंह मोकामा की पहचान बन गए हैं. (File Photo- ITG)

बिहार के पटना जिले में पड़ने वाला मोकामा अक्सर अनंत सिंह की वजह से सुर्खियों में रहता है. अनंत सिंह फिलहाल 2025 के विधानसभा चुनाव में NDA गठबंधन के उम्मीदवार हैं. कभी गोलीकांड की वजह से तो कभी अपने मजाकिया अंदाज से अनंत सिंह खबरों की दुनिया को गुलजार रखते हैं. कठिन से कठिन और जटिल से जटिल सवालों के जवाब एक शब्द या एक लाइन में देने वाले अनंत सिंह नेशनल मीम मेटेरियल हैं. यही कारण है कि अनंत सिंह को चेज करते हुए दिल्ली के पत्रकार भी उनके क्षेत्र बाढ़ पहुंचते हैं.

दरअसल, अनंत सिंह बाढ़ के ही नदवां गांव से आते हैं. बाढ़ शहर में उनकी एक मार्केट है जिसका नाम है कारगिल मार्केट. यहीं छत पर उनका दरबार लगता है. एक बड़ा सा कमरा, जिसमें विंडो और स्प्लिट दोनों तरह के एसी झूल रहे होते हैं. कुछ चिह्नित समर्थकों से घिरे, आंखों पर काला चश्मा चढ़ाए, पलंग पर पालथी मार बैठे हुए अनंत सिंह का यही फ्रेम लगभग हर इंटरव्यू में दिखता है. डंके की चोट पर खुद को निरक्षर बताते हुए भी वो पूरी ठसक से मीडिया को इंटरव्यू देते हैं. रिपोर्टर के शातिर सवालों से ऊबकर कभी बीच इंटरव्यू में सिगरेट मांग लेते हैं और रिपोर्टर कच्चा हो तो उसे भदेस अंदाज में डपट भी लेते हैं. कहना होगा कि पिछले एक दशक में सोशल मीडिया के उभार के साथ अनंत सिंह मोकामा की पहचान बन गए हैं.

Advertisement

क्या है मोकामा की कहानी

मोकामा मूलतः मुकाम शब्द से बना है. मुकाम एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ होता है- पड़ाव, पता, मंजिल, ठिकाना या ठहराव. उत्तर भारत के मैदानी इलाके में प्राणदायिनी मानी जाने वाली गंगा के दक्षिणी तट पर बसा ये छोटा सा शहर है. उत्तरी और दक्षिणी बिहार को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए आज़ादी के बाद यहां मशहूर राजेंद्र सेतु बना. उससे पहले नाव या पानी के जहाज ही यातायात का जरिया हुआ करते थे. कभी वहां एक अतिव्यस्त बंदरगाह भी होता था- मोकामा घाट. यहां से व्यापार के लिए कृषि उत्पाद के साथ साथ कई चीजें जलमार्ग के जरिए साउथ बिहार के कई जिलों समेत कोलकाता और बांग्लादेश तक जाती थीं. मुग़लों और अंग्रेज़ों के जमाने में व्यापारियों, सैनिकों और सैलानियों को रात में यहीं डेरा डालना पड़ता था. संभवतः इसी वजह से इलाके का नाम मुकाम पड़ा और अंग्रेज़ी जबान से रगड़ खाता हुआ ये मोकामा बन गया.

बिहार चुनाव की विस्तृत कवरेज के लिए यहां क्लिक करें

बिहार विधानसभा की हर सीट का हर पहलू, हर विवरण यहां पढ़ें

मोकामा की पहचान कैसे बने अनंत सिंह

1990 के दशक में लालू की सियासत अपने शबाब पर थी. उधर, बिहार में अपराध की आंच धधक रही थी. कई जगह जाति और वर्चस्व की लड़ाइयां बंदूक की नोंक पर लड़ी जा रही थी. मोकामा भी इससे अछूता नहीं रहा. मोकामा को अपराध के आगोश में समाते हुए देखने वाले लोग (ऑफ द रिकॉर्ड) बताते हैं कि यहां पहले सिर्फ पहलवानी और लाठी का जोर चलता था. लेकिन ये अनंत सिंह के बड़े भाई और तत्कालीन आरजेडी विधायक दिलीप सिंह थे जिनके सौजन्य से यहां आग्नेयास्त्रों का आगमन हुआ. कालांतर में मोकामा के अपराधियों के कंधे से लटकते हर तरह के अत्याधुनिक हथियार देखे गए. गैंगवार का लंबा सिलसिला चला, जिसमें सैकड़ों लोगों की जानें गईं. ये वही दौर था, जिसे बिहार में कानून-व्यवस्था का काला युग यानी 'जंगलराज' कहा गया.

Advertisement

ध्यान देने वाली बात ये है कि तब अनंत सिंह अपने बड़े भाई दिलीप कुमार सिंह के 'साइडकिक' वाले रोल में थे. उनकी ट्रेनिंग दिलीप सिंह स्कूल ऑफ बाहुबली पॉलिटिकस में हुई. दिलीप सिंह आगे चलकर आरजेडी सरकार में राहत और पुनर्वास मंत्री भी बने. मोकामा से दो बार लगातार चुनाव जीतने के बाद दिलीप सिंह खुद को शाह का मुसाहिब समझने लगे. उन्हें लगने लगा कि मोकामा से अब उन्हें कोई हरा नहीं सकता. क्षेत्र पर ध्यान देना तो दूर, समस्याएं लेकर पास आने वाले लोगों से बड़ी बेअदबी और बेरुखी से पेश आते. गाली-गलौज तक करते. पाया (पिलर) में बांधकर पिटवाते. मोकामा से होने के नाते ये सभी कहानियां हमने बचपन में सुनी हुई हैं.

सूरजभान ने अनंत के भाई को पटक दिया

फिर 2000 का ज़माना आया, बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. मोकामा के बाहुबली सूरजभान सिंह पटना की बेउर जेल में बंद थे. उनके सहयोगी ललन सिंह ने मोकामा में शांति स्थापित करने का बीड़ा उठाया. विरोधी खेमे से सुलह कर प्रण लिया कि अब मोकामा में गोलियों की तड़तड़ाहट नहीं गूंजेगी. सूरजभान ने मोकामा को दिलीप सिंह के राज से मुक्त कराने की ठानी. दिलीप सिंह ज़मीन से कट चुके थे. और जैसा लोहा लोहे को काटता है. एक बाहुबली ने दूसरे बाहुबली का पत्ता काट दिया और दिलीप सिंह रिकॉर्ड 70 हजार वोटों से चुनाव हार गए.

Advertisement

बड़े भाई की विरासत और पहला चुनाव

निर्दलीय उम्मीदवार सूरजभान से पटखनी मिली तो खुद नामी रंगबाज रहे दिलीप सिंह का राजनीतिक रंग उतरने लगा. लालू ने तीन साल बाद उन्हें विधान परिषद भेजा, लेकिन विधानसभा चुनाव में हार के सदमे से वो कभी उबर नहीं सके और अस्वस्थ रहने लगे. 2006 में दिलीप सिंह की मौत से ठीक एक साल पहले उनकी राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए आगे आये छोटे भाई अनंत सिंह. अपने भाई का साये की तरह साथ निभाने वाले अनंत सिंह ने दिलीप सिंह की गलतियों से सीख ली. बदलाव की मूड बना चुकी जनता की नब्ज़ को पहचानते हुए जदयू में शामिल हुए और 2800 के मामूली अंतर से 2005 का चुनाव जीत गए. तब अनंत सिंह ने सूरजभान के भाई जैसे सहयोगी ललन सिंह को चुनाव हराया और दिलीप सिंह की हार का बदला लिया.

मशहूर हुई अनंत सिंह की आवभगत

पांच साल बाद अगले चुनाव में बिहार में एनडीए की लहर देखी गई. कारण नीतीश कुमार की छवि सुशासन बाबू की बन चुकी थी. बिहार को विकास की हल्की सी हवा लगी थी. अनंत सिंह को भी इसका फायदा मिला और उन्होंने चुनावी जीत में अपनी लीड को करीब 9 हजार तक बढ़ा दिया. जिस अनंत सिंह के भाई क्षेत्र की जनता से सीधे मुंह बात नहीं करते थे, अनंत सिंह ने उनके लिए अपने घर के दरवाज़े खोल दिए. पटना में अनंत सिंह का दरबार लगने लगा और ख़ास बात ये है कि 90 किलोमीटर दूर क्षेत्र से मदद की आस लगाए लोगों को आश्वासन के साथ भरपेट भोजन भी मिलने लगा. अनंत बाबू के यहं जाने पर घी से सने दाल-भात के साथ दो-तीन तरह की सब्ज़ियां मिलती हैं, ये कभी मोकामा में चर्चा का विषय हुआ करता था. तो कुल मिलाकर उन्होंने गुडविल बनाने का काम किया.

Advertisement

लेकिन, हमारे देश की राजनीति का ये दुर्भाग्य है कि अकेले गुडविल से चुनाव नहीं जीता जाता है. तो इलेक्शन मैनेजमेंट में भी अनंत सिंह कभी पीछे नहीं रहे. जनता में भौकाल और चुनाव में माहौल बनाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाते रहे. इस दौरान अपनी ऊटपटांग हरकतों से नीतीश कुमार और उनके अन्य क़रीबियों की निगाहों में चुभते भी रहे.

सीएम मांझी को धमकाया

2015 का बिहार चुनाव आता, इससे पहले नरेंद्र मोदी देश की राजनीति के केंद्र-बिंदु बन चुके थे. मोदी के नेतृत्व को नामंजूर करते हुए नीतीश ने 2014 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा और जेडीयू सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई. नीतीश नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए सीएम पद से हट गए. जीतनराम मांझी कुछ महीनों के लिए मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन हुए. बिहार में नई राजनीतिक संभावनाएं आकार ले रही थीं. प्रशांत किशोर जैसे सिपहसालारों की सलाह पर नीतीश ने कुर्सी वापस लेने का मन बनाया. लेकिन सीएम की कुर्सी से मांझी हटने को राज़ी ही नहीं हो रहे थे. इस खींचतान के बीच अनंत सिंह मीडिया के सामने आए और मांझी को लगभग धमकाते हुए कुर्सी छोड़ने को कहा. आखिरकार नीतीश ने सीएम पद की शपथ ली.

चुनाव को मूंछ की लड़ाई बना दी

Advertisement

नीतीश आरजेडी के साथ महागठबंधन कर चुके थे और आगामी चुनाव मिलकर लड़ने का मन बना चुके थे. इस बीच चुनावी साल में पुटुस यादव हत्याकांड से प्रदेश की सियासत गरमा गई. इस हत्याकांड से अनंत सिंह का नाम जुड़ा और लालू यादव ने इसे बड़े ज़ोर-शोर से उठाया. नतीजा ये हुआ कि जेडीयू ने अनंत का टिकट काट दिया. अनंत ने यहां विक्टिम और कास्ट कार्ड एकसाथ खेला. खुद को भूमिहार समाज की आबरू का रक्षक बताते हुए निर्दलीय ही चुनावी मैदान में कूद पड़े. चुनाव को भूमिहार के मूंछ की लड़ाई बनाने में कामयाब हुए. भूमिहार बहुल सीट होने का फ़ायदा उन्हें मिला और वो 18 हजार वोटों से जीत गए.

नीतीश की भृकुटि हुई टेढ़ी

इस चुनाव में खास मोकामा से ताल्लुक रखने वाले तीन दमदार उम्मीदवार भी अलग-अलग पार्टियों से चुनावी मैदान में थे. इनके बीच वोटों का बंटवारा हो गया. अनंत सिंह भूमिहार सेंटीमेंट को साधते हुए जेल में बंद रहते हुए भी आसानी से चुनाव जीत गए. समय और सियासत का पहिया आगे बढ़ा. नीतीश पाला बदलते रहे और अलग अलग गठबंधन की सरकार के मुखिया बने रहे. 2019 का लोकसभा चुनाव जेडीयू ने एनडीए का हिस्सा रहते हुए लड़ा. अनंत सिंह अपनी राजनीतिक जमा-पूंजी को बचाने महागठबंधन की शरण में आ चुके थे. उनकी पत्नी नीलम देवी ने कांग्रेस के टिकट पर जेडीयू के राजीव रंजन सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ा. फलस्वरूप अनंत सिंह बिहार में सत्ता की आंखो की लगातार किरकिरी बने हुए थे. विधानसभा चुनाव साल भर दूर था और बिहार पुलिस ने उनके आवास से AK-47, बम और गोलियां बरामद की. UAPA का चार्ज उन पर लगा और दिल्ली के कोर्ट में उन्हें सरेंडर करना पड़ा.

Advertisement

आरजेडी में घर वापसी

बीस साल बाद अनंत सिंह की आरजेडी में घर वापसी हुई. पांच साल पहले जिस लालू और राजद के आरोपों के ख़िलाफ़ सहानुभूति मिली, उसे धता बताकर वो उसी पार्टी के टिकट से चुनाव लड़े. राजनीतिक अवसरवादिता के घोड़े पर सवार अनंत सिंह के पक्ष में सभी जातीय समीकरण थे. सामने जेडीयू ने एक साफ़ छवि के सामाजिक कार्यकर्ता राजीव लोचन नारायण सिंह को टिकट दिया. अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ रहे राजीव लोचन भला अनंत के धनबल-बाहुबल के सामने कहां टिकते. जेल में रहते हुए भी अनंत सिंह ने खेल कर दिया और 36 हज़ार के भारी अंतर से चुनाव जीत गए. कहना होगा कि इस जीत से अनंत सिंह की राजनीतिक रसूख बढ़ी. लेकिन उनके ऊपर क़ानून का शिकंजा कसता रहा. अनंत सिंह पर आरोप सिद्ध हुए, सज़ा हुई और विधायकी चली गई.

नरम पड़े नीतीश, अनंत को मिला फायदा

नतीजतन 2022 में उपचुनाव हुए और अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी ने आरजेडी के ही टिकट पर बीजेपी प्रत्याशी सोनम देवी को क़रीब 16 हजार वोटों से हरा दिया. जनवरी 2024 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर पलटी मारी और एनडीए में शामिल हो गए. नौवीं बार सीएम पद की शपथ लेते हुए नीतीश कुमार सियासी तौर पर उतने मजबूत नहीं रहे और विश्वासमत हासिल करते हुए आश्चर्यजनक रूप से उन्हें आरजेडी के कुछ विधायकों का समर्थन मिला. इनमें से एक नाम अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी का भी था. नीतीश यहां से अनंत सिंह के ऊपर नरम पड़ते हैं और धीरे-धीरे अनंत सिंह की सारी क़ानूनी मुश्किलें आप ही आप आसान हो जाती हैं. उनके राजनैतिक प्रभाव के मद्देनज़र अदालत में सबूतों का अभाव दिखता है और UAPA जैसे संगीन आरोप में वो बरी हो जाते हैं.

पानी की तरह पैसे बहाते हैं

अब तक के सभी चुनावों में एक बात कॉमन रही कि अनंत सिंह ने टिकट पाने से लेकर जीतने तक पैसों की कभी परवाह नहीं की. चुनाव की घोषणा होते ही पूरे क्षेत्र में उनके कई कार्यालय खुलते हैं और यहां दिन-रात भंडारा चलता है. लोगों को मनमाना बढ़िया खाना खिलाया जाता है. इस दौरान सैकड़ों-हजारों लोग ऐसे होते हैं जो पूरे महीने अपने घर में खाना ही नहीं खाते और चुनाव के दिन उनके नमक की शरीयत चुकाते हैं.

इस बार डगर कठिन है?

जात (जाति) और भात (भोजन) को आधार बनाकर चुनाव दर चुनाव जीतने वाले अनंत सिंह एकबार फिर नीतीश कुमार के कृपापात्र हो चुके हैं. 2025 के चुनाव में उन्हें जेडीयू से टिकट मिला है. मगर इस बार हालात थोड़े बदले हुए हैं. लगातार जेल में रहने और विधायक टिकट के लिए पाला बदलते रहने से उनकी साख कमजोर हुई है. 20 साल की एंटी-इनकम्बेंसी से भी वो लड़ रहे हैं. पत्रकारों से बात करते हुए अनंत सिंह के चेहरे पर झुंझलाहट और बदतमीज़ी के भाव साफ़ देखे जा सकते हैं. मोकामा में एक अरसे बाद हुई चुनावी हिंसा को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है.

चुनाव फंसा मतलब हिंसा?

अनंत सिंह के विरोधी बताते हैं कि जब भी अनंत सिंह का चुनाव फंसता है, वो हिंसा का सहारा लेते हैं. इससे दो फायदे होते हैं - एक तो विरोधी डर जाते हैं और दूसरा उनका 'कल्ट' बढ़ता जाता है. साल 2000 के चुनाव से जोड़कर लोग याद करते हैं कि तब भी अपने भाई दिलीप सिंह की हार सामने देख बसावनचक में बच्चू सिंह नाम के शख़्स की हत्या के पीछे अनंत सिंह का हाथ था. लेकिन इसका फ़ायदा तब उन्हें मिला नहीं. इसबार चूँकि मोकामा में सूरजभान सिंह चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं और चुनाव में उनके अलावा दूसरा कोई मजबूत कैंडिडेट नहीं है तो अनंत सिंह को अपना सिंहासन डोलता नज़र आ रहा है.

मोकामा का हुआ नुकसान?

चुनाव में जो भी हो, लेकिन यह सच है कि बाहुबल की राजनीति अक्सर विकास के मुद्दों को पीछे धकेल देती है. मोकामा से लगातार जीतन के बाद अनंत सिंह का ध्यान क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक विकास के बजाय अपने दबदबे और राजनीतिक वर्चस्व को बनाए रखने पर अधिक रहा. राजनीति में आने और अकूत संपत्ति कमाने के बाद भी उन्होंने अपराध की दुनिया को कभी नहीं छोड़ा. यही कारण है कि उनका नाम अपराध और हिंसा से जुड़ता रहा. मोकामा में सड़क, बिजली, पानी, जलनिकासी, शिक्षा, स्वास्थ्य और टाल क्षेत्र के पुनरुद्धार जैसे जनहित के बड़े कामों में उनकी राजनीतिक ऊर्जा लगी ही नहीं.

मीडिया के कैमरे पर सुशासन की सरकार को अंग विशेष की सरकार कह कर अनंत सिंह देशभर में पॉपुलर हो गए. मगर उनकी इस लोकप्रियता का सबसे बड़ा नुकसान मोकामा को ही झेलना पड़ा. उनकी पूरी राजनीति व्यक्तिगत करिश्मे और सत्ता के समीकरणों पर टिक गई. प्रशासन और सत्ता के साथ उनके तनावपूर्ण रिश्तों का सीधा असर भी क्षेत्र पर पड़ा. सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन, निवेश, सड़क और उद्योग से जुड़ी परियोजनाएँ अक्सर राजनीतिक टकरावों की भेंट चढ़ती रही. विकास परियोजनाओं के लिए आवंटित फंड का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं हो पाया. भ्रष्टाचार के कारण जो काम हुए उसकी गुणवत्ता खराब रही.

एक लाख हेक्टेयर में फैला मोकामा टाल अक्सर बाढ़ या सुखाड़ झेल रहा होता है. उद्योग उजड़ चुके हैं और युवा पलायन कर रहे हैं. इसका कारण सिर्फ बिहार सरकार की उपेक्षा नहीं, बल्कि स्थानीय नेतृत्व की स्वार्थपरक सियासत और सीमाएं रहीं. कितनी अजीब विडंबना है कि एक दबंग और बाहुबली नेता का इलाका असहाय बना रहा. बग्घी में काला चश्मा और हैट चढ़ाए अनंत सिंह के विधानसभा जाने की सुर्खियां खूब बनीं, लेकिन अनंत आजतक विधानसभा में क्षेत्र के लिए कोई सवाल नहीं उठा सके. यही वजह है कि आज अनंत सिंह के वीडियो कितने भी वायरल होते हैं, उनका विधानसभा क्षेत्र मोकामा बिहार के मानचित्र पर अपनी चमकदार जगह खो चुका है.

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement