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फिर से शून्य पर सवार कांग्रेस, 11 साल और छह चुनाव के बावजूद दिल्ली में क्यों नहीं छोड़ सकी छाप?

11 वर्षों में 3 लोकसभा और 2 विधानसभा चुनाव से गुजरने के बावजूद, कांग्रेस दिल्ली के मतदाताओं को यह भरोसा दिलाने में विफल रही है कि वह एक प्रभावी विकल्प है. आम आदमी पार्टी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के बावजूद, कांग्रेस को मतदाताओं ने 'वोट वेस्टिंग' के रूप में खारिज कर दिया. मसलन, अपनी छठी कोशिशों में भी कांग्रेस अपनी छाप छोड़ने में नाकाम रही.

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मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी (Photo: PTI)
मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी (Photo: PTI)

11 साल, 3 लोकसभा चुनाव और 2 विधानसभा चुनाव के बाद भी कांग्रेस दिल्ली के मतदाताओं में यह भरोसा नहीं जीत पाई है कि पार्टी असल में एक विनिंग हॉर्स है, जो सरकार बनाने के फोकस के साथ चुनाव लड़ती है. इस बार दिल्ली में आम आदमी पार्टी के खिलाफ स्पष्ट सत्ता विरोधी लहर के बावजूद लोगों ने कांग्रेस को 'वोट वेस्टिंग' कवायद के रूप में खारिज कर दिया.

कांग्रेस पार्टी लोगों के लिए एक विकल्प के रूप में उभर नहीं पाई और बीजेपी विरोधी मतदाताओं के पास सिर्फ एक ही विकल्प बचा - AAP. कई लोगों का मानना ​​है कि इस बार कांग्रेस ने जो सबसे बड़ी गलती की, वह उसकी आदतन गलती थो, फैसले न ले पाने की गलती.

कांग्रेस के लिए फैसले न ले पाना सबसे बड़ी गलती

सत्ता विरोधी लहर को भुनाने और विपक्ष की जगह हथियाने के बजाय, कांग्रेस शुरू में यह तय नहीं कर पाई कि वह आम आदमी पार्टी पर किस हद तक हमला कर सकती है, जो इंडिया ब्लॉक में सहयोगी थी. कांग्रेस सांसद और दिल्ली के वरिष्ठ नेता अजय माकन ने शुरू में ही आप और अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया, उन्हें देशद्रोही कहा और अगली ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्हें देशद्रोही के तौर पर बेनकाब करने की कसम खाई.

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हालांकि, इंडिया ब्लॉक के सहयोगियों द्वारा कांग्रेस पर दबाव डालने के बाद हाईकमान के हस्तक्षेप के बाद उक्त पीसी को टाल दिया गया. इसी तरह, हालांकि राहुल गांधी ने 13 जनवरी को पहली रैली में आप और केजरीवाल पर हमला किया, लेकिन फिर मेडिकल कारणों से लगभग दो सप्ताह तक मैदान में नहीं उतर सके. उनकी गैरमौजूदगी में न तो प्रियंका गांधी और न ही मल्लिकार्जुन खड़गे ने कमान संभाली, जिससे दिल्ली कांग्रेस इकाई में उथल-पुथल मच गई. इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस दिल्ली की नब्ज को समझने में विफल रही और जब तक उसे समझ में आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

अल्पसंख्यकों के लिए कोई अपील नहीं?

कांग्रेस अल्पसंख्यकों और दलितों जैसे अपने मूल वोट-बैंक के लिए भी गैर-लाभकारी रही, जिन्होंने बहुत पहले ही AAP के प्रति अपना मन बदल लिया था, जबकि दलितों का एक छोटा वर्ग कांग्रेस में वापस आया, संविधान और सामाजिक न्याय पर केंद्रित राहुल गांधी के चुनावी भाषणों के कारण, जिसकी वजह से वोट शेयर में 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई, अल्पसंख्यक AAP के साथ मजबूती से खड़े रहे क्योंकि नरेंद्र मोदी-अमित शाह के रथ को रोकने के लिए कांग्रेस कोई विकल्प भी नहीं थी.

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इसके अलावा, निजामुद्दीन मरकज, शाहीन बाग विरोध और दिल्ली दंगों जैसे तत्कालीन मुद्दे भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के भाषणों से गायब थे. अल्पसंख्यक समुदाय के कई मतदाताओं ने स्वीकार किया कि वे कांग्रेस को वोट देना चाहते थे, लेकिन भगवा पार्टी और AAP के बीच द्विध्रुवीय मुकाबले में बीजेपी का मुकाबला करने के लिए देश की सबसे पुरानी पार्टी काफी कमजोर साबित हुई.

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कमजोर संगठन और कम तैयार सिपाही

हाईकमान के निर्देश पर कई बड़े नेता चुनाव लड़ने को तैयार हो गए, लेकिन इनमें से ज्यादातर उम्मीदवार हार के डर से आधे-अधूरे मन से चुनाव लड़े. जैसे, कालकाजी से कांग्रेस की उम्मीदवार अलका लांबा शुरू में चुनाव लड़ने में दिलचस्पी नहीं ले रही थीं. वरिष्ठ नेताओं के नाखुश होने से नाराज राहुल गांधी ने केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में पार्टी नेताओं से ऐसे नेताओं की सूची तैयार करने को कहा.

इसके बाद अलका लांबा ही नहीं, कई अन्य नेता चुनाव लड़ने को तैयार हो गए. इंडिया टुडे से बात करते हुए संदीप दीक्षित ने माना कि पार्टी को कम से कम एक साल पहले ही दिल्ली में संगठन को दुरुस्त करने के लिए चुनाव मोड में आ जाना चाहिए था, तभी नतीजे कुछ और हो सकते थे.

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