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'राम की शक्ति पूजा' के बारे में जानिए, क्यों होती है इस पर चर्चा

राम मंदिर निर्माण के 5 अगस्त को भूमिपूजन हो गया. अब अयोध्या में मंदिर न‍िर्माण की तैयारियां जोरों पर हैं. आइए आपको राम की शक्त‍ि पूजा के बारे में बताते हैं कि ये क्या है और क्यों इसे कोर्स में पढ़ाया जाता है.

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राम की शक्त‍ि पूजा क्या है
राम की शक्त‍ि पूजा क्या है

राम की शक्त‍ि पूजा हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर मानी जाती है. ये महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी न‍िराला की एक कविता है जो हिंदी के पाठ्यक्रम में छात्रों को पढ़ाई जाती है. बता दें कि निराला ने 'राम की शक्ति पूजा' कविता 23 अक्टूबर 1936 को पूरी की थी.

पहली बार 26 अक्टूबर 1936 को इलाहाबाद से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र 'भारत' में इसका प्रकाशन हुआ था. सबसे पहले इसका मूल निराला के कविता संग्रह 'अनामिका' के प्रथम संस्करण में छपा. बता दें कि अपनी पुत्री सरोज के असामयिक निधन से विचलित कवि निराला ने उनकी स्मृति में 'सरोज-स्मृति' की रचना की थी.

ठीक वैसे ही 'राम की शक्ति पूजा' में भी उतने ही अनुच्छेद हैं, जितने 'सरोज-स्मृति' में हैं. इन दोनों काव्य संग्रहों में अनुच्छेदों की कुल संख्या 11 है और ये प्रसंग के अनुकूल ही आकार में छोटे-बड़े हैं. यह कविता 312 पंक्तियों का ऐसा काव्य है जिसमें निराला जी के स्वरचित छंद 'शक्ति पूजा' का प्रयोग किया गया है.

ये एक कथात्मक कविता है, जिसकी संरचना सरल है. इस कविता का कथानक प्राचीन काल से सर्वविख्यात रामकथा के एक अंश से है. इस कविता पर वाल्मीकि रामायण और तुलसी के रामचरितमानस से ज्यादा बांग्ला कृति कृतिवास का प्रभाव देखा जाता है. आइए पढ़ें कविता का एक अंश-

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रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा

अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर

आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकर, वेगप्रखर,

शतशेल सम्वरणशील, नील नभगर्जित स्वर,

प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह

राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध कपि विषम हूह,

विच्छुरित वह्नि राजीवनयन हतलक्ष्य बाण,

लोहित लोचन रावण मदमोचन महीयान,

राघव लाघव रावण वारणगत युग्म प्रहर,

उद्धत लंकापति मर्दित कपि दलबल विस्तर,

अनिमेष राम विश्वजिद्दिव्य शरभंग भाव,

विद्धांगबद्ध कोदण्ड मुष्टि खर रुधिर स्राव,

रावण प्रहार दुर्वार विकल वानर दलबल,

मुर्छित सुग्रीवांगद भीषण गवाक्ष गय नल,

वारित सौमित्र भल्लपति अगणित मल्ल रोध,

गर्जित प्रलयाब्धि क्षुब्ध हनुमत् केवल प्रबोध,

उद्गीरित वह्नि भीम पर्वत कपि चतुःप्रहर,

जानकी भीरू उर आशा भर, रावण सम्वर

लौटे युग दल। राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल,

बिंध महोल्लास से बार बार आकाश विकल

वानर वाहिनी खिन्न, लख निज पति चरणचिह्न

चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न

काव्य में महाप्राण ने पौराणिक प्रसंग द्वारा धर्म और अधर्म के शाश्वत संघर्ष का चित्रण आधुनिक परिस्थितियों में किया है. इसमें उन्होंने मौलिक कल्पना के बल पर प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों का युग के अनुरूप संशोधन अनिवार्य माना है. यही कारण है कि महाप्राण की यह कविता कालजयी बन गई है. इस लंबी कविता में निराला ने राम को उनकी परंपरागत दिव्यता के महाकाश से उतार कर एक साधारण मानव के धरातल पर खड़ा कर दिया है, जो थकता भी है, टूटता भी है और जिसके मन में जय एवं पराजय का भीषण द्वन्द्व भी चलता है. 

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