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बिहार के फुटानीबाज़: अनंत सिंह और सूरजभान जैसे बाहुबली बने बिहार चुनाव की पहचान, आगे बढ़ी विरासत

बिहार की मोकामा विधानसभा सीट पर इस बार फिर बाहुबलियों का जलवा है. एक तरफ छोटे सरकार अनंत सिंह, दूसरी तरफ दबंग सूरजभान की पत्नी. दोनों की जुर्म से सियासत तक की कहानी ने इस सीट को चर्चित बना दिया. जानिए बाहुबलियों की विरासत की कहानी.

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अनंत सिंह और सूरजभान की चुनावी लड़ाई पर सबकी निगाहें लगी हैं (फोटो-ITG)
अनंत सिंह और सूरजभान की चुनावी लड़ाई पर सबकी निगाहें लगी हैं (फोटो-ITG)

Bihar ke Futanibaaz: बाहुबली अनंत सिंह और दबंग सूरजभान. यकीन मानिए अगर 80-90 का दशक होता और ये दो फुटानीबाज़ एक ही सीट पर आमने-सामने होते तो कई बूथों पर शायद उतने वोट नहीं गिरते जितनी लाशें गिर जातीं. इन दोनों का रिकार्ड और इतिहास ही इतना खूंखार रहा है कि जहां ये होते हैं वहां खून पानी हो जाता है. सिर्फ इन दोनों की वजह से बिहार के इस पूरे चुनाव में मोकामा विधानसभा सीट सबसे हॉट चुनावी सीट बन गई है.

छोटे सरकार. वैसे घर वालों ने नाम अनंत सिंह रखा था. मगर उन्हें खुद को छोटे सरकार बुलवाना ज्यादा पसंद है. वैसे पसंद तो इन्हें और भी बहुत कुछ है. और शौक के तो कहने ही क्या. दूसरे हैं दादा. वैसे उनका भी असली नाम सूरजभान है. मगर दादा बुलाने में उन्हें थोड़ी फुटानीबाज़ी नज़र आती है. एक दौर ऐसा था जब सूरजभान से बड़ा डॉन पूरे बिहार में कोई नहीं था. यूपी का सबसे कुख्यात डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला तक जरूरत पड़ने पर सूरजभान से मदद मांगता था. 

हालांकि अपने जुर्मी कारनामों के चलते अयोग्य ठहराए जाने की वजह से सूरजभान खुद चुनाव नहीं लड़ पा रहे तो उसने पत्नी को अपने नाम पर मैदान में उतार दिया है. ठीक वैसे ही जैसे पिछले चुनाव में इसी जुर्मी वजह से अयोग्य ठहराए जाने के चलते अनंत सिंह ने अपनी पत्नी को चुनावी मैदान में उतारा और अपने दम पर जितवा भी दिया था. यानी इस बार चुनाव में तो मुकाबला अनंत सिंह और सूरजभान की पत्नी के बीच है, लेकिन असल मुकाबला दो फुटानीबाजों यानी बाहुबलियों के बीच है. अब दोनों ही फुटानीबाज़ हैं तो जाहिर है मुकाबले छोड़िए बराबरी का भी मुकाबला कहां मानने वाले हैं.

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अब मोकामा हॉट सीट है और मुकाबले में दो बाहुबली हैं तो कुछ तो होना ही था. उम्मीद के मुताबिक चुनाव में पहली लाश इसी मोकामा में गिरी. लाश एक तीसरे बाहुबली की थी. दूसरों को पीएम और सीएम बनाने वाले प्रशांत किशोर की पार्टी के उम्मीदवार के समर्थन में निकले बाहुबली दुलारचंद यादव को उस वक्त गोली मारने के बाद गाड़ी के पहिए के नीचे कुचल दिया गया, जब मौके पर खुद अनंत सिंह मौजूद थे. दुलारचंद और अनंत सिंह की दुश्मननी 90 के दशक से चली आ रही है. कत्ल का सीधा इलजाम अनंत सिंह पर ही लगा. पुलिस ने नामज़द एफआईआर भी लिखी. लेकिन दिक्कत ये थी कि एक तो आरोपी अनंत सिंह ऊपर से बिहार की मौजूदा नीतीश सरकार के उम्मीदवार पकड़ें कि या ना पकड़ें. दो दिन तक सरकर और पुलिस यही सोचती रही. फिर बड़ी मुश्किल से पटना पुलिस दलबल के साथ छोटे सकार के घर पहुंची. मान-मनव्वल के साथ अनंत सिंह को पटना लाई. फिर आधी रात के बाद एलान हुआ कि अनंत सिंह गिरफ्तार कर लिए गए.

पर इससे क्या फर्क पड़ने वाला था. जो फुटानीबाज़ जेल में रह कर या खुद अयोग्य करार देने पर पत्नी तक को चुनाव जितवा कर निकल जाए उसके लिए ये सब पुरानी बात है. वैसे भी पिछले 25 सालों से अनंत सिंह को मोकामा में कोई हरा ही नहीं पाया है. ये अलग बात है कि अनंत सिंह अपनी दहशत को मोकामा की जनता का प्यार कहते हैं. गिरफ्तारी के बाद दहशत में लपेट कर उसी प्यार का हवाला देकर सोशल मीडिया पर लिख डाला कि अब चूंकि वो सरकारी मेहमान हैं तो उनका चुनाव मोकामा की जनता लड़ेगी.

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पोस्ट से याद आया कि बिहार की राजनीति में गुंडों, माफियाओं और फुटानीबाजों की हैसियत क्या है? इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस पोस्टर में अनंत सिंह जैसे क्रिमिनल की तस्वीर लगी है उसके ठीक ऊपर देश और राज्य के बड़े-बड़े नताओं की भी तस्वीरें है. ठीक इसी तरह सूरजभान की पत्नी के साथ भी पोस्टर में हमारे आली जनाबों के फोटो लगे हैं. बाकी क्या रोना... बिहार की राजनीति और अपराधियों के गठजोड़पर बस इतने में ही आंसू पोंछ लीजिए कि अनंत सिंह को खुद बिहार की सरकार ने अपना उम्मीदवार बनाया है तो सूरज भान की पत्नी  को उन तेजस्वी यादव की पार्टी ने जो अगली सरकार बनाने के लिए जी जान लगाए हुए हैं. यानी क्या सत्ता पक्ष और क्या विपक्ष फुटानीबाजों और बाहुबलियों के लिए सबने अपनी बांहें पसार रखी हैं. यहां कायदे से हमाम में सब नंगे हैं.

बिहार की हालत देख कर कई बार तो बिहार पुलिस और उनके आला अफसरों पर भी तरस आता है. जिन क्रिमिनल को पकड़ कर ये जेल तक पहुंचातें हैं, उन्हीं क्रिमिनल को नेता और पार्टी चुनाव जितवा कर इतना ताकतवर बना देते हैं कि प्रोटोकॉल के नाम पर कई बार खुद पुलिसवालों को उनको सैल्यूट करना पड़ता है. उनके क्राइम तक को अनदेखा करना पड़ता है. नेता बनते ही मानों इन फुटानीबाजों को लूट-खसोट का भी ठेका मिल जाता है. कहते हैं कि इस वक्त बिहार में जितने भी टॉप के बाहुबली या फुटानीबाज़ हैं, उनकी मिल्कियत करोड़ों में है. कुछ तो करोड़ की सेंचुरी और डबल सेंचुरी भी मार चुके हैं.

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1980 तक ऐसा था मोकामा
आखिर मोकामा फुटानीबाज़ों का गढ़ कैसे बन गया? क्य़ों मकामा से पिछले 25 सालों में वो शऱीफ उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया? क्योंकि यहां हमेशा बाहुबलियं का ही राज रहा? तो ये समझने के लिए मोकामा की कहानी समझना ज़रूरी है. 1980 तक मोकामा बिल्कुल ठीक और शांत हुआ करता था. मोकामा सुबह रेल इंजन की सीटी और कारखानों के धुएं से जागता था. रेलवे यार्ड की रौनक थी. फैक्ट्री की चहल-पहल थी और गंगा किनारे के टाल इलाके में दलहन की हरियाली लहराया करती थी. तब मोकामा की पहचान उद्योग नगरी के तौर पर थी. मेहनत की खुशबू और उम्मीद की हवा में डूबा हुआ था तब मोकामा. लेकिन जैसे ही यहां राजनीति ने अपराध का दामन थामा मोकामा की फिजाओं में बारूद की गंध घुल गई.

80 के दशक में अपराध ने धीरे-धीरे इस इलाके की बागडोर अपने गंदे हाथों में ले ली. गंगा के टाल इलाके की जमीन सिर्फ खेती की नहीं रहीं. वो वर्चस्व की जंग का मैदान बन गईं. इन्हीं गलियों से एक नया नाम उभरा अनंत सिंह. और इसके साथ ही मोकामा का चेहरा भी बदल गया. जहां कभी खेतों में दाल की फसलें लहलहाती थीं. वहां अब हथियार लहराने लगे थे. हर साल गोलीबारी की सैकड़ों-हजारों वारदातें होती थी और मोकामा की मिट्टी बार-बार लाल होती जाती थी.

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जब बाकी बिहार राजनीति की भाषा सीख रहा था, मोकामा ने गोलिों से अपनी सियासी जुबान लिखी। यहां का इतिहास सिर्फ तारीखों से नहीं, खून से लिखा गया। सत्ता की कुर्सी हो या जमीन की जिद, हर लड़ाई में बंदूकें बोलती थीं और बदले की आग में कई घर जलते रहे कई घर उज़़ते रहे. अनंत सिंह, सूरजभान, सोनू-मोनू और टाल, चार नाम, चार चेहरे. लेकिन कहानी एक ही. दबदबा, डर और दौलत की. और यही मोकामा की हमेशा से बदनसीबी रही.

अनंत सिंह 90 के दशक में गुंडई के बल पर राजनीति में पहुंचा और सीधे विधायक बन गया. कभी जेडीयू तो कभी राजद. हर पार्टी में उसकी मौजूदगी रही. लेकिन पहचान हमेशा एक ही बनी रही फुटानीबाज़ डॉन की. जुर्म की डिक्शनरी में दर्ज ज्यादातर क्रइम उसके सिर पर हैं, फिर भी फुटानीबाज़ी में कोई कमी नहीं. घर से AK-47 भी निकली. सजा भी हुई. लेकिन फिर जेल से बाहर आ गया. उसका जेल आना-जाना भी लगा रहता है.

अब दुलारचंद यादव मर्डर केस में अनंत सिंह की गिरफ्तारी हुई है. उन दुलारचंद यादव की भी मोकामा में गंगा किनारे बसे टाल इलाके में दशकों से दहशत थी. 80 के दशक से ही वो इस इलाके के ‘अघोषित राजा' थे. कई जुर्म में पकड़े गए जेल गए फिर बाहर आ गए. 75 पार साल दुलारचंद खुलेआम अनंत सिंह को ललकारते थे। 30 अक्तूबर को जिस वक्त दुलारचंद की हत्या हुई तब भी वो अनंत सिंह के खिलाफ खड़े हुए जनसुराज पार्टी के उम्मीदवार के समर्थन में ऐलानिया चुनावी प्रचार पर निकले थे.

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वैसे मोकामा के बाहर बिहार के बाहुबलियों में हाल के वक्त में एक बड़ा बदलाव आया है. नेताओं की तरह अब फुटानीबोजों ने भी अपनी विरासत अपने बच्चों को सौंपना शुरू कर दिया है. परिवारवाद के विस्तार की परंपरा अब सिर्फ नेताओं तक ही नहीं रही बल्कि बाहूबलियों ने भी ये हुनर सीख लिया है. क्या कीजिएगा सत्ता और ताकत चीज़ ऐसी है जो छोड़े नहीं छूटती। शायद बिहार के चुनावी इतिहास में ऐसा पहल बार है जब एक साथ इतनी बड़ी तादद में बाहूबलियों ने अपने  बच्चों या पत्नियों को चुनावी मैदान में उतार दिया है। जबकि कुछ ऐसे हैं जिन्हें अगले चुनाव के तैयार किया जा रहा है।

अनंत सिंह के जुड़वां बेटे हैं. अभिषेक सिंह और अंकित सिंह. हालांकि दोनों ने पिता की काली दुनिया की परछाई से दूर दिल्ली में रह कर पॉलिटिकिल साइंस की पढ़ाई की है. अनंत सिंह के करीबी जानकार की मानें तो शायद अनंत सिंह अगला चुनाव ना लड़ पाएं. हाल में ही उनका ऑपरेशन भी हुआ है. तो परिवार की परंपरा के तहत अगल आने वाले चुनावों में इन दोनों में से कोई चुनावी मैदान में नजर आऐ जाए तो हैरान होने की जरूरत नहीं.

खैर ये दोनों जब चुनााव लड़ेंगे तब लड़ेंगे, मगर मोहम्मद शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा ने तो इस बार अपने पिता की विरासत भी संभाल ली. कोरोना में शहाबुद्दीन की तिहाड़ में रहते हुए मौत हो गई थी. सिवान के इस डॉन की राजनीतिक विरासत अब उसके बेटे ओसामा शहाब ने संभाल ली है. ओसामा सिवान में रघगुनाथपुर सीट से आरजेडी यानी लालू की पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं. ये ओसामा का पहला चुनाव है. ये चुनाव काफी हद तक ये तय करेगा कि शबाहुद्दीन की मौत के बाद क्या सिवान से शहाबुद्दीन परिवार की सियासी विरासत आगे बढ़ेगी या इस पर ब्रेक लग जाएगा.

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अब बात आनंद मोहन सिंह की. एक ज़माने में बिहार में उसकी तूती बोला करती थी. 1994 में गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैया की हत्या के जुर्म में उसे उम्र कैद की सजा भी मिली. लेकिन मेहरबानी बिहार सरकार की, जिसने अपने ही एक डीएम के कत्ल के मुजरिम को जेल में उसके अच्छे चाल-चलन का सर्टिफिकेट देते हुए साल 2023 में रिहा कर दिया. रिहाई भी ऐसी कि आनंद मोहन के लिए नीतीश सरकार ने जेल के नियम तक बदल तक डाले. 94 में डीएम के कत्ल से साल भर पहले ही 1993 में आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्स पार्टी बनाई थी. बाहुबल के सहारे चुनाव जीता. लोकसभा तक की सैर कर आए. बाद में पत्नी लवली आनंद भी सांसद बनीं.

अब आनंद मोहन ने भी अपनी राजनीतिक विरासत अपने बड़े बेटे चेतन आनंद को सौंप दी है. औरंगाबाद के नवनीतनगर से चेतन नीतीश बाबू की पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. इससे पहले चेतन आनंद 2020 में भी विधानसभा चुनाव जीत कर विधानसभा का दर्शन कर चुके हैं. तब वो लालू की पार्टी से शिवहर सीट से चुनाव लड़ कर जीते थे. पर इस बार इलाका बदल दिया है और पार्टी भी. 2020 में चेतन बिना आनंद मोहन के ही चुनाव जीत गए थे. क्योंकि तब आंनद मोहन जेल में थे. पर इस बार आज़ाद आनंद मोहन बेटे के साथ खड़े हैं.

बिहार के चर्चित डॉन में से एक है मुन्ना शुक्ला. इन पर एक मंत्री और डीएम के कत्ल का इलज़ाम था. इल्ज़ाम साबित हुआ तो उम्र कैद की सजा भी मिली. पर फिर अचानक बिहार हाई कोर्ट ने मुन्ना शुक्ला को बरी कर दिया. जिस पर हंगामा मचा. साल 2024 में सुपीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का फैसला पलटते हुए मुन्ना शुक्ला की उम्र कैद की सजा बरकरार रखी. तीन बार विधायक रहा है ये डॉन. जलवा ऐसा कि जेल से ही चुनाव जीत जाते थे. अब इन्हें लगा कि एक तो उम्र कैद में है ऊपर से उम्र बढ़ रही है, लिहाज़ा इन्होंने भी इस बार अपनी विरासत अपनी बेटी को सौंप दी.

इस बार मुन्ना शुक्ला की बेटी शिवानी शुक्ला चुनावी मैदान में हैं. शिनावी लालगंज सीट से आरजेड़ी की उम्मीदवार हैं. शिवानी ने अपने पिता की कानूनी लड़ाई में मदद करने के लिए ही वकालत की पढ़ाई की. उन्होंने लंदन के लीड्स यूनिवर्सिटी से LLM किया है.

प्रभुनाथ सिंह तीन बार लोकसभा और दो बार विधानसभा चुनाव जीत चुके एक बड़े नेता और उससे भी बड़े बाहुबली हैं. उनका कद एक वक्त में राष्ट्रीय नेता के तौर पर काफी बड़ा हो चुका था. नीतीश बाबू की पार्टी का ये एक बड़ा चेहरा हुआ करते थे. पर बाहुबली के दौर के इनके कारनामे इनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे. प्रभुनाथ सिंह पर 95 के चुनाव में दो लोगों के कत्ल के साथ-साथ एक विधाय़क के कत्ल का भी इलजाम था. पटना हाई कोर्ट ने तो उन्हें बरी दिया था. मगर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें गुनहगार माना और ये अब उम्र कैद की सजा काट रहे हैं. यानी जेल में हैं. 

अब ज़ाहिर है इतनी लंबी राजनीतिक ज़िंदगी को उसे यूंही कैसे छोड़ दें. लिहाज़ा, इस बार के चुनाव में इन्होंने भी अपनी विरासत अपने बेटे को सौंप दी. प्रभुनाथ सिंह के बेटे रंधीर सिंह को उसी नीतीष बाबू की पार्टी ने मांझी विधानसभा सीट से उम्मीदवार बना दिया है. इतना ही नहीं प्रभुनाथ सिंह के भाई केदारनाथ सिंह भी इस बार चुनाीवी मैदान में हैं. केदारनाथ सिंह को बीजेपी ने टिकट दिया है बनियानपुर सीट से.

नवादा के वारिसलीगंज में भी कहानी कुछ अलग नहीं है. यहां से बाहुबली अखिलेश सरदार अपनी पत्नी को चुनाव लड़वा रहे हैं तो वहीं दूसरे बाहुबलिअशोक महतो ने भी अपनी पत्नी को चटुनावी मैदान मं उतार दिया है। अशोक महतो 2001 में हुए नवादा जेल ब्रेक कांड में 17 साल की सजा काट चुके हैं. दो साल पहले 2023 में ही जेल से छूटे हैं. अब चूंकि नियम के तहत सजायाफ्ता कैदी रिहाई के बाद छह साल तक चुनाव नहीं लड़ सकता तो पत्नी को आगे कर दिया. यहां भी दोनों बाहुबली को टिकट देने वाली पार्टी बीजेपी और आरजेडी है.

भोजपुर जिले के तरारी और ब्रह्मपुर सीट पर भी बाहुबलियों की विरासत दिखाई दे रही है. यहां सुनील पांडे ने अपने बेटे विशाल प्रशांत को तरारी सीट से बीजेपी का टिकट दिला दिया तो वहीं भाई हुला पांडे को ब्रह्मपुर से एलजेपी का टिकट मिला. सुनील पांडेय की गिनती बिहार के बाहुबली नेताओं में होती रही है. उन पर 23 आपराधिक मामले दर्ज थे. जिनमें अपहरण, लूट, हत्या की साजिश जैसे गंभीर मामले शामिल थे. साल 2008 में आरा की अदालत ने डॉक्टर रमेश चन्द्रा अपहरण केस में उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई थी. लेकिन बाद में हाईकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया था.

बेगुसराय के मटिहानी सीट पर भी बाहुबलियों का आमना-सामना है. इसी मटिहानी सीट में वो रचियाही गांव आता है, जहां 57 के चुनाव में देश में बूथ कैप्चरिंग की पहली घटना हुई थी. यहां से जदयू के टिकट पर बाहूबलि कामदेव सिंह के बेटे राजकुमार सिंह चुनाव मैदान में हैं तो वहीं दूसरी तरफ राजद के टिकट पर बोगो सिंह चुनाव लड़ रहे हैं.

बाकी फुटानीबाज़ों के बच्चों और बीवियों के अलावा खुद फुटानीबाज़ तो खैर मैदान में हैं ही. 14 नवंबर को इन सभी की किस्मत का फैसला भी हो जाएगा. गारंटी है कि इनमें से कानून के बहुत सारे दुश्मन एक बार फिर उस विधानसभा में होंगे जहां इन्हीं जैसे लोगों के लिए कई कानून बनते और बनाए जाते हैं.  लोकतंत्र भले ही जीतेगा मगर बिहार इन्हीं फुटानीबजों की वजह से एक फिर शर्मिंदा होगा. 1957 का वो दाग़ आज 68 साल बाद 2025 भी नहीं धुल पाएगा. अफसोस. 

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