संगीत की विधा में अगर सुर प्रधान हैं तो उतने ही जरूरी हैं ताल. तालों की प्राचीनता का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि उनकी उत्पत्ति सुरों के साथ ही हुई होगी. संगीत की परिभाषा देते हुए आचार्य हरिश्चंद्र श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक 'राग परिचय' में लिखा है कि, संगीत शब्द, गायन-वादन और नृत्य तीनों के ही सुमेल से आया है. यह संगत शब्द का विशुद्ध स्वरूप है. संगीत रत्नाकर ग्रंथ भी कहता है कि 'गीत वाद्यं तथा नृत्यं त्रयो संगीत मुच्यते' यानि की गीत (गायन), वादन, नृत्य ये तीनों ही मिलकर संगीत की रचना करते हैं.
पुराण कथाएं कहती हैं कि ताल की उत्पत्ति शिवजी के डमरू से हुई होगी. इसी आधार पर कई ताल के कई अन्य वाद्ययंत्रों का आविष्कार भी हुआ होगा. पहला ताल वाद्य कौन सा रहा होगा, ऐसा कहना मुश्किल हैं, लेकिन संगीत के प्राचीन ग्रंथों में एक वाद्य का जिक्र आता है, जिसे त्रिपुष्कर नाम दिया गया है.
त्रिपुर का विनाश और महादेव का क्रोध
कहते हैं कि शिवजी ने जब त्रिपुरासुर का अंत किया तो बहुत क्रोध में होने के कारण शिवजी भयंकर नृत्य करने लगे. इस नृत्य में न लय थी और न ही ताल. उनके पैरों की बिगड़ी थाप से धरती डगमगाने लगी और रसातल में जाने लगी. तब ब्रह्मा जी ने तीनों राक्षसों की मिट्टी हो चुकी देह को मिलाकर एक वाद्य यंत्र का निर्माण किया. इसमें एक हिस्सा चौड़ा था, दूसरा पतला और तीसरा गोद में रखकर बजाए जाने वाला. उन्होंने इस ताल वाद्य को श्रीगणेश को सौंपा और उनसे इस विघ्न को दूर करने के लिए कहा. गणेश जी ने इस वाद्य को बजाना शुरू किया और सबसे पहले शिवजी के पदचापों को इस पर आधारित किया.

गणेश जी ने सबसे पहले बजाया था त्रिपुष्कर
गणेशजी का वादन इतना मंत्रमुग्ध करने वाला था कि महादेव अपना क्रोध भूल गए और ताल के साथ पदताल मिलाते हुए नृत्य करने लगे. तब गणेश जी ने बड़ी सावधानी से नृत्य की गति को धीमा करते गए और ताल के सम स्थान पर नृत्य को रोका. इस तरह धरती असमय प्रलय के संकट से बच गई.
इस कथा को सबसे प्राचीन छंद आधारित वाद्ययंत्र त्रिपुष्कर का आविष्कार माना गया है. आज त्रिपुष्कर बिल्कुल लुप्त हो चुका है, बल्कि 11वीं सदी के बाद से इसका जिक्र किसी चलन में नहीं मिलता है. भरत मुनि के नाट्य शास्त्र और अन्य प्राचीन कलात्मक ग्रंथों में इस वाद्ययंत्र का न सिर्फ जिक्र मिलता है, बल्कि इसकी पूरी पद्धति का भी विवरण दर्ज है.
शैलचित्रों में दिखता है त्रिपुष्कर
इसके अलावा 6वीं सदी से 9वीं सदी के कुछ प्राचीन पत्थरों पर उकेरी गई कालकृतियों में ही त्रिपुष्कर के दर्शन होते हैं, लेकिन ये बहुत स्पष्ट नहीं है. लिखित में भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में 'त्रिपुष्कर' वाद्य के बारे में जानकारी मिलती है, जिसमें मृदंग को एक प्रकार का पुष्कर वाद्य ही कहा गया है. भरत मुनि ने मृदंग को द्विपुष्कर कहा है, जिसमें इसके दो मुख हुआ करते थे, जिन पर चोट करके (ताल देकर) लय निकाली जाती थी. मिट्टी से बने होने के कारण ही इसे मृदंग और संस्कृत में मृदंगम कहा गया. दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा में मृदंग सबसे प्रमुख और सबसे प्राचीन ताल वाद्य है, जिसकी थाप और लय अभी भी जीवंत बनी हुई है.
सभी तालवाद्यों का पितामह है त्रिपुष्कर
लेकिन, फिर भी त्रिपुष्कर वाद्य यंत्र एक अलग ही ख्याति और महत्व लिए हुए रहा है. इस प्राचीन वाद्य यंत्र का ताल की दुनिया में वही स्थान है, जो सृष्टि में ब्रह्माजी का. क्योंकि जिस तरह ब्रह्म देव ने सृष्टि की रचना की है, त्रिपुष्कर ऐसा प्राचीन वाद्य यंत्र है, जो तमाम आघात करके बजाए जाने वाले पुराने से पुराने और आधुनिक-अत्याधुनिक वाद्ययंत्रों का पहला स्वरूप है. दक्षिण भारत के संगीत में सबसे अधिक प्रसिद्धि पाया मृदंगम भी इसी त्रिपुष्कर से ही जन्मा माना जाता है.
शास्त्रों में त्रिपुष्कर वाद्ययंत्रों में शामिल करने और इसके उत्कृष्ट रूप को सामने लाने में एक महर्षि स्वाति का नाम आता है. कहते हैं कि महर्षि स्वाति मुनि ने पुष्कर वाद्य की रचना की, जिसके तीन मुख्य भाग थे
आंकिक
उद्धर्वक
आलिंग्य
त्रिपुष्कर वाद्य को आधार मानकर समय-समय पर नए अवनद्ध वाद्यों का विकास किया गया. कहते हैं कि एक बार स्वाति ऋषि जब जलाशय में स्नान कर रहे थे, तब कमल के पत्तों पर वर्षा की बूंदों से उत्पन्न संगीतमय ध्वनि ने उन्हें आकर्षित किया. इस ध्वनि से प्रेरित होकर उन्होंने पुष्कर वाद्य की कल्पना की. समय के साथ त्रिपुष्कर की लोकप्रियता घट गई और इसकी जगह मृदंग ने ले ली.

कैसे हुआ त्रिपुष्कर पर शोध और कैसे हुआ निर्माण?
त्रिपुष्कर की खासियत को ऐसे समझिए कि यह पहला ऐसा वाद्ययंत्र था, जिसके तीन अंग और चार मुख हुआ करते थे. आज जितने भी प्रकार के अवनद्ध तालवाद्य दिखाई दे रहे हैं, त्रिपुष्कर सभी का पूर्वज है. साल 2018 में भातखंडे संस्कृति विश्वविद्यालय लखनऊ में शिक्षक सारंग पांडेय ने कई वर्षों की कठिन मेहनत और शोध-रिसर्च के बाद त्रिपुष्कर के स्वरूप को ढलवाया और उसका अनावरण भी कराया था. जिससे यह खोया हुआ वाद्ययंत्र फिर से जीवंत हो उठा.
सरकार से भी मिली है मान्यता
सारंग पांडेय बताते हैं कि त्रिपुष्कर देश व विदेश के सभी अनबद्ध वाद्य का पितामह है. वह कहते हैं कि, त्रिपुष्कर वाद्ययंत्र को एक समय में पंडित शारंग देव ने अव्यवहारिक बताते हुए अपने शास्त्र संगीत रत्नाकर में उसका वर्णन नहीं किया था. भातखंडे संगीत विद्यालय (लखनऊ) में शिक्षक और तबला कलाकार सारंग पांडेय ने ही इसका फिर से निर्माण किया, और केंद्र सरकार से मान्यता भी दिला दी. साल 2019 में ही उनके बनाए वाद्ययंत्र को सबसे प्राचीन वाद्ययंत्र के तौर पर मान्यता मिल चुकी है.
कैसे हुआ त्रिपुष्कर का निर्माण?
बारहवीं-तेरहवीं सदी में लिखी गई संगीत रत्नाकर (जो की संगीत की सबसे प्रामाणिक और प्राचीन पुस्तक है) पुस्तक में त्रिपुष्कर को अयोग्य व बहुत ही जटिल बताया था. भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में त्रिपुष्कर का विस्तार से वर्णन मिलता है. सारंग पांडेय की मानें तो त्रिपुष्कर को तैयार करने में काफी शोध व मेहनत करनी पड़ी. इसके लिए कई महीने तक देश के कई हिस्सों में जाकर इसकी जानकारी जुटाई. शैलचित्रों और प्राचीन विवरणों से जानकारियां इकट्ठी कीं और इस आधार पर एक कुम्हार की मदद से 35-35 किलो के तीन हिस्से बनाए गए. इनमें एक जवाकृति, दूसरा गोपुच्छाकृति और तीसरा हरितिकी आकार का है. इसमें जवाकृति मतलब जौ के दाने की जैसी संरचना, गोपुच्छाकृति यानी गाय की पूंछ जैसी आकृति और तीसरा हरितिकी यानी हरण की आकृति से है. इस तरह सारंग पांडेय ने मिट्टी के 105 किलो के वाद्ययंत्र का निर्माण कराया था.
मिट्टी के त्रिपुष्कर के सामने आ जाने के बाद, शैलचित्रों और प्राचीन पुस्तकों में दर्ज त्रिपुष्कर की एक आधारभूत संरचना सामने आ गई थी और इसे जब बजाने की कोशिश हुई तो वैसी ही ध्वनि निकली, जैसी की तब रही होगी, जब यह वाद्य अपने उपयोग की पूर्ण चरम पर रहा होगा. यहां इस विवरण को देते हुए आचार्य सारंग पांडेय खास जोर देकर कहते हैं कि त्रिपुष्कर को ताल वाद्य कहना अधूरी बात है, यह पूरा सच नहीं है, क्योंकि त्रिपुष्कर ताल वाद्य नहीं था. क्योंकि तालों आज जैसा स्वरूप है तब वैसा नहीं था.
पिंगल मुनि के छंद शास्त्र से ही ताल निकले हैं तो इस बात की अधिक गहराई में न जाते हुए यह समझिए कि त्रिपुष्कर ताल वाद्य नहीं, छंद वाद्य था. आज त्रिपुष्कर आचार्य सारंग पांडेय के शोध के कारण अपने संरचनात्मक स्वरूप में सबके सामने है. उन्होंने न सिर्फ इसका निर्माण कराया बल्कि इस वाद्ययंत्र को बजाया भी. इस तरह तकरीबन 2500 से 3000 साल पुराना एक वाद्ययंत्र जीवंत हो उठा है.