
जिंगल बेल्स, जो क्रिसमस का सबसे प्रसिद्ध गीत है, पहली बार 1850 में मेडफ़ोर्ड, मैसाचुसेट्स में प्रस्तुत किया गया था. इसे जेम्स लॉर्ड पियरपॉन्ट ने लिखा था और 1857 में 'वन हॉर्स ओपन स्लेज' के नाम से प्रकाशित किया गया.

एक बाउल को देखकर पहली बार में कोई भी कह सकता है कि ये सिर्फ संगीत साधक हैं. सिर्फ संगीत, गाना, समाज में होते हुए भी समाज से अलग रहना ही इनका जीवन और इनके जीवन का मकसद है. पर अगर आप उनके होने के मायने को समझेंगे तो लगेगा कि ये सिर्फ संगीत के लिए नहीं या सिर्फ संगीत के साधक नहीं है.

धुरंधर फिल्म में शामिल 65 साल पुरानी कव्वाली 'न तो कारवां की तलाश है' ने संगीत प्रेमियों का दिल जीत लिया है. यह कव्वाली 1960 की फिल्म 'बरसात की रात' की है, जिसे रोशन ने संगीतबद्ध किया था और जिसमें मन्ना डे, मोहम्मद रफी, आशा भोंसले जैसे महान गायकों ने आवाज दी थी.

राज्यसभा में वंदे मातरम् को लेकर हुई बहस में बीजेपी सांसद डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल ने कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर का जिक्र किया. उन्होंने 1923 के काकीनाडा अधिवेशन का हवाला देते हुए बताया कि कांग्रेस अध्यक्ष मोहम्मद अली जौहर ने पलुस्कर को वंदे मातरम् गाने से रोका था, जबकि पलुस्कर ने विरोध स्वरूप पूरा गीत गाया.

कव्वाली का अपना नशा है और अपना मज़ा है, नई पीढ़ी के लिए भले ही ये आउटडेटेड हो लेकिन अभी भी ऐसे मिलेनियल्स की फौज है जो सिर्फ कव्वाली भरोसे अपने संगीत के सफर को आगे बढ़ा रही है. कव्वाली के इसी सफर के अज़ीज़ मियां उस्ताद हैं, 6 दिसंबर को उनकी बरसी होती है और हम उन्हें याद कर रहे हैं.

दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में आयोजित 'तुका म्हणे काये कबिरा' सांस्कृतिक संध्या में प्रसिद्ध कर्नाटक वोकलिस्ट रंजनी-गायत्री और गायक भुवनेश कोमकली ने संत तुकाराम और कबीर की भक्ति परंपराओं को संगीत के माध्यम से जीवंत किया.