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कश्मीर: संतों की भूमि से गुम हो गए संतूर, पहाड़ के गीत... गोलियों से छलनी धरती की ये जन्नत

आज कश्मीर में चीड़-देवदार और अखरोट के पेड़ों की सनसनाती हवा की आवाज दब गई है और रोती-कलपती चीखें फिजा में शोर बन कर गूंज रही हैं, क्योंकि घाटी में संतूर खामोश हैं, सूफी दरवेशों की आवाजें बंद हैं और वैदिक ऋचाओं को गाने वाले ऋषियों -संतों को पहले ही चुप करा दिया गया है.

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जानें कैसे बदल गई कश्मीर की फिजा.
जानें कैसे बदल गई कश्मीर की फिजा.

आज कश्मीर में चीड़-देवदार और अखरोट के पेड़ों की सनसनाती हवा की आवाज दब गई है और रोती-कलपती चीखें फिजा में शोर बन कर गूंज रही हैं, क्योंकि घाटी में संतूर खामोश हैं, सूफी दरवेशों की आवाजें बंद हैं और वैदिक ऋचाओं को गाने वाले ऋषियों -संतों को पहले ही चुप करा दिया गया है.

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साल 2018 में फिल्म आई थी राजी. आलिया भट्ट अभिनीत इस फिल्म में एक बहुत प्यारा और मर्म भरा गीत है 'मुड़ के न देखो दिलबरो' पूरा गीत हिंदी में है, लेकिन इसकी शुरुआती चार पंक्तियां कश्मीरी में हैं. इन्हें देखिए...

ब छसे खान मज कूर
द्यु मे रुखसात म्यान बोय जानो
ब छसे खान मज कूर
द्यु मे रुखसात म्यान बोय जानो
ब छसे खान मज कूर

(मैं तुम्हारी प्यारी बेटी हूं, तुम्हारी गोदी और इस फिजा में खेलीं हूं, अब तुम मुझे विदा कर दोगे? अच्छा ठीक है, लेकिन तुम रोना मत बाबा)

ये चार लाइनें शायद उस कश्मीरी गीत से ली गई होंगी, जिनमें शादी के बाद बेटी की विदाई का दृश्य रचा गया है. गुलजार ने इसी को आधार बनाते हुए आगे की पंक्तियां लिखीं,
उंगली पकड़ के तूने
चलना सिखाया था ना
दहलीज़ ऊंची है ये पार करा दे
बाबा मैं तेरी मलिका
टुकड़ा हूं तेरे दिल का
इक बार फिर से दहलीज़ पार करा दे

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ये है कश्मीर की असली तासीर... कितनी मौन, कितनी ठोस और यहां पड़ने वाली बर्फ की तरह रुई के फाहों की मानिंद नाजुक, नर्म और ठंडी.  जब इस तासीर की बात होती है तो याद आ जाती हैं पद्नमश्री पद्मा सचदेव और उनकी डोगरी कविताएं और गीत.  देखिए न, पद्मा कितने प्यारे शब्दों में अपने बाबुल से क्या-क्या मनुहार कर रही हैं...

बाबल मिगी सद्दी भेज्यो जी।
बाबल मेरी मुघ्घनी रेही गेई जी,
मुघ्घनी इच्च रक्खड़ी दे पैसे,
मुघ्घनी इच्च टिक्के दे पैसे,
मुघ्घनी इच्च केयी साईआं,
बाबल मिग्गी.....॥

बाबल मेरी गुड्डी रेही गेई जी,
गुड्डी मेरी माऊ बनाई,
भाबी ने चित्तरी-बनकाई,
गुड्डी करै घमाईआं,
बाबल मिग्गी......॥

बाबुल, तूने तो मेरी विदाई कर दी और भूल ही गया जैसे, अब जल्दी-जल्दी बुलवा भी लो
बाबूजी, बेटी अब ससुराल वाली हो गई है, मुझे राखी पर ही बुला लो,
मुझे चूड़ियां दिला दो
माथे की टीकली (बिंदी) दिला दो
और इस बहाने मेरी कई इच्छाएं हैं
जैसे तुम्हें देखने की, वहां घूमने की
जहां आकर मैं फिर से वही गुड़िया बन जाऊं
क्योंकि यहां तो मैं मां बन गई, भाभी बन गई
पर फिर से बिटिया बन जाना है मुझे

ये सारी बातें उसी कश्मीर की हैं और उन्हीं खूबसूरत वादियों से निकली हैं, जहां आज हरी घास की रंगत पर लाल छींटें पड़े हैं. जहां चीड़-देवदार और अखरोट के पेड़ों की सनसनाती हवा की आवाज दब गई है और रोती-कलपती चीखें फिजा में शोर बन कर गूंज रही हैं, क्योंकि घाटी में संतूर खामोश हैं, सूफी दरवेशों की आवाजें बंद हैं और वैदिक ऋचाओं को गाने वाले ऋषियों -संतों को पहले ही चुप करा दिया गया है. कुल मिलाकर, कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को आग के हवाले कर दिया गया है, और इसके झंडाबरदारों को खाक में मिला दिया गया.

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न तो ये आतंक का आलम एक दिन में बना है और न ही यहां इल्म की रोशनी एक दिन में बुझी है, बल्कि कश्मीर में सभ्यता और संस्कृति की बसावट, उनकी रिहाइश तो इतनी पुरानी है कि सिंधु घाटी जैसी पुरानी सभ्यता भी उसके आगे कुछ नई सी लगती है.

कश्मीर के इतिहास का ब्योरा दो प्राचीन ग्रंथों में मिलता है. एक तो है 12वीं सदी में कल्हण की लिखी 'राजतरंगिणी' और इससे भी प्राचीन एक और डॉक्यूमेंट है, नीलमत पुराण. 18 पुराणों में नीलमत पुराण भले ही शामिल नहीं है, लेकिन आर्यावर्त और जंबूद्वीप का शीर्ष हिस्सा रहे कश्मीर का क्या पौराणिक महत्व है, इसका पता इस प्राचीन पुस्तक से मिलता है. महर्षि कश्यप के ही एक पुत्र नील ने इस पुराण को लिखा था और इसी में दर्ज एक कथा में ऐसा जिक्र मिलता है कि, सुरम्य पर्वतीय इलाके में सृष्टि की शुरुआत में ही एक बड़ी झील थी, सतीसरस. इस सतीसरस झील में ही एक राक्षस जलोद्भव. जल में ही जन्म होने के कारण इस राक्षस का वध जल में संभव नहीं था.

इसे जल से बाहर निकालना मुश्किल था. ऐसे में ऋशि कश्यप ने युक्ति लगाई और सतीसरस का जल ही विस्थापित कर दिया. उन्होंने इस झील का जल एक वाराह की सहायता से दूसरी ओर निकलवा दिया और वह स्थान वाराहमू्ल्वा कहलाया, जिसे आज बारामूला के नाम से जानते हैं. इसी सतीसरस झील के सूखने से वहां हरी-भरी घाटी का विशाल मैदान निकल आया. देवताओं ने युद्ध कर राक्षस का अंत कर दिया और सतीसरस के सूखने से बने मैदान में ही कश्मीर घाटी का विकास हुआ. इस तरह यह स्थल प्राचीन संस्कृतियों के पलने और फलने-फूलने के लिए गोद की तरह बन गया.

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फिर यहां वेद गूंजे, शास्त्र रचे गए, ऋचाएं गाईं गईं, मंत्र उच्चारित किए गए और पूजा-पद्धति, होम की एक समृद्ध परंपरा के साथ यहां सांस्कृतिक गतिविधियों का, कलाओं का विकास हुआ. कश्मीर घाटी, प्राचीन काल में इन मुनि परंपरा का केंद्र रही थी और इसे 'ऋषियों की भूमि' कहा गया, जहां से निकलकर वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार हुआ. ऋग्वेद में ही पहली बार 'राष्ट्र' शब्द भी आता है. प्राचीन ग्रंथों और पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि यहां वैदिक यज्ञों की भी समृद्ध परंपरा थी. यज्ञों में अग्नि की पूजा और मंत्रोच्चारण के माध्यम से मुनियों ने समाज में नैतिकता और आध्यात्मिकता का प्रसार किया. कश्मीर के शारदा पीठ जैसे प्राचीन केंद्र वैदिक शिक्षा और दर्शन के प्रमुख स्थल थे, जहां ऋत्विज मुनियों ने अपनी विद्या का प्रसार किया.

इसी तरह जम्मू-कश्मीर की भूमि प्राचीन सभ्यताओं का भी गवाह रही है. कश्मीर घाटी के बाढ़ के मैदानों में सबसे शुरुआती नवपाषाण स्थल लगभग 3000 ईसा पूर्व के हैं. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण स्थल बुर्जहोम की बस्तियां हैं , जिनमें दो नवपाषाण और एक मेगालिथिक समय के चिह्न मिलते हैं. बुर्जहोम में लगभग 2920 ईसा पूर्व के मिट्टी से प्लास्टर किए गए गड्ढे वाले आवास, मोटे मिट्टी के बर्तन और पत्थर के औजार भी मिले हैं. इसके बाद अगला चरण जो लगभग 1700 ईसा पूर्व तक रहा था, इसमें घरों को जमीनी स्तर पर बनाया गया था और मृतकों को दफनाया गया था. इन दफ्न स्थलों में पालतू और जंगली जानवर भी मिलते हैं. बुर्जहोम से गेहूं, जौ और दाल की खेती के प्रमाण भी मिले हैं.

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इन स्थलों से मिले साक्ष्य यह भी बताते हैं कि कश्मीर की प्राचीन सभ्यता न केवल कृषि और शिल्पकला में उन्नत थी, बल्कि व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी सक्रिय थी. ये सभ्यताएं वैदिक संस्कृति के साथ जुड़ी हुई थीं, और यहां के लोग अग्नि पूजा और अन्य वैदिक अनुष्ठानों में विश्वास रखते थे.

यही सभ्यता जब और आगे बढ़ती है तो यहां अग्नि पूजा के साथ सूर्य पूजा के भी चिह्न मिलते हैं. मार्तंड मंदिर जो देश के प्राचीन सूर्य मंदिरों में से एक है, और जिसका जिक्र कल्हण की राजतंरगिणी में भी मिलता है, इसके खंडहर बताते हैं कि कश्मीरी चेतना और आत्मा के सोर्स को समझते थे. वह सूर्य को जीवन की आधार भूत शक्ति के तौर पर पहचानते थे और उसे अच्छी फसल, अच्छी वर्षा और अच्छे जीवन के लिए जरूरी मानते थे, लिहाजा इसीलिए सूर्य की पूजा करते थे.

कश्मीर में अग्नि पूजा की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. यज्ञ और हवन के माध्यम से अग्नि को जीवन का आधार और शुद्धिकरण का प्रतीक माना जाता है. कश्मीर के मंदिरों और धार्मिक स्थलों पर अग्नि पूजा आज भी प्रचलित है. मार्तंड सूर्य मंदिर, जो अनंतनाग जिले में स्थित है, कश्मीर की धार्मिक और स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है. यह मंदिर 8वीं शताब्दी में राजा ललितादित्य मुक्तपीड़ा द्वारा बनवाया गया था और सूर्य देव को समर्पित है. मार्तंड मंदिर का स्थापत्य भारतीय मंदिर निर्माण कला का एक अनुपम उदाहरण है, जिसमें ग्रीक, रोमन और भारतीय शैलियों का समन्वय देखा जा सकता है. यह मंदिर न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है.

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हालांकि मंदिर आज खंडहर के रूप में है, फिर भी इसकी भव्यता और स्थापत्य कला पर्यटकों और इतिहासकारों को आकर्षित करती है. मार्तंड मंदिर कश्मीर की उस प्राचीन सभ्यता का प्रतीक है, जो ज्ञान, कला और धर्म का केंद्र थी.

सूर्य की इसी पूजा के बाद जब अद्वैत का कॉन्सेप्ट आया तो शैवमत कश्मीर की तासीर के साथ कदमताल कर सका. इस दर्शन में शिव को सर्वोच्च चेतना के रूप में देखा जाता है, जो सृष्टि का स्रोत और संचालक है, पौराणिक कथाओं ने ऐसी मान्यताओं को बल दिया और कश्मीर शैव मत के साथ शिवपूजन का प्रतीक बन गया. अमरनाथ गुफा, इसी कश्मीर में है, और शिव भक्ति का एक प्रमुख केंद्र है. कश्मीर के अन्य शिव मंदिर, जैसे शंकराचार्य मंदिर और खीर भवानी मंदिर, भी इस क्षेत्र की धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाते हैं. शिव की लीला केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है. कश्मीरी कला, संगीत और साहित्य में भी शिव का प्रभाव देखा जा सकता है. कश्मीरी कवियों और संतों ने अपनी रचनाओं में शिव की महिमा का गुणगान किया है, जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है.

संस्कृति का पिटारा रहा कश्मीर समय के साथ कदमताल करने वाला सबसे समृद्ध और प्रसिद्ध राज्य रहा है. संतों की इस भूमि पर जब इस्लाम के चरण पड़े तो यहां की फिजाओं में सूफी सुर बहने लगे. इस सूफी परंपरा की दो बड़ी खास आवाज हैं एक तो हैं संत राबिया और दूसरी संत लल्लेश्वरी. संत राबिया एक सूफी संत थीं, जिन्होंने प्रेम और भक्ति के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताया. उनकी शिक्षाएं सूफी दर्शन का आधार बनीं, जो कश्मीर में हिंदू और इस्लामी परंपराओं के बीच एक सेतु का काम करती थीं. राबिया का जीवन सादगी और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक था.

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वह कहती हैं
न जन्नत चाहिदी है न दोज़ख़, सिर्फ प्रेम चाहिदा है.
हद तपे तो औलिया, बेहद तपे सो पीर,
हद बेहद दोऊ तपे, वाको नाम फकीर.

टूटे घड़े में पानी पीने वाली और चटाई पर लेटते हुए ईंट का तकिया लगाने वाली सूफी संत राबिया कहती थीं, , “ऐ खुदा, अगर मैं नरक के डर से इबादत करूं तो मुझे नरक की आग में ही जलाते रहना और अगर जन्नत की चाह देखकर इबादत करूं तो मुझे वो भी न मिलने देना.'

कश्मीर की ये सूफी सन् 717 में क्या कह रही थी, कोई आज तक समझ नहीं पाया. उसकी सूफियाना ताकत, उसकी सच्ची इबादत उसके साथ ही चली गई लेकिन घाटी में उसकी निशानियां मौजूद रहीं. राबिया नहीं हैं, लेकिन उनका सूफी इश्क जिंदा है.  

ऐसी ही थीं संत लल्लेश्वरी, जिन्हें 'लल देद' के नाम से जाना गया. 14वीं शताब्दी में कश्मीर को अपनी 'वाख' के रंग से रंगने वाली लल्लेश्वरी कश्मीरी साहित्य और शैव दर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. उनकी ये प्रसिद्ध वाख देखिए...
"शिव च्यु थाय बट्टस प्यठ,
न तमस न मस न ज़र।
च्युंदस मनस कर तमस,
तमस तमस सुय यार।"

इसका अर्थ है कि शिव हर जगह व्याप्त हैं, वे न तो अंधेरे में हैं, न ही प्रकाश में, न ही किसी भौतिक रूप में. मनुष्य को अपने मन को शुद्ध करना चाहिए, तभी वह ईश्वर को पा सकता है.

और अब आता ही कश्मीर की पहचान संतूर, शततंत्री वीणा, सौ तारों वाला वो वाद्ययंत्र जो बजता है तो लगता है कि चीड़ के घने जंगलों के बीच से होता हुआ कोई झरना कल-कल करते हुए बह रहा है. सूफी के बाद संतूर का जिक्र इसलिए, क्योंकि कश्मीर की पहचान बनने वाला ये वाद्ययंत्र लोकसंगीत की परंपरा से ही जन्मा है और सूफी के ही जरिए शास्त्रीय संगीत की विधा के समानांतर आ खड़ा हुआ है. कश्मीर में संतूर का अस्तित्व सूफी रवायत से जुड़ा हुआ है. सूफी और फकीरों के संगीत में संतूर शामिल हुआ. इस तरह लोक परंपरा और सूफी परंपरा ने संतूर को बनाया और आगे बढ़ाया.

सूफी रवायतों ने जब हिंदुस्तान की सरजमीं पर कदम रखा तो उनके रवायती नदी में ही हिलोरें लेता संगीत भी कई तारों पर तैरता हुआ भारत में संवरता गया. संतूर इसी परंपरा का वाहक बना. अखरोट की चौखट पर बांधा गया एक चौकोर डिब्बे जैसा बाजा, जिसमें शीशम की खूंटियां 100 तारों को ताने रहती हैं. दुंबा की हड्डियों के घुड़च और इनसे तान कर इस पिटारी को जवारी दी जाती है और आखिरी में शीशम की दो डंडियों से पड़ती हल्की-हल्की चोट तारों से सुरीली ध्वनियां पैदा होती हैं. ऐसे बजता है संतूर.

इस संतूर को साधा था कश्मीरी पंडित शिवकुमार शर्मा ने, जिन्होंने पहाड़ों और घाटी से निकालकर इस वाद्ययंत्र की सुरीली आवाज को मैदानों तक पहुंचाया और सागर पार भी ले गए. पांच साल की नन्हीं उम्र से जो उन्होंने संतूर से दोस्ती की तो उन्होंने इस दोस्ती को जीवनपर्यंत निभाया. पंडित शिवकुमार शर्मा अब नहीं हैं, लेकिन संतूर एक विरासत के तौर पर घाटी के पास मौजूद है, लेकिन उसकी सुरीली आवाज गुम है.

सिर्फ संतूर ही क्यों, गुम तो है कश्मीर में पहाड़ के गीत, बंद हैं सूफी वाख और नहीं सुनाई दे रही झरनों की कलकल... इतनी समृद्ध परंपरा वाली घाटी में सिर्फ गोलियों की तड़तड़हाट गूंज रही है.

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