रक्सौल बाहरी व्यक्ति के लिए अभी भी एक सामान्य चेकपोस्ट जैसा ही दिख सकता है, जहां वर्दीधारी लोग कानून और व्यवस्था की देखरेख करते हैं. रक्सौल-बीरगंज एक अंतरराष्ट्रीय सीमा भी है. ये दोनों शहर आज भी जुड़वां शहरों की तरह हैं. यहां लोगों की आवाजाही पूरी तरह से मुक्त है, यहां तक कि ऑटो-रिक्शा और घोड़ा गाड़ी यानी टांगा रक्सौल जंक्शन से बीरगंज तक ऐसे
यात्रियों को लाते-लेजाते हैं जैसे किसी एक ही शहर के भीतर सफर हो रहा हो.
यहां मुद्रा का रंग मायने नहीं रखता, मूल्य रखता है, क्योंकि भारतीय और नेपाली दोनों रुपये स्वीकार किए जाते हैं और चलन में भी हैं. यहां सीमा का कोई ठोस एहसास नहीं होता. रक्सौल और बीरगंज आज भी एक बड़ा संयुक्त शहर हो सकते थे, अगर ब्रिटिश साम्राज्य की तिब्बत तक व्यापार मार्ग खोजने की महत्वाकांक्षा न होती और उसके चलते 1814 से 1816 तक चले 14 महीने लंबे एंग्लो-नेपाल युद्ध ने इन्हें अलग न कर दिया होता. इस युद्ध में अंततः शक्तिशाली ब्रिटिश जीत गए और चूंकि यह युद्ध उनके लिए तिब्बत व्यापार के आकर्षण से अधिक महंगा साबित हो रहा था, उन्होंने एक संधि की पेशकश की. 1816 की सुगौली संधि ने नेपाल और ब्रिटिश भारत के बीच की सीमा निर्धारित की. रक्सौल भारत का हिस्सा बन गया और इसकी रणनीतिक स्थिति ने इसे भारत और नेपाल के बीच माल और लोगों की आवाजाही का प्रवेश द्वार बना दिया.
रक्सौल को पहले फलेजरगंज के नाम से जाना जाता था. यह ज्ञात नहीं है कि फलेजरगंज कब और क्यों रक्सौल बन गया.
रक्सौल, जो पूर्वी चंपारण जिले का एक अनुमंडल है लेकिन पश्चिम चंपारण लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है, भारत और नेपाल के बीच संबंधों में अहम भूमिका निभाता है, क्योंकि भारत और नेपाल के बीच अधिकांश निर्यात और आयात यहीं से होते हैं. इसका कारण यह है कि यहां से एक सड़क गुजरती है जो भारत के प्रमुख शहरों को नेपाली राजधानी काठमांडू से जोड़ती है. सीमा के खुल्लेपन के कारण अवैध व्यापार, वैध निर्यात-आयात की तुलना में अधिक प्रचलित है.
1951 में स्थापित रक्सौल विधानसभा क्षेत्र ने स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव 1952 से मतदान शुरू किया. अब तक हुए 17 चुनावों में यह क्षेत्र कांग्रेस के गढ़ से बीजेपी के किले में तब्दील हो चुका है. 1967 को छोड़कर, जब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने रक्सौल सीट जीती थी, कांग्रेस ने 1952 से 1985 के बीच नौ में से आठ चुनावों में जीत दर्ज की, इसके बाद जनता दल ने 1990 और 1995 में यह सीट जीती.
2000 से शुरू होकर बीजेपी ने यह सीट लगातार छह बार जीती, जिनमें से पांच बार अजय कुमार सिंह ने जीत दर्ज की. 2020 में बीजेपी ने सिंह को टिकट नहीं दिया और उनकी जगह प्रमोद कुमार सिन्हा को टिकट दिया, जो जनता दल (यूनाइटेड) से आए थे. विरोध के बावजूद सिन्हा ने 36,932 मतों के भारी अंतर से जीत हासिल की. इससे यह साबित हुआ कि बीजेपी यह सीट किसी व्यक्ति विशेष की लोकप्रियता के कारण नहीं, बल्कि इसलिए जीत रही थी क्योंकि रक्सौल की जनता नरेंद्र मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले ही इस पार्टी से जुड़ चुकी थी.
पश्चिम या पूर्वी चंपारण लोकसभा क्षेत्र 2008 में परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया. रक्सौल इसमें आने वाले छह विधानसभा क्षेत्रों में से एक है. यदि कोई अप्रत्याशित घटना न हो, तो बीजेपी के पास रक्सौल विधानसभा सीट बरकरार रखने के पूरे कारण हैं, क्योंकि पार्टी न केवल इस सीट पर आगे रही, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम चंपारण के सभी छह विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाई.
रक्सौल में बीजेपी की जीत का अंतर बहुत बड़ा रहा है, जिससे क्षेत्र में उसकी पकड़ मजबूत हुई है. यह बीजेपी के लिए एक उपलब्धि है, क्योंकि इसे आमतौर पर मध्यम वर्ग की पार्टी माना जाता है. रक्सौल में बीजेपी ने यह मिथक तोड़ दिया है. शहरी पार्टी की छवि के बावजूद, बीजेपी ने यहाँ की सीट लगातार जीती है, जबकि यहां 87.25 प्रतिशत मतदाता ग्रामीण क्षेत्र से हैं और केवल 12.75 प्रतिशत मतदाता शहरी हैं.
2020 के विधानसभा चुनाव के अनुसार, रक्सौल विधानसभा क्षेत्र में कुल 2,78,018 पंजीकृत मतदाता थे और मतदान प्रतिशत 64.03 था. 2024 के लोकसभा चुनावों में यह संख्या थोड़ी बढ़कर 2,87,287 हो गई.
(अजय झा)