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पहले अवधेश प्रसाद, अब रामजीलाल सुमन और इंद्रजीत सरोज... मायावती के दलित वोटबैंक में सेंध के लिए अखिलेश के तीन प्रयोग!

समाजवादी पार्टी अब दलित पॉलिटिक्स की पिच पर आक्रामक रणनीति के साथ उतर आई है. पार्टी ने पहले अवधेश प्रसाद के सहारे गैर जाटव वोट पर फोकस किया, अब राणा सांगा विवाद में रामजीलाल सुमन के पीछे खड़े होकर जाटव वोटबैंक पर.

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अखिलेश यादव और मायावती
अखिलेश यादव और मायावती

आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की सियासत में पिछड़ा और दलित पॉलिटिक्स पर क्षेत्रीय दलों का जोर रहा है. अन्य पिछड़ा वर्ग, खासकर यादव और अल्पसंख्यक वोटबैंक समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ रहा तो दलित वोटर्स कांशीराम की बनाई बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ रहे. अब सूबे की सियासत का डाइनेमिक्स बदल रहा है.

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साल 2014 के आम चुनाव के बाद जहां गैर यादव ओबीसी के बीच भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. वहीं, सपा भी यादव-मुस्लिम समीकरण से आगे बढ़ पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) के फॉर्मूले पर आगे बढ़ रही है. पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग में कभी पार्टी की पैठ बहुत मजबूत रही है, ऐसे में पार्टी का फोकस दलित वोट पर है.

मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के कोर वोटर दलित को साथ लाने के लिए सपा प्रयोग पर प्रयोग कर रही है. साल 2021 में शुरू हुई प्रयोगों की श्रृंखला अब दो चेहरों पर आ गए हैं. मायावती के वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए पार्टी ने पहले अवधेश प्रसाद का कद बढ़ाया और अब राणा सांगा विवाद में रामजीलाल सुमन को बैक कर सपा ने यह संदेश दे दिया है कि पार्टी दलित पॉलिटिक्स की पिच पर आक्रामक रणनीति के साथ आगे बढ़ेगी.

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प्रयोगों की फेहरिश्त में एक नाम इंद्रजीत सरोज का भी जुड़ता नजर आ रहा है. इंद्रजीत सरोज के हालिया बयान भी इसी तरफ इशारा माने जा रहे हैं. मायावती के दलित वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए अखिलेश यादव अब ये नए प्रयोग कर रहे हैं.

दलित वोट पर 2021 से सपा का फोकस

सपा ने पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव से पहले पीडीए का नारा दिया था. पार्टी का पीडीए प्रयोग सफल साबित हुआ और वह अपनी स्थापना के बाद से किसी लोकसभा चुनाव में सबसे बेहतर प्रदर्शन करते हुए 37 सीटें जीतकर यूपी की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. 2019 के लोकसभा चुनाव में 62 सीटें जीतने वाली बीजेपी 33 और 10 सीटें जीतने वाली बसपा शून्य पर सिमट गई.

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सपा के 37 में से आठ सांसद दलित वर्ग से हैं. सपा की दलित पॉलिटिक्स को पर भले ही लोकसभा चुनाव नतीजों से लगे हों, इस पिच पर प्रयोगों की शुरुआत यूपी के विधानसभा चुनावों (2022) से एक साल पहले ही हो गई थी. सपा ने दलित मतदाताओं के बीच पैठ बनाने के लिए 2021 में मिठाईलाल भारती की अगुवाई में समाजवादी बाबा साहेब आंबेडकर वाहिनी का गठन किया था. इसके दो साल बाद सपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में संविधान में जरूरी बदलाव कर इसे पार्टी के मोर्चे का दर्जा दे दिया. इसी कार्यकारिणी बैठक में अवधेश प्रसाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव के बगल में बैठे नजर आए थे.

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सपा ने अवधेश प्रसाद को अखिलेश के बगल में कुर्सी दी ही, संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर और बसपा संस्थापक कांशीराम की जयंती भी पूरे प्रदेश में मनाई. संदेशों और प्रतीकों की सियासत का गाढ़ा रंग एक साल बाद हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों में दिखा भी. अवधेश प्रसाद अयोध्या (फैजाबाद) की सामान्य सीट से खुद संसद पहुचे और  21 फीसदी दलित आबादी वाले राज्य में दलितों की पार्टी बसपा का वोट शेयर नौ फीसदी पर सिमट गया.

अब और माइक्रो हुई सपा की रणनीति

दलित वर्ग को देखें तो पिछले कुछ वर्षों में यह जाटव और गैर जाटव में बंटा है. बसपा संस्थापक मायावती खुद भी जाटव समाज से आती हैं. ऐसे में सपा की रणनीति पहले गैर जाटवों को जोड़ने की थी. अब सपा की रणनीति और माइक्रो हो गई है. राणा सांगा विवाद में राजपूत वोटबैंक की चिंता किए बगैर सपा का रामजीलाल सुमन के पीछे खड़े हो जाना हो या बसपा के संस्थापकों में शामिल रहे दादू राम को पार्टी में शामिल कराना, ये इस बात का संकेत माने जा रहे हैं कि पार्टी ने अब मायावती के हार्डकोर वोटर पर फोकस कर दिया है. अखिलेश के ये प्रयोग कितना सफल साबित होते हैं? ये देखने वाली बात होगी. 

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