
हाल ही में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत विरोधियों के निशाने पर इसलिए आ गए क्योंकि उन्होंने गांधीजी के इस दावे को खारिज कर दिया था कि ‘अंग्रेजों के आने से पहले देश एकजुट नहीं था’. इसे मोहन भागवत ने अग्रेजों द्वारा फैलाया गया गलत तथ्य बताया, जैसे आर्यों के बाहरी होने और भारत पर आक्रमण करने की कहानी बताई जाती है. इससे प्रभावित होकर लोकमान्य तिलक ने आर्यों को उत्तरी ध्रुव का निवासी बताकर एक किताब ही लिख डाली थी. ऐसे में आज की पीढ़ी के लिए ये जानना दिलचस्प होगा कि एक सरसंघचालक ऐसे भी थे, जो गांधी को गलत कहने पर दो लड़कों से भिड़ गए थे और उन लड़कों को पीटने के लिए उनके जैसा बलिष्ठ शरीर बने, इसलिए रोज दो घंटे जिम भी करना शुरू कर दिया था.
नेहरू-इंदिरा के घर आते जाते थे रज्जू भैया
यहां संघ के चौथे सरसंघचालक की बात हो रही है, जिनका नाम था प्रोफेसर राजेंद्र सिंह यानी रज्जू भैया. उन दिनों वह इलाहाबाद यूनीवर्सिटी से एमएससी कर रहे थे. चूंकि तब तक देश आजाद नहीं हुआ था, तो बाकी युवाओं की तरह उनके मन में भी देश के लिए कुछ करने की इच्छा थी. कुछ लोग क्रांतिकारियों के समर्थन में थे, तो कुछ कांग्रेस से जुड़े तो नेताजी बोस से जुड़ने वालों की संख्या भी कम नहीं थी. इधर धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नागपुर और फिर महाराष्ट्र के क्षेत्र से निकलकर बाहर के राज्यों में अपने पैर पसार रहा था. इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में रहने के दौरान रज्जू भैया का कांग्रेस की तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक था. क्योंकि लम्बे समय तक वहां कांग्रेस का राष्ट्रीय कार्यालय मोतीलाल नेहरू द्वारा दिए गए आनंद भवन में रहा था. रज्जू भैया का भी ‘आनंद भवन’ आना-जाना था. वहां वो जो भी नेता आते थे, उनसे मिलते थे, उनके विचार सुनते थे. गांधीजी को लेकर उनके मन में बेहद सम्मान था.
ये सम्मान इस हद तक था, कि उनके खिलाफ एक लाइन तक नहीं सुन सकते थे. ऐसा एक वाकया तक हुआ कि दो युवकों ने गांधीजी को गलत बताया और रज्जू भैया उनसे जाकर भिड़ गए. डॉ रतन शारदा ने अपनी किताब ‘द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ रज्जू भैया’ में उनके सालों तक सहायक रहे अमरनाथ के हवाले से ये किस्सा लिखा है. रज्ज् भैया ने खुद उन्हें बताया था कि उस वक्त तो उनका पूऱा ध्यान पढ़ाई में रहता था. नैनीताल से इंटरमीडियट में उनके तीनों विषयों में 75 प्रतिशत से ज्यादा अंक आए थे. उन दिनों इलाहाबाद यूनीवर्सिटी के उप कुलपति थे अमरनाथ झा, जो बोर्ड के मेधावी छात्रों को बधाई का पत्र भेजकर उन्हें अपनी यूनीवर्सिटी में एडमीशन लेने का निमंत्रण देते थे. सो रज्जू भैया भी वहीं पढ़ने आ गए.
गांधी को सही बताने पर रज्जू भैया को पड़े पंच
पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देने के चलते वो अपने शरीर पर ध्यान नहीं दे पाते थे. हलका-फुलका व्यायाम करके काम चला लेते थे. पिछले 4 महीने में बस 1 बार ही यूनीवर्सिटी की जिम में जा पाए थे. उस वक्त उनके कॉलेज में कई एंग्लो इंडियन छात्र भी पढ़ते थे. उनमें से एक कुछ ज्यादा ही तगड़ा था, रोज जिम जाता था. एक दिन क्लास में रज्जू भैया की उससे ही गांधीजी को लेकर तकरार हो गई. उसने कहा था, ‘गांधीजी पूरी तरह से गलत हैं’, जब तक और कोई कुछ सोचता, फौरन रज्जू भैया ने कहा “नहीं, गांधीजी एकदम सही हैं”. उस बलिष्ठ एंग्लो इंडियन लड़के को बहुत बुरा लगा कि कोई अंग्रेजी राज में भी उसके मुंह पर सबके सामने उसकी बात को काट सकता है? उसने फिर कुछ बोला, बदले में रज्जू भैया भी कहां चुप रहने वाले थे, सो माहौल और गरम होता चला गया.
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लेकिन उस बलिष्ठ लड़के को एक भारतीय दुबले पतले लड़के का इस तरह से उसकी बातें काटना अपमान लग रहा था. उसने अचानक गुस्से में आकर रज्जू भैया के चेहरे पर दो पंच जड़ दिए. जाहिर है कमजोर शरीर के स्वामी रज्जू भैया उस वक्त कुछ नहीं कर पाए. लेकिन उन्होंने तय कर लिया कि एक दिन बदला तो लेना है, भले ही वो गांधीजी के लिए एक बलशाली लड़के से भिड़ गए थे, लेकिन गांधीजी के ‘एक गाल पर मारे तो दूसरा आगे कर दो’ वाले फॉर्मूले से सहमत नहीं थे. उन्हें पता था कि बदला लेने के लिए और कोई रास्ता नहीं है, बस एक ही रास्ता है कि किसी भी तरह उसके जैसा बलिष्ठ शरीर बनाया जाए, फिर उसे वैसे ही पंच जड़े जाएं. सो शुरू कर दिया देह को बलवान बनाने का अभियान.
फिर ऐसे लिया बदला
इसके लिए उन्होंने अपने एक मित्र से सलाह ली कि वो क्या रास्ते हें, जिनसे जल्द अपना शरीर बलिष्ठ बनाया जा सकता है. उसने उन्हें कुछ विशेष किस्म की एक्सरसाइज बताईं. उसके बाद तो रोज कम से कम 2 घंटे रज्जू भैया एक्सरसाइज में लगाने लगे. उनकी इतनी मेहनत और समय देखकर उनके पिता ने पूछा भी कि क्या पढाई में मन नहीं लग रहा? लेकिन वो अपने अभियान में जुटे रहे और एक दिन वाकई में उनका शरीर भी बलिष्ठ हो चला था. अपमान जब मन में चुभता है तो आदमी कुछ भी कर सकता है, कभी चाणक्य ने पूरे नंद वंश का विनाश कर दिया था. और जिस दिन के लिए इतनी कवायद महीनों से की जा रही थी, वो दिन आ गया. उस दिन उन्होंने कॉलेज में उस एंग्लो इंडियन लड़के को ललकारा और पंच मारकर उसको नीचे गिरा दिया और ये सारी लड़ाई अहिंसा के पुजारी गांधीजी की तरफदारी के चलते शुरू हुई थी. लेकिन 1942 के आंदोलन में गांधीजी समेत बाकी नेताओं के 6 साल कैद में रहने से कांग्रेस के चाहने वालों का मनोबल टूटने लगा था.

अब देश भर में अराजकता सी थी, कहीं कहीं कोई समूह उत्तेजित होता और जो मन में आए करता, पटरियां उखाड़ता, सरकारी दफ्तर में आग लगा देता या फिर कोई शांतिपूर्ण धरना आदि करता. लेकिन संगठित ढंग से कोई आंदोलन नहीं हो पा रहा था. इन्हीं दिनों में रज्जू भैया का मन कांग्रेस से उचट रहा था क्योंकि इलाहाबाद के ज्यादातर नेता घरों में ही बंद थे. रज्जू भैया इन नेताओं के रवैये से निराश होकर कांग्रेस से अब दूरी बनाना लगे थे.
ऐसे एक ही साथ संघ से जुड़े थे रज्जू भैया और अशोक सिंघल
रज्जू भैया एमएससी कर रहे थे, उन्हीं दिनों उनके सम्पर्क में वहां संघ के विभाग प्रचारक बापूराव मोघे आए और रज्जू भैया के जीवन की दिशा बदलने लगी. उनकी मां उनके साथ ही रहती थीं. अशोक सिंघल और रज्जू भैया के पिता कभी एक साथ ही पढ़े थे, सो दोनों का परिवार एक दूसरे के काफी करीब था. हालांकि उन दिनों अशोक सिंघल 11वीं में पढ़ रहे थे. ऐसे में दोनों की माएं भी अच्छी मित्र थीं, ये दोनों भी आपस में खूब मिलते थे. बाद में रज्जू भैया को संघ की शाखा में रोज जाता देख अशोक सिंघल की मां भी उन्हें साथ साथ भेजने लगी थीं. दोनों की मां नजर रखती थीं कि उनके बेटों के मित्रों में कौन कौन है. जब बापूराव मोघे के सम्पर्क में आकर रज्जू भैया संघ की शाखाओं में जाने लगे तो एक दिन उनका मां को लगा कि उनको भी तो पता चलना चाहिए कि कौन लोग हैं. सो बेटे से आग्रह किया कि उनको कभी घर पर तो लेकर आओ.
सो रज्जू भैया बापूराव मोघे को लेकर घर आ गए, बापूराव उनसे बस पांच छह साल ही बड़े थे. दरअसल मां को ये डर था कि कहीं बेटा कहीं किसी ऐसी संस्था से तो नहीं जुड़ गया है, जो हथियारों आदि का इस्तेमाल करते हों, वैसे भी इलाहाबाद, कानपुर कई साल से क्रांतिकारियों का गढ़ रहे थे. लेकिन जिस तरह रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाकुल्लाह खां जैसे युवाओं को जल्द ही दुनिया से जाना पड़ा था, अब मांओं को डर लगने लगा था. वो अपने बेटों को खोना नहीं चाहती थीं. बापूराव से मिलकर भी उनकी शंका नहीं मिटी, क्योंकि वो भी जवान ही थे.
फिर उन्होंने रज्जू भैया से पूछा क्या तुम्हारी संस्था में कोई बुजुर्ग नहीं है? तो अगली बार वो भाऊसाहब देवरस को लेकर घर पहुंचे गए. लेकिन उनकी उम्र भी उस वक्त कोई खास ज्यादा नहीं थी. सो उनकी मां संतुष्ट नहीं हुईं. ऐसे में रज्जू भैया भी परेशान हो चले थे, एक बार जब बाबासाहब आप्टे प्रयाग प्रवास पर आए तो उन्हें जिद करके अपने घर ले गए. उनके सिर पर एक पगड़ी थी, एक सूती मफलर गले में था और आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा था. मां ने उनसे मिलकर कहा भी था कि, “मुझे खुशी है कि संघ में बड़े बुजुर्ग भी हैं.” उसके बाद तो उनके यहां बुजुर्गों के आने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि गुरु गोलवलकर समेत सारे वरिष्ठ संघ अधिकारी प्रवास पर आते तो उनके यहां जरूर आते. लेकिन उनकी मां को कहां पता था कि जिन दो बच्चों को वो रोज संघ की शाखा में भेजती हैं, एक दिन उनमें से एक संघ का सबसे बड़ा चेहरा और दूसरा विश्व हिंदू परिषद व राम मंदिर आंदोलन का सबसे बड़ा नाम बनेगा.
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