सारण ज़िले की छपरा विधानसभा सीट. कभी लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक प्रयोगशाला रही है.अब करीब दो दशक से बीजेपी के कब्ज़े में है. यह वही इलाका है, जहां से लालू ने राजनीति की शुरुआत की और यहीं से उन्होंने ‘पिछड़ों के सामाजिक न्याय’ का नारा दिया था.
लेकिन 2005 के बाद से समीकरण बदले.नीतीश कुमार और बीजेपी गठबंधन की सामाजिक इंजीनियरिंग ने यादव–राजपूत बहुल इस क्षेत्र में नए सिरे से समीकरण गढ़ दिए. बीजेपी ने वैश्य, भूमिहार, और सवर्ण वोट को मजबूत किया, जबकि नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ा और महिला वोट बैंक अपने पक्ष में किया.
नतीजा यह हुआ कि 2014 से लगातार राजीव प्रताप रूडी सारण लोकसभा सीट से सांसद बने रहे और सी.एन. गुप्ता जैसे उम्मीदवारों ने विधानसभा में भी भगवा झंडा फहराए रखा. पिछले दो दशक में केवल एक बारआरजेडी यहां सिर्फ एक बार (2014 के उपचुनाव में) जीत पाई.
कभी लालू यादव का गढ़ होता था छपरा
कांग्रेस का वर्चस्व खत्म होने के बाद 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के उदय के साथ छपरा एक बार फिर राजनीतिक केंद्र में आ गया. उदित राय ने इस क्षेत्र में राजद के समर्थन से तीन बार जीत दर्ज की और छपरा को ‘लालू का गढ़’ कहा जाने लगा. राजद के प्रभुत्व का दौर लगभग दो दशक तक कायम रहा.
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने वर्ष 1977 में यहीं से पहली बार लोकसभा का चुनाव जीता था. वर्ष 2004 और वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव ने इस सीट से चुनाव लड़ते हुए करीब 60 हजार और 52 हजार वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी. बाद में यह सीट उनके हाथ से ऐसे निकली कि एक बार उनकी पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और एक बार उनकी बेटी रोहिणी आचार्य ने भी चुनाव लड़ा पर जीत नसीब नहीं हुई.
2005 में एनडीए गठबंधन से जदयू प्रत्याशी राम प्रवेश राय ने राजद प्रत्याशी को हराकर यह सीट जीत ली और गठबंधन के दशकों पुराने किले में सेंध लगा दी. इसके बाद 2010 में भाजपा के जनार्दन सिंह सिग्रीवाल ने जीत दर्ज की. वर्ष 2015 से भाजपा के डा.सीएन गुप्ता विधायक है.
2010 में भाजपा के जनार्दन सिंह सिग्रीवाल ने छपरा सीट जीतकर लंबे समय बाद एक नया राजनीतिक अध्याय लिखा. इसके बाद 2015 और 2020 में डा. सीएन गुप्ता की जीत ने भाजपा की जड़ें और गहरी कर दीं. भाजपा को शहरी मतदाताओं और सवर्ण वर्ग का बड़ा समर्थन मिला, वहीं राजद अब भी यादव-मुस्लिम समीकरण पर भरोसा कर रहा है. दोनों खेमों ने संगठनात्मक स्तर पर कमर कस ली है.
खेसारी का स्टार पावर क्या दिखाएगा कमाल?
अब जब आरजेडी ने भोजपुरी सुपरस्टार खेसारी लाल यादव को मैदान में उतारा है, तो सवाल तो उठेगा ही कि, क्या उनका ग्लैमर राजनीतिक जमीन पर वोट में बदलेगा?
खेसारी की लोकप्रियता निर्विवाद है. वह भोजपुरी सिनेमा के सबसे बड़े स्टार हैं, जिनका फैनबेस बिहार–पूर्वी यूपी के युवाओं, खासकर प्रवासी मजदूरों में जबरदस्त है. उनके गाने, डायलॉग और ‘ग्रामीण संघर्ष से सफलता’ की कहानी जनता के दिल में उतर चुकी है.
लेकिन राजनीति और फिल्मों की सफलता अलग होती है.पर आरजेडी को उम्मीद है कि खेसारी की लोकप्रियता के चलते उन्हें जाति ऊपर उठकर लोग वोट देंगे. उनके कैंपेन लॉन्च पर 200 लीटर दूध से अभिषेक और 5 लाख के सिक्कों की वर्षा हुई. जो बिल्कुल फिल्मी सीन जैसा था.
एक्स पर एक यूजर लिखता है कि उनके एफिडेविट को 52,000 डाउनलोड मिले, जो उनकी पॉपुलैरिटी को दिखाता है. जाहिर है कि अगर उनको देखने के लिए जुटने वाली भीड़ अगर उन्हें वोट भी दे तो उन्हें कोई भी चुनाव में नहीं हरा पाएगा.
जातीय समीकरण बीजेपी के पक्ष में
हिंदुस्तान में छपी एक खबर की मानें तो छपरा विधानसभा में 90 हजार बनिया, 50 हजार राजपूत, 45 हजार यादव, 39 हजार मुस्लिम, करीब 22 हजार अन्य मतदाता है. 1965 से 2014 तक यहां से राजपूत या यादव विधायक ही चुने जाते रहे हैं.पर इस बार बीजेपी ने एक बनिया उम्मीदवार छोटी कुमारी पर दांव लगाया है. पर बीजेपी की नेता रह चुकी राखी गुप्ता ने बागी उम्मीदवार के तौर पर पर्चा दाखिला किया है. जाहिर है कि बीजेपी का कुछ वोट तो कटेगा ही.
पर बीजेपी का पारंपरिक आधार वैश्य और सवर्ण समुदाय में मजबूत है. इसलिए उम्मीद की जाती है कि छपरा में बीजेपी उम्मीदवार को हराने में खेसारी को मुश्किल आएगी. इस बार दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी ने अपने पुराने विधायक सी.एन. गुप्ता को टिकट नहीं दिया, बल्कि नई प्रत्याशी छोटी कुमारी को उतारा है जो वैश्य समुदाय से हैं. यह बदलाव एंटी-इंकम्बेंसी का संकेत है, लेकिन वैश्य वोटर पारंपरिक रूप से बीजेपी के साथ रहते आए हैं, इसलिए पार्टी को एकजुट करने में कठिनाई नहीं होगी. आरजेडी को यादव–मुस्लिम वोट मिलते हैं, लेकिन जीत के लिए उसे अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) और दलित मतदाताओं की भी ज़रूरत होगी.
खेसारी यादव के लिए चुनौती, सभी भोजपुरी सुपर स्टार अपना पहला चुनाव हार चुके हैं
इंडियन एक्सप्रेस लिखता है कि स्थानीय लोग कह रहे हैं, बीजेपी विधायक को पांच साल में देखा तक नहीं,पर वही लोग यह भी जोड़ते हैं कि सरकार चलाना फिल्म बनाने जैसा नहीं. यानी खेसारी की लोकप्रियता को ‘राजनीतिक भरोसे’ में बदलना आसान नहीं है.
खेसारी के रोड शो में जबरदस्त भीड़ उमड़ रही है. बच्चे, महिलाएं, मजदूर सब उन्हें देखने के लिए काम छोड़ रहे हैं.
यह भीड़ उत्साह की है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह वोट में बदले.
ऐसे कई उदाहरण हैं जब स्टार उम्मीदवार भीड़ तो खींच पाए, लेकिन सीट नहीं जीत पाए. जैसे रवि किशन ने पहली बार कांग्रेस से 2014 में जौनपुर चुनाव लड़ा था और चुनाव हार गए थे. इतना ही नहीं दूसरे सभी भोजपुरी स्टार भी अपना पहला चुनाव हार चुके हैं. निरहुआ आजमगढ़ से, मनोज तिवारी गोरखपुर से और अभी पिछले साल ही काराकाट लोकसभा चुनाव लड़ चुके सुपर स्टार पवन सिंह भी अपना पहला चुनाव हार चुके हैं.