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चिराग क्या अपने पिता राम विलास पासवान के बनाए खांचे से बाहर निकलना चाहते हैं?

रामविलास पासवान अगर देश का राजनीतिक मौसम भांपने में उस्ताद थे तो उनके पुत्र चिराग पासवान भी उनसे 2 कदम आगे हैं. चिराग समझ रहे हैं कि देश की राजनीति में आज किसी खास वर्ग के नेता बनकर ज्यादा दिन सर्वाइव नहीं कर सकते हैं.

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चिराग पासवान लड़ सकते हैं विधानसभा चुनाव
चिराग पासवान लड़ सकते हैं विधानसभा चुनाव

केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय  मंत्री  रामविलास पासवान के बेटे, निश्चित रूप से अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. रामविलास पासवान बिहार और भारतीय राजनीति के एक दिग्गज दलित नेता थे, जिन्हें राजनीतिक मौसम वैज्ञानिक की उपमा मिली हुई थी. रामविलास पासवान विभिन्न सरकारों में छह अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के कैबिनेट में मंत्री रहे और गठबंधनों को बदलने में माहिर थे.

जाहिर है कि एक लायक पुत्र से उम्मीद की जाती है कि वह अपने पिता के पदचिह्नों पर चलने का प्रयास करेगा. चिराग की राजनीतिक यात्रा और महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए लगता तो यही है कि वो अपने पिता रामविलास के खड़ाऊं को पूरी तरह अंगीकार कर चुके हैं. पर जिस तरह उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ रही हैं और जिस तरह की राजनीति वो कर रहे हैं, उससे यही लगता है कि वह अपने पिता के बनाए खांचे को तोड़ने के लिए छटपटा रहे हैं. पिछले कुछ दिनों में चिराग के राजनीतिक कदम इस बात की गवाही दे रहे हैं कि वो अपने पिता के साये से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं. चिराग का हर कदम बताता है कि वो अपने पिता से कोसों आगे निकल जाना चाहते हैं. 

1. पिता-पुत्र की राजनीतिक शैली कितनी अलग

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रामविलास पासवान बिहार के दुसाध (पासवान) समुदाय के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे, और उन्होंने दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए सामाजिक न्याय की वकालत की. उन्होंने 1983 में दलित सेना की स्थापना की और मंडल आयोग की सिफारिशों का समर्थन किया. पासवान ने समय-समय पर विभिन्न दलों और गठबंधनों (सोशलिस्ट पार्टी, लोकदल, जनता दल, एनडीए, यूपीए) में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी. पासवान ने अपने भाइयों (पशुपति कुमार पारस, रामचंद्र पासवान) और बेटे चिराग को राजनीति में लाकर एक पारिवारिक गढ़ बनाया. 2019 के लोकसभा चुनाव में एलजेपी ने छह सीटें जीतीं, जिनमें से तीन परिवार के ही सदस्य थे.

दूसरी तरफ चिराग की 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' पहल, आशीर्वाद यात्रा, और सोशल मीडिया (विशेष रूप से एक्स) पर उनकी सक्रियता उन्हें युवा मतदाताओं और नई पीढ़ी से जोड़ती हैं. उनकी बॉलीवुड पृष्ठभूमि (2011 की फिल्म मिले ना मिले हम) और आधुनिक अंदाज रामविलास की पारंपरिक, जमीनी और गठबंधन-केंद्रित शैली से अलग है.

रामविलास का आधार मुख्य रूप से पासवान समुदाय (बिहार में अनुसूचित जाति की लगभग 6% आबादी) और कुछ हद तक मुस्लिम व अन्य पिछड़े वर्गों तक सीमित था. चिराग ने मुस्लिम समुदाय से नाराजगी को स्वीकार करते हुए सामाजिक न्याय की व्यापक बात की और गैर-पासवान दलितों, युवाओं, और अन्य समुदायों को जोड़ने की कोशिश की है.

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चिराग पासवान के लिए अपने पिता रामविलास पासवान के खांचे से बाहर निकलने की कोशिश कई मायनों में फायदेमंद भी हो सकती है. रामविलास पासवान बिहार और राष्ट्रीय स्तर पर एक दिग्गज दलित नेता थे, जिनकी राजनीतिक गठबंधन की कुशलता, दलित वोट बैंक (विशेष रूप से पासवान समुदाय), और केंद्र में सत्ता के करीब रहने की रणनीति पर आधारित थी. चिराग अपनी स्वतंत्र पहचान बनाकर और पिता की पारंपरिक शैली से हटकर कई रणनीतिक और दीर्घकालिक लाभ हासिल कर सकते हैं. 

2. स्वतंत्र और दीर्घकालिक नेतृत्व की स्थापना

रामविलास पासवान की दलित नेता की छवि के कारण चिराग को शुरू से ही एक खांचे में बंध गए हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), ने बिहार में अपने हिस्से की सभी पांच सीटें जीतीं, जिसमें हाजीपुर (रामविलास पासवान की परंपरागत सीट) पर चिराग की 1.7 लाख वोटों से जीत भी शामिल है. यह सफलता उनकी स्वतंत्र नेतृत्व क्षमता को दर्शाती है. पर चिराग अब इससे आगे बढ़ना चाहते हैं. इसके लिए जाहिर है कि उन्हें अपने पिता के खांचे से बाहर निकलना होगा.

चिराग देख रहे हैं कि उनकी लोकप्रियता के चलते दूसरी जातियों के युवा भी उन्हें सपोर्ट कर रहे हैं. इसके साथ ही राम विलास पासवान की पहचान एक राजनीतिक मौसम विज्ञानी के रूप में बन गई थी. जो किसी भी दल के साथ मौका देखकर पार्टी अपने सिद्धांतों से समझौता कर लेते थे. जिसके चलते वो अपने 6 से 7 परसेंट वोट से कभी आगे नहीं बढ़ सके. हालांकि देश में रामविलास पासवान अपने समय में इकलौते नेता थे जिन्हें सवर्णों में भी पसंद किया जाता था. पर चिराग उससे भी आगे निकलना चाहते हैं. चिराग समझते हैं कि आज के दौर में अगर स्वतंत्र और लंबी राजनीतिक पारी खेलनी है तो किसी विशेष वर्ग की राजनीति से ऊपर से उठना होगा.

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3. बिहार में बड़ा सियासी दांव खेलने का मौका

चिराग पासवान ने 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जदयू के खिलाफ बगावत कर जदयू की सीटें 71 से घटाकर 43 कर दीं. यह कदम रामविलास की सतर्क और गठबंधन-केंद्रित शैली से अलग था, जो केंद्र में सत्ता के करीब रहने को प्राथमिकता देते थे. विश्लेषकों का दावा है कि चिराग 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के दावेदार बनना चाहते हैं, खासकर नीतीश कुमार की उम्र और स्वास्थ्य को लेकर चर्चाओं के बीच.

चिराग जानते हैं कि बिहार में लालू-नीतीश और रामविलास पासवान के बाद कौन के सवालों में आज भी उलझा हुआ है. बिहार में कोई ऐसा नेतृत्व नहीं उभर रहा है जिसकी चर्चा देश भर में हो. बीजेपी हो या दूसरी पार्टियां, सभी के नेता स्थानीय कद वाले ही हैं. चिराग की कोशिश है कि वो पूरे बिहार में एक विकल्प बनकर उभरें. नीतीश के विकल्प के रूप में उभरने से चिराग बिहार में एनडीए के भीतर अपनी स्थिति मजबूत कर सकते हैं, और बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री जैसे बड़े पद तक भी पहुंच सकते हैं. इसके लिए जरूरी होगा कि वो अपने पिता के बनाए हुए खांचे से बाहर निकलें.

4. अपने पिता से अलग चिराग सामान्य सीट से चुनाव लड़ सकते हैं

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माना जा रहा है कि चिराग पासवान बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने वाले हैं. यह भी कहा जा रहा है कि वो किसी आरक्षित सीट के बजाय सामान्य सीट से बिहार विधानसभा चुनाव लड़ेंगे. जबकि उनके पिता हमेशा आरक्षित सीट से ही चुनाव लड़ते रहे. सामान्य सीट पर चुनाव लड़ने की चर्चा केवल हवा हवाई नहीं है. ये उनकी पार्टी के प्रस्ताव, उनके जीजा और सांसद अरुण भारती के बयानों, और हाल की खबरों से स्पष्ट हो रहा है. यह रणनीति उनकी उस महत्वाकांक्षा का हिस्सा है, जिसमें वे केवल पासवान या दलित नेता नहीं, बल्कि पूरे बिहार के नेता के रूप में उभरना चाहते हैं. सामान्य सीट से लड़ने से उन्हें गैर-पासवान युवा और अन्य समुदायों में लोकप्रियता, मुख्यमंत्री पद की दावेदारी, और एनडीए में मजबूत स्थिति का लाभ मिल सकता है. 
 

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