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भारतीय संविधान में रहे या नहीं पर ऐ 'समाजवाद' तेरे नाम पर रोना आया

देश में समाजवाद के नाम पर बने सभी कानूनों को खत्म किया जा चुका है, पर चुनाव जीतने के लिए देश में गरीबोन्मुख योजनाएं पर इतना पैसा खर्च हो रहा है जितना कभी इंदिरा और नेहरू के दौर में भी नहीं हुआ. मतलब समाजवाद शब्द से केवल परहेज है, नीतियों से नहीं. यानी शराब वही है बस बोतल बदल दी गई है.

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पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और नरसिम्हा राव ने देश को नई दिशा दी.
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और नरसिम्हा राव ने देश को नई दिशा दी.

देश में इस समय समाजवाद पर चर्चा गरम हो गई है. कारण है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाह यानी महासचिव दत्तात्रेय होसबाले का एक बयान जिसमें उन्होंने कहा है कि संविधान को धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद से छुटकारा पा लेना चाहिए. देश में यह आम धारणा है कि संघ जो सोचता है भारतीय  जनता पार्टी उस पर जरूर एक्शन लेती है. भारत के संविधान में समाजवादी (socialist) शब्द इमरजेंसी के दौरान 1975 में 42वें संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया था. हालांकि, उस दौरान संविधान के मूलभूत अधिकार ही लोगों के पास नहीं थे, लेकिन इमरजेंसी की अलोकप्रियता से बचने के लिए सरकार ने अपनी कदम को इस रूप में पेश किया जैसे कि इसका उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक समानता, संसाधनों का समान वितरण, और कल्याणकारी राज्य की स्थापना को बढ़ावा देना है.

हालांकि आजादी मिलने के बाद दुनिया के सबसे बड़े समाजवादियों में से एक जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने और संविधान निर्माण में भी उनकी महती भूमिका थी पर उन्होंने इस शब्द से पर्याप्त दूरी बनाए रखी. जाहिर है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद नेहरू के नेतृत्व में देश का विकास समाजवादी तरीके से हुआ. राष्ट्रपिता गांधी के विपरीत नेहरू को समाजवाद से विशेष लगाव था. देश में बड़ी सरकारी कंपनियों के स्थापना के प्रति झुकाव में उनका समाजवाद के प्रति लगाव स्पष्ट दिखता था.  

इंदिरा गांधी ने भी देश की बागडोर संभालने के बाद समाजवादी रास्ते पर ही देश को चलाने में भलाई समझी. इमरजेंसी के दौरान उन्होंने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए शायद धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को संविधान के प्रस्तावना में जुड़वा दिया. इंदिरा गांधी वैश्विक समाजवादी आंदोलनों, विशेष रूप से सोवियत मॉडल से अभिभूत थीं. लेकिन ज्यादा दिन नहीं लगा जब वैश्वीकरण, उदारीकरण, और सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों ने समाजवाद की प्रासंगिकता को ही खत्म कर दिया.

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आज स्थिति यह है कि देश में समाजवाद के नाम पर बने सभी कानूनों को खत्म किया जा चुका है, पर चुनाव जीतने के लिए देश में गरीबोन्मुख योजनाएं पर इतना पैसा खर्च हो रहा है जितना कभी इंदिरा और नेहरू के दौर में भी नहीं हुआ. मतलब समाजवाद शब्द से केवल परहेज है, नीतियों से नहीं. यानि शराब वही है बस बोतल बदल दी गई है.

ऐ समाजवाद तेरे नाम पर रोना आया

आज देश में जिन लोगों ने 70 के दशक में जन्म लिया होगा वो मिड एज में होंगे. यह दशक एक ऐसे दौर की गवाही है जब देश घोर समाजवादी कानूनों के दायरे में जकड़ा हुआ था. देश की इकॉनमी 2 से 3 प्रतिशत के ग्रोथ में झूल रही थी. समाजवादी सपनों को पूरा करने के लिए देश की सरकारों के पास पैसा ही नहीं था. क्योंकि बिना पूंजी के विकास के यह कैसे संभव होता कि देश के गरीबों के लिए मुफ्तखोरी वाली स्कीमों को लागू किया जा सके.

स्कूटर और सीमेंट खरीदने के लिए लाइसेंस और परमिट लेनी होती थी. चीनी और मिट्टी के तेल पर राशनिंग थी. यानि कि एक परिवार 2 किलो से अधिक चीनी नहीं खऱीद सकता था. इसी तरह मिट्टी का तेल का आवंटन भी निर्धारित था. सरकारी नौकरियां थी नहीं और प्राइवेट सेक्टर था ही नहीं रोजगार के लिए.

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पकौड़े का दुकान खोलकर भी परिवार चलाना मुश्किल था. जीवन प्रत्याशा 50 से भी कम था. न प्राइवेट हास्पिटलों का विकास हुआ था  न ही प्राइवेट स्कूल और कॉलेज खुल सके थे. 1991 आते आते देश की अर्थव्यवस्था की जो हालत हुई वो सबके सामने था. एक महीने के लिए भी जरूरी विदेशी मुद्रा देश के पास नहीं बची थी. सोना गिरवी रखकर किसी तरह देश चल रहा था.

उसी दौर में सामने आए नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह. राजीव गांधी की हत्या होने के बाद राव पीएम बने और मनमोहन वित्त मंत्री . इन दोनों की जोड़ी ने देश में उदारवादी अर्थव्यवस्था की जो नींव डाली उसी का नतीजा है कि आज देश विश्व की सबसे बड़ी चौथी अर्थव्यवस्था बन सका है. बहुत जल्दी ही हम विश्व की तीसरी सहसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाले हैं. 

नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने समाजवादी कानूनों को खत्म करने में सबसे आगे रहे

भारत में 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने समाजवादी नीतियों को कमजोर करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा.तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने इन सुधारों के जरिए भारत की अर्थव्यवस्था को समाजवादी ढांचे से निकाल कर बाजारोन्मुख और वैश्वीकृत मॉडल की ओर ले आए. जाहिर है कि बिना समाजवादी कानूनों और नीतियों को खत्म किए यह संभव नहीं था.

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देश की अर्थव्यवस्था लाइसेंस राज, सार्वजनिक क्षेत्र के वर्चस्व और भारी सरकारी नियंत्रण में थी. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में, इस संकट से निपटने के लिए दर्जनों आर्थिक सुधार किए. सबसे पहला काम हुआ लाइसेंस राज का खात्मा. जिसके तहत निजी उद्यमों को व्यवसाय शुरू करने या विस्तार करने के लिए सरकारी अनुमति की आवश्यकता होती थी. यह प्रणाली 1950-60 के दशक से लागू थी और इसका उद्देश्य संसाधनों का समान वितरण और औद्योगिक एकाधिकार को रोकना था.

राव और सिंह ने कई घाटे में चल रही सरकारी कंपनियों का निजीकरण शुरू किया. बहुत से क्षेत्रों को निजी और विदेशी निवेश के लिए खोला गया. दूरसंचार और बिजली जैसे क्षेत्रों में निजी भागीदारी को बढ़ावा दिया गया. मनमोहन सिंह ने विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) की सीमा को बढ़ाया, विशेष रूप से बीमा, खुदरा और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में. व्यापार नीतियों को उदार बनाया गया, और भारत ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) के साथ एकीकरण को स्वीकार किया. श्रम संबंधी कठोर कानूनों को खत्म किया गया. जाहिर है कि समाजवाद की चूलें हिला दी गईं. 

3-बीजेपी समाजवादी नीतियों को लागू करने में किसी से भी पीछे नहीं 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इतनी कल्याणकारी योजनाएं लागू की हैं जितनी समाजवाद के दौर में भी लागू नहीं हुईं. इस तरह साफ है कि भले ही संघ को समाजवाद शब्द से परहेज हो पर समाजवादी नीतियों से कोई दुराव नहीं है.  आयुष्मान भारत  दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना है, जो 50 करोड़ गरीब लोगों को प्रति वर्ष 5 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज प्रदान करती है.  

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प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना ने लाखों गरीब परिवारों, विशेष रूप से महिलाओं, को मुफ्त एलपीजी गैस कनेक्शन प्रदान किए हैं. प्रधानमंत्री आवास योजना ने सभी के लिए किफायती आवास सुनिश्चित करा रहा है.  मोदी सरकार ने मनरेगा के बजट को बढ़ाया है. 2023-24 में लगभग 60,000 करोड़ रुपये की ग्रामीण रोजगार गारंटी प्रदान करता है. आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए 10% आरक्षण लागू करना आर्थिक आधार पर समानता को बढ़ावा देता है. 80 करोड़ लोगों को मुफ्त का भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है .

4-दुनिया भर में अप्रासंगिक हो चुका है समाजवाद 

समाजवाद, जो सामाजिक-आर्थिक समानता, उत्पादन के साधनों पर राज्य नियंत्रण और कल्याणकारी नीतियों पर आधारित विचारधारा है जिस आज रूस और चीन जैसे देश भी मानने को तैयार नहीं हैं. शायद यही कारण है कि 20वीं सदी के अंत से ही यह विचारधारा अप्रासंगिक हो चुकी है. भारत के संविधान में 1975 में समाजवादी शब्द जोड़ा जरूर गया था पर वैश्वीकरण, आर्थिक उदारीकरण और सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों ने इसकी प्रासंगिकता को कम कर दिया.

1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद, पूर्वी यूरोप, रूस और अन्य समाजवादी देशों ने बाजार अर्थव्यवस्था को अपनाया, जिसने समाजवाद की वैश्विक प्रासंगिकता को कम कर दिया. 1980 के दशक से वैश्वीकरण ने बाजार-उन्मुख अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा दिया. आज दुनिया का नेतृत्व विश्व व्यापार संगठन (WTO), मुक्त व्यापार समझौते और बहुराष्ट्रीय कंपनियां कर रही हैं. राज्य नियंत्रित उद्यमों का दुनिया ही नहीं देश के स्तर पर भी अपनी आखिरी सांसें ले रही हैं. पर इसका नुकसान यह हुआ है कि पूंजी कुछ खास लोगों के पास इकट्टा होती जा रही है. आज दुनिया का आधी संपत्ति केवल एक प्रतिशत लोगों के पास है.

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शायद यही कारण है कि बर्नी सैंडर्स और अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज जैसे नेताओं ने लोकतांत्रिक समाजवाद को बढ़ावा दिया, जो पूंजीवादी ढांचे में सामाजिक कल्याण पर केंद्रित है. यह पारंपरिक समाजवाद, जो उत्पादन के साधनों पर राज्य नियंत्रण पर जोर देता था से काफी अलग है.

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