आज वैशाख शुक्ल पंचमी है. शंकर अर्थात आदि शंकराचार्य का जन्म या कहें अवतार- आप स्वेच्छा से चुनाव के लिए स्वतंत्र हैं- इसी दिन हुआ था. बालक शंकर से जब उनके गुरु ने पूछा था, तुम कौन हो, तो उन्होंने 'चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्..' की बात की थी. जिसने भी निर्वाण षट्कम पढ़ा है, वह इसके प्रभाव में आए बगैर नहीं रह सकता. बहरहाल आज शंकर की जयंती पर शंकराचार्य पर कुछ अलग से कहने की बजाय आज उनकी जयंती पर हम कूटनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ रहे लेखक पवन के. वर्मा की पुस्तक 'आदि शंकराचार्य- हिंदू धर्म के महान विचारक' का अंश यहां प्रस्तुत कर रहे. इस पुस्तक का प्रकाशन हिंदी और अंग्रेजी में वेस्टलैंड पब्लिकेशंस ने किया है. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी इस किताब का हिंदी अनुवाद धीरज कुमार ने किया है.
पवन के वर्मा इस पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं- "हिंदू धर्म, इसके अधिकतर अनुयायियों के लिए, जीवन जीने का एक तरीका है. इसका कोई एक पोप नहीं है, कोई एक धर्मग्रंथ नहीं है, कोई कठोर निर्धारित रीति-रिवाज नहीं है, कोई अनिवार्य समूह नहीं है, और ना ही कोई एक मुख्य मंदिर है. शायद इस वजह से यह अनंत काल से फलता-फूलता आ रहा है; यह सनातन और अनंत है क्योंकि जो सर्वव्यापी है लेकिन क्षणभंगुर रूप तक सीमित नहीं है, वो अविनाशी है. लेकिन शायद इसी वजह से ही, अधिकतर हिंदू जहां एक ओर अपने तरीके से आस्था का पालन करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने धर्म के दार्शनिक आधारों के महत्व से अनजान हैं.
"हिंदुत्व, एक धर्म के रूप में, हिंदुत्व दर्शन से अलग नहीं है. अगर हिंदू अपने धर्म के दार्शनिक आधार से दूर हैं, तो वो एक तरह से जानबूझकर इसके भीतर के खजाने को छोड़कर उसका आवरण चुन रहे हैं. जब धर्म बड़े पैमाने पर रीति-रिवाजों तक सीमित हो जाता है, तो इस बात का खतरा बढ़ जाता है कि बाहरी रंग-रूप को सार की तुलना में अधिक महत्व मिलेगा. मैं मानता हूं कि यह हिंदुत्व के लिए, और इसके महान संतों, संन्यासियों और विचारकों के लिए- जिन्हें ये पुस्तक मैं विनम्रतापूर्वक समर्पित करता हूं- क्षति होगी, जिन्होंने इस सनातन धर्म को विश्व की कुछ सर्वाधिक प्रगाढ़ दार्शनिक अंतर्दृष्टि दी है. इसी कारण मैंने ये किताब लिखी.
"जगद् गुरु आदि शंकराचार्य निस्संदेह उन महानतम विद्वानों में एक थे, जिन्होंने अंतिम सत्य की हिंदू धर्म की अथक खोज में योगदान दिया. बत्तीस वर्षों का उनका छोटा सा जीवन उतना ही अद्भुत है जितना वो अद्वैत दर्शन जिसे उन्होंने कुशलता से गढ़ा है. मेरा उद्देश्य इस महान व्यक्तित्व और उसके जीवन की खोज करना था, और मैंने इस तलाश में, उनके जन्म स्थल केरल के कलाडी से लेकर, उनके समाधि स्थल केदारनाथ तक की यात्रा की- और अधिकतर उन स्थानों पर भी मैं गया जो उनके जीवन से संबंधित हैं.
"जगद गुरु के कदमों पर चलते हुए ना सिर्फ मैंने भारत को भौतिक रूप से लंबाई और चौड़ाई में नापा, बल्कि मैंने अपने आपको उनके दर्शन, और इसके स्वयं और ब्रह्मांड के साथ संबंध की मानसिक यात्रा में भी डुबो लिया. सच बताऊं तो मेरे पूरे शोध के दौरान सबसे महत्वपूर्ण पहलू था उनके दार्शनिक सिद्धांतों, और आधुनिक विज्ञान के आविष्कारों, विशेषकर ब्रह्मांड विज्ञान, क्वांटम भौतिकी और तंत्रिका विज्ञान, के बीच तालमेल का मेरा शोध."
इसके बाद लेखक ने अपनी किताब को लिखने में सहायता के लिए मैं कई लोगों की कृतज्ञता व्यक्त करते हुए विस्तार से उनके सहयोग का जिक्र किया है, जिनमें मणि शंकर द्विवेदी, विद्वान-राजनेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी, जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल रहे एन.एन. वोहरा, श्रृंगेरी के शंकराचार्य, पुरी के शंकराचार्य, द्वारका के शंकराचार्य, और सांसद रहे एम.पी. वीरेंद्र कुमार, पिनाकी मिश्रा, शोभा करांदलजे, पूनम बेन, विधायक ओम प्रकाश सकलेचा, कलाकार, गाइड और मेंटॉर मनीष पुश्कले, अशोक कपूर, गुलाब सिंह, प्रोफेसर सुब्रमणिया अय्यर शामिल हैं. इसके अलावा उन्होंने अपनी साहित्यिक एजेंट मीता कपूर, प्रकाशक वेस्टलैंड पब्लिकेशंस की मैनेजिंग एडिटर सुधा सदानंद, पत्नी रेणुका और स्वयं जगद गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है. पर इस आभार सूची में एक चौंकाने वाला आभार भी है. वर्मा के ही शब्दों में -
"अंत में मैं स्वयं जगद गुरु के प्रति कृतज्ञता में नमन करना चाहूंगा, जो मेरे कुछ पाठकों को अजीब लग सकता है. ऐसे कई मौके आए जब मुझे महसूस हुआ कि वो मुझे आशा और शक्ति देने के लिए वहां उपस्थित हैं, और दुष्कर बाधाओं का हल निकालने में मदद कर रहे हैं. एक मनुष्य के रूप में, मैंने उनकी उदार उपस्थिति इस किताब को लिखने के दौरान सदा महसूस की है. मैं इस किताब में किसी भी कमी के लिए पूरी जिम्मेदारी लेता हूं, फिर भी, मैं निजी तौर पर महसूस करता हूं कि यह किताब उनके आशीर्वाद के बिना कभी लिखी नहीं जा सकती थी.
पुस्तक अंशः आदि शंकराचार्य- हिंदू धर्म के महान विचारक
जीवन- एक व्यक्तिगत यात्रा
पेरियार नदी पिघली हुई चांदी के समान जगमगा रही थी जब विमान कोच्चि हवाई अड्डे पर उतरा. सामने का दृश्य एक भव्य चित्रपट जैसा था जिसमें नारियल के पेड़, केले के उद्यान और फलों के बागान के बीच सब्जियों की हरी पट्टियां सजी हुई थीं. कोच्चि हवाई अड्डा केरल के पारंपरिक वास्तुशिल्प के आधार पर बना था, आधुनिक लेकिन एक अन्य युग की याद दिलाता हुआ.
मैं कोच्चि आया हूं जगद् गुरु भगवद आदि शंकराचार्य की जन्मस्थली कलाडी की यात्रा करने, जहां हवाई अड्डे से बस बीस मिनट में पहुंचा जा सकता है। ये महात्मा गांधी मार्ग के नजदीक है जो कोच्चि से बाहर की ओर ले जाता है.
788 ईस्वी में, जब शंकराचार्य का जन्म हुआ था, कलाडी निश्चित रूप से अपनी अलग पहचान रखने वाला एक छोटा गांव रहा होगा जो कोच्चि शहर से ज्यादा दूर नहीं है. लेकिन, शहरीकरण ने इस अलग पहचान को खत्म कर दिया है और अब कलाडी अधिकतर मायनों में, कोच्चि का उपनगर है. ये भारत के दूसरे शहरों से अलग नहीं दिखता- दुकान, धूल, कारें, मोटर साइकिल, स्कूटर, कंक्रीट और शोर-शराबा- सिवाय इस मायने में कि यही वो जगह है जहां एक सहस्राब्दी और दो सौ वर्षों पूर्व, एक ऐसे बच्चे का जन्म हुआ था जिसने हिंदू धर्म की धारा को बदल दिया था और दर्शन और तत्वमीमांसा का स्तर इतना ऊंचा कर दिया था जिसकी बराबरी आज तक कोई नहीं कर सका है.
इस यादगार जुड़ाव की पहली निशानी के रूप में दिखता है मुख्य सड़क पर एक नौ मंजिला अष्टकोणीय भवन. ये है श्री आदि शंकराचार्य पादुका मंडपम जिसमें इस महान संत की प्रतिमा है. कंक्रीट का निष्प्राण सा दिखने वाला ये भवन निराश करता है, इसमें ना तो विशेष सौंदर्य है, ना ही उस व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता का कोई चिह्न जिसे ये समर्पित किया गया है. प्रवेश द्वार पर कंक्रीट के दो काले हाथी आपका स्वागत करते हैं, जहां धातु के जंगले लगे हैं जिन्हें खोला-बंद किया जा सकता है. मुख्य मंदिर में शंकराचार्य की एक छोटी प्रतिमा है जिसे संन्यासियों का सफेद वस्त्र पहनाया गया है, और उनके इर्द-गिर्द उनके चार प्रमुख शिष्य हैं, सुरेश्वर, तोतक, हस्तमलका, और पद्मपाद. पास की दीवार पर बेतुके तरीके से श्री कांची शंकर पब्लिक स्कूल के दसवीं कक्षा के छात्रों की तस्वीर लगी थी जिन्होंने परीक्षा में 98 प्रतिशत या ज्यादा अंक हासिल किए थे.
यहां से थोड़ी दूरी पर, पेरियार नदी के किनारे, शंकर का वास्तविक जन्मस्थान है. पेरियार को ‘पूर्णा’ भी कहा जाता है. पादुका मंडपम के विपरीत इस स्थान पर सौंदर्यपूर्ण शांति है जो तुरंत ही मन में अध्यात्म को जगा देती है. कमल के फूलों से भरा एक तालाब आपको एक पारंपरिक केरल मंडपम की तरफ ले जाता है जिसमें स्लेटी रंग के ग्रेनाइट लगे हैं. पश्चिमी कोने पर शंकराचार्य की स्मृति में एक मंदिर है; पूर्व दिशा में ब्रह्म की पत्नी ब्राह्मी, जो विद्या की देवी सरस्वती का दूसरा नाम है, को समर्पित एक मंदिर है. गर्भगृह के चारों तरफ परिक्रमा में सप्तमाता, देवी के सात अवतारों, की प्रतिमाएं हैं जिनमें महेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वराही, इंद्राणी और चामुंडा सम्मिलित हैं. हम आगे देखेंगे कि शक्ति के साथ शंकर का काफी नजदीकी संबंध है.
मंडपम में हमारा स्वागत करते हैं बिखरी हुई दाढ़ी और सफेद बालों वाले एक विनम्र बुजुर्ग प्रोफेसर सुब्रमणिया अय्यर, जिन्होंने पारंपरिक मुंडु और सफेद कमीज पहन रखी थी. वो श्रृंगेरी के शंकराचार्य पीठ द्वारा कलाडी में चलाए जाने वाले संस्कृत महाविद्यालय के प्रभारी हैं. वो बताते हैं कि कलाडी को कई सदियों तक भुला दिया गया था, जब तक कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में, श्रृंगेरी पीठ (शंकराचार्य द्वारा स्थापित प्रथम मठ) के तैंतीसवें मठाधीश सच्चिदानंद शिवाभिनव भारती ने महान संत-दार्शनिक की जन्मभूमि की तलाश शुरू नहीं की थी. दिक्कत ये थी कि केरल में कलाडी के नाम से तीन गांव थे. लेकिन, पूर्णा के तट पर एक ही कलाडी था और ये एक महत्वपूर्ण संकेत था, क्योंकि शंकराचार्य की सभी पारंपरिक जीवनियों में एकमत से कहा गया था कि उनका पारिवारिक घर पूर्णा के किनारे था.
एक और महत्वपूर्ण प्रमाण था. जब शोध दल उस घर में पहुंचा जिसे शंकर का माना जा रहा था, उन्हें घर के कोने में एक पाषाण स्तंभ पर दीया जलाती हुई स्त्रियां मिलीं. पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि इसी स्थान पर शंकर की माता, आर्यम्बा का अंतिम संस्कार हुआ था.
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शंकर के माता-पिता, आर्यम्बा और शिवगुरु, नंबूदिरी ब्राह्मण थे. इस कारण वो सामाजिक रूप से सर्वोच्च दर्जे पर थे, हालांकि शिवगुरु की किसी और अलग पहचान के बारे में कोई जानकारी नहीं है. दंपत्ति शास्त्रों में बताई गई धार्मिक रीतियों और शिक्षाओं के अनुसार पावन जीवन बिताते थे. उनके जीवन का खालीपन था उनकी कोई संतान नहीं होना. किवदंती है कि एक रात उनके कुलदेवता, शिव, आर्यम्बा के सपने में आए और एक बच्चे की उनकी प्रार्थना स्वीकार की. दिलचस्प है कि शिव ने आर्यम्बा को दो विकल्प दिए थे कि वो या तो एक मूर्ख को जन्म देंगी जिसका जीवन लंबा होगा या फिर एक विद्वान को जन्म देंगी जिसकी मृत्यु युवावस्था में हो जाएगी. किवदंती के अनुसार, आर्यम्बा ने दूसरा विकल्प चुना.
आधुनिक इतिहासकारों के मुताबिक, शंकर का जन्म अप्रैल-मई 788 ईस्वी में अमावस्या के बाद पांचवे दिन हुआ था.
[ आनंदगिरि की जीवनी, शंकरविजय, में माना गया है कि उनका जन्म चिदंबरम में 44 ईसा पूर्व में हुआ था और मृत्यु 12 ईसा पूर्व में हुई थी. डॉ. आर. जी. भंडारकर उनकी जन्म तिथि 680 ईस्वी में मानते हैं. हालांकि उनका सर्वाधिक स्वीकार्य जीवन काल है 788-820 ईस्वी. ये शंकर के कुमारिल भट्ट के वर्णन पर आधारित है, जिनका काल 700 ईस्वी के आसपास था, और साथ ही शंकर ने असंग, नागार्जुन और अश्वघोष के सिद्धांतों को अस्वीकार किया था, जिनका जीवनकाल तीसरी शताब्दी ईस्वी के पहले का नहीं था, साथ ही शंकर भर्तृहरि के बाद आए थे जिनका जीवनकाल यिजिंग के अनुसार लगभग 600 ईस्वी का है. शंकर की इन तारीखों को मैक्स मूलर, पॉल ड्युसेन और डॉ. एस. राधाकृष्णन भी सही मानते हैं.]
हालांकि, दूसरे कई लोग इस तिथि से सहमत नहीं हैं, और उन्हें इसके काफी पहले का बताते हैं. द्वारका, पुरी और कांची के मठों में रखी गुरुपरंपराओं (गुरुओं या मठों के महंतों द्वारा रखे दस्तावेजों) के अनुसार, उनका जीवन-काल लगभग 500 ईसा पूर्व के आसपास था, जबकि श्रृंगेरी मठ के अनुसार उनका जन्म 44 ईसा पूर्व में हुआ था.
सच ये है कि शंकर की जन्मतिथि के बारे में प्रत्यक्ष प्रमाण का कोई अस्तित्व नहीं है, और आधुनिक इतिहासकार जो उनके लेखन के निष्कर्षों और उनके समकालीन या पहले जन्मी प्रसिद्ध हस्तियों के संदर्भों के आधार पर कहते हैं कि उनका जन्म 778 ईस्वी में हुआ था, उन्हें भी दूसरी परंपराओं को स्वीकार करना होता है, जो इतिहास लेखन में नहीं बल्कि आस्था (और इससे जुड़े तर्कों) पर आधारित होती हैं.
उनकी जन्मतिथि पर विवाद के बावजूद, उनके जीवन के दूसरे विवरणों का मेल उनकी विद्यमान जीवनियों और इनसे जुड़े प्रमाणों से कराया जा सकता है. हम जानते हैं कि बालक शंकर ने बेहद कम उम्र से ही अपनी चमत्कारिक प्रतिभा दिखानी शुरू कर दी थी. कहा जाता है कि तीन वर्ष की आयु पूरी करने के पहले ही उन्हें वेद और मूलभूत संस्कृत ग्रंथ कंठस्थ हो गए थे, उनकी असाधारण स्मरण शक्ति के कारण वो जिस चीज को एक बार सुनते थे, वो उन्हें याद हो जाती थी. एका श्रुति धारा.
यह लगभग निश्चित है कि प्रारंभ से ही वो संन्यास का जीवन जीने की प्रवृत्ति दिखाने लगे थे, और उन पारंपरिक सुखों का त्याग करने लगे थे जो उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के प्रतिभावान बच्चों को आसानी से मिलते थे. स्वाभाविक रूप से, ये उनकी माता के लिए चिंता का विषय था. एक ओर जहां वो अपने पुत्र की बौद्धिक परिपक्वता पर गर्व करती थीं, जिसकी चर्चा पूरे गांव और उसके बाहर भी होती थी, वहीं वो ये नहीं चाहती थीं कि उनका पुत्र साधु-संन्यासी बने. किसी भी अन्य माता के समान वो चाहती थीं कि उनका पुत्र विवाह करे, बच्चे पैदा करे और उनके साथ रहे, विशेषकर इसलिए क्योंकि उनके पति, शिवगुरु की मृत्यु तभी हो गई थी जब शंकर की आयु बहुत कम थी और वो विधवा का जीवन बिता रही थीं.
हालांकि, शंकर सांसारिक जीवन का त्याग करने और एक संन्यासी का जीवन बिताने के अपने निर्णय से नहीं डिग रहे थे. माता और पुत्र के बीच में निश्चित रूप से काफी तनाव रहा होगा, लेकिन एक ऐसी घटना के बाद इस विषय पर फैसला हो गया, जिसमें कुछ कल्पना दिखती है और कुछ तथ्य. कहा जाता है कि एक बार जब शंकर नदी में स्नान कर रहे थे, एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया. उन्होंने अपनी माता को पुकारकर कहा: ‘मां! मुझे बचाओ! एक मगरमच्छ ने मुझे पकड़ लिया है और मैं तब तक नहीं बच सकता जब तक तुम मुझे संन्यासी बनने की अनुमति नहीं देतीं. मां, देर मत करो, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी!’ आर्यम्बा पल भर के लिए हिचकिचाईं, लेकिन उनके पुत्र को मगरमच्छ खींचकर गहरे पानी में ले जा रहा था, और उनके पास हामी भरने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था. जैसे ही उन्होंने अपनी अनुमति दी, कहा जाता है कि मगरमच्छ ने शंकर को मुक्त कर दिया और गायब हो गया.
क्या वास्तव में ऐसी कोई घटना हुई थी, या ये किसी जीवनी लेखक की कल्पना की उड़ान थी? इसका कोई स्पष्ट उत्तर देना कठिन है. इस बात की पूरी संभावना है कि किसी नाटकीय घटना ने आर्यम्बा को हां कहने के लिए विवश किया होगा, क्योंकि सामान्य परिस्थितियों में, एक विधवा माता अपने पुत्र को अपना त्याग करने की अनुमति कभी नहीं देगी. ये भी हो सकता है कि अपनी माता की सहमति प्राप्त करने के लिए शंकर ने कोई चाल चली हो.
दूसरी तरफ, मगरमच्छ सांसारिक जीवन का एक रूपक हो सकता है, जिससे शंकर ने मुक्ति पा ली थी, किसी कल्पनाशील इतिहासकार ने प्रतीकवाद की युक्ति निकाली हो. ऐसी कहानियों में तथ्य, किवदंती, आख्यान और प्रतीकात्मकता आपस में घुल-मिल जाती हैं, लेकिन इतना तो सच है कि आज भी, शंकर के घर के बिलकुल नजदीक, एक मगरमच्छ घाट है जहां इस निर्णायक क्षण को याद किया जाता है, और एक वार्षिक उत्सव आयोजित किया जाता है.
आर्यम्बा ने दबाव में अपनी सहमति तो दे दी थी, लेकिन वो अकेले रहने को लेकर चिंतित भी थीं. उन्हें एक पारंपरिक चिंता भी थी कि उनका अंतिम संस्कार कौन करेगा. शंकर ने उन्हें आश्वस्त किया था कि जब भी उनकी माता, चाहे जाग्रत हो या बेसुध, को उनकी जरूरत होगी, वो लौट आएंगे. उन्होंने ये वचन भी दिया कि उनकी मृत्यु के बाद वही अंतिम संस्कार करेंगे, भले ही ये संन्यासी जीवन व्यतीत करने वालों के लिए पारंपरिक रूप से वर्जित था. इस प्रतिज्ञा के साथ, उन्होंने माता से विदा ली और बचपन में ही, उपयुक्त गुरु की तलाश में घर छोड़ दिया.
ये तलाश उन्हें दक्कन पठार और सतपुरा श्रेणियों के पार नर्मदा नदी के तट पर ओंकारेश्वर ले आई, जो विंध्य में और इंदौर से थोड़ा दक्षिण की ओर है. शहर की पहाड़ियां ऊँ की आकृति से मिलती-जुलती हैं, और शहर के किनारे बहने वाली नर्मदा भी ऊँ की तरह दिखती है. दरअसल, ओंकारेश्वर एक द्वीप है, एक तरफ वो नर्मदा से घिरा है और दूसरी तरफ नर्मदा की सहायक नदी रेवा से. दोनों नदियां, जो ओंकारेश्वर से ठीक पहले अलग होती हैं, शहर को पार करने के बाद मिल जाती हैं.
शंकर के आगमन के सदियों पहले से, ओंकारेश्वर को एक पवित्र शहर के रूप में जाना जाता था, जहां शिव के प्रतीक बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक स्थित है. लेकिन ये मंदिर मुख्य कारण नहीं था जो शंकर सैकड़ों मील दूर घने जंगलों को पार करके ओंकारेश्वर आए थे. उनकी तलाश सच्चे गुरु के लिए थी, और वो जानते थे कि इस शहर में वेदांत के विद्वान गोविंदपाद रहते थे, जो प्रसिद्ध गौड़पाद के शिष्य और पुत्र थे. गौड़पाद ने कारिका की रचना की थी, जो मांडूक्य उपनिषद पर प्राथमिक व्याख्या है.
अधिकतर लोगों की मान्यता है, और स्थानीय लोग भी यही मानते हैं कि जब शंकर गौड़पाद से मिलने आए तो वो एक गुफा के अंदर ध्यानमग्न थे. शंकर गुफा के बाहर प्रतीक्षा करते रहे, और जब गौड़पाद ध्यान की अवस्था से बाहर आए, उन्होंने उस छोटे बालक से पूछा: ‘तुम कौन हो?’
किवदंती के अनुसार, इसके उत्तर में शंकर ने एक श्लोक पढ़ा: ‘मैं ना तो पृथ्वी हूं, ना जल, ना अग्नि, ना वायु, ना आकाश, और ना ही कोई अन्य पदार्थ. मैं इन्द्रिय भी नहीं हूं और ना ही मन. मैं शिव हूं, चेतना का अविभाज्य सार.’
इतना सारगर्भित उत्तर सुनकर, गौड़पाद ने शंकर को अपने संरक्षण में ले लिया. कई स्थान पर ऐसा वर्णित है कि अपनी स्वीकृति जताने के लिए, गौड़पाद ने अपना एक पैर गुफा के बाहर फैलाया और शंकर ने आदरपूर्वक झुककर उसका स्पर्श किया.
यह निश्चित नहीं है कि शंकर कितने समय तक गौड़पाद के आश्रम में रहे. हम मान सकते हैं कि वो अठारह महीने से लेकर तीन वर्ष तक वहां रहे होंगे, जिस दौरान उन्होंने अद्वैत दर्शन में महारत हासिल की होगी। आप कल्पना कर सकते हैं कि आज से बारह सौ वर्ष पूर्व ओंकारेश्वर कैसा रहा होगा: एक द्ववीपीय पहाड़ी, चारों तरफ हरियाली, नर्मदा और रेवा के स्वच्छ पानी से घिरा हुआ, पहाड़ी की ढाल पर एक प्राचीन मंदिर, और इससे लगा हुआ गोविंदपाद का आश्रम. आज ये कितना बदल गया है? और जो कुछ बचा है, उनमें से कितनी चीजें शंकर की यात्रा और यहां उनके पड़ाव के तथ्यों की पुष्टि करती हैं?
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ये पता लगाने के लिए मैंने दिल्ली से इंदौर की उड़ान भरी. मेरे साथ थी मेरी पत्नी, रेणुका, और प्रतिभाशाली और बेबाक कलाकार, मनीष पुश्काले, जो इसी क्षेत्र के हैं. इंदौर से ओंकारेश्वर पहुंचने में दो घंटे लगते हैं लेकिन हमने वहां के लिए निकलने से पहले संस्कृत के दो प्रसिद्ध विद्वानों से इंदौर में मुलाकात की. हम पहले गए श्री क्लॉथ मार्केट गर्ल्स कॉमर्स कॉलेज के प्रिंसिपल डॉक्टर मंगल यशवंत मिश्रा, और उनकी पत्नी छाया के साधारण मध्यवर्गीय घर. हालांकि वो वाणिज्य पढ़ाते हैं, वो संस्कृत के विद्वान हैं. उनका विजिटिंग कार्ड बेहद दिलचस्प है: डॉ. मंगल यशवंत मिश्रा, बी.कॉम, एम.कॉम, एम.ए. (अर्थशास्र), एम.ए. (इतिहास), एम.ए. (समाजशास्त्र), एम.ए. (लोक प्रशासन), एमबीए, पीएचडी (वाणिज्य), पीएचडी (राजनीति विज्ञान), पीएचडी (इतिहास), पीएचडी (समाजशास्त्र), पीएचडी (अर्थशास्त्र), पीएचडी (बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन), डीलिट. मुझे उन्हें कहना पड़ा कि उन्हें सर्वाधिक डिग्रियों के लिए गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में अर्जी देनी चाहिए. उन्होंने इस सुझाव को प्रशंसा के रूप में स्वीकार किया, और हल्के से कटाक्ष को नजरअंदाज कर दिया. हालांकि, वो बेहद मिलनसार हैं. उनकी सहज विनम्रता, और उनकी पत्नी छाया—जो स्वयं श्री क्लॉथ मार्केट गर्ल्स कॉमर्स कॉलेज में पढ़ाती हैं—के बात-व्यवहार ने हमारा दिल जीत लिया.
हमें दोपहर के खाने में घर का बना हुआ दाफला (गेहूं से बना स्थानीय व्यंजन), दाल, चावल, कढ़ी और सब्जियों के साथ परोसा गया, और मीठे में हलवा.
एक साधारण धोती और बनियान पहने हुए, डॉ. मिश्रा ने दोपहर के भोजन के दौरान हमसे ओंकारेश्वर के बारे में बातचीत की. उन्हें कोई संदेह नहीं था कि शंकर ओंकारेश्वर में गोविंदपाद के आश्रम में रुके थे और इसके समर्थन में उन्होंने उनके जीवन के कई प्रसंगों का वर्णन किया. उनके वर्णन में पौराणिक आख्यान और तथ्य गुंथे हुए थे. उन्होंने कहा कि वो गुफा जहां शंकर की मुलाकात गोविंदपाद से हुई थी, वो वहां अभी भी है. साथ ही नर्मदा के पार, ममलेश्वर पर वो मंदिर भी है, जो शंकर ने उन तीर्थयात्रियों के लिए बनवाया था जो मॉनसून के दौरान नर्मदा के उफान पर रहने के कारण ओंकारेश्वर के मुख्य शिव मंदिर के दर्शन नहीं कर पाते थे. ममलेश्वर का मंदिर द्वीप पर बने मंदिर के सदृश है। मूल मंदिर को संकल्प कहा जाता है, और नदी के पार बनी उसकी प्रतिकृति को विकल्प.
हमें विद्वान डॉ. मिश्रा से कुछ बहुत नया जानने को नहीं मिला, सिवाय इसके कि शंकर के ओंकारेश्वर के साथ संबंध में उनकी व्यक्तिगत आस्था थी. जब हम विदा ले रहे थे, उन्होंने मेरे हाथों में शिवलिंग की आकृति का एक छोटा पत्थर रखा, और कहा कि नर्मदा में पाया जाने वाला ऐसा हर पत्थर शिव और शंकराचार्य दोनों के संयुक्त आशीर्वाद का प्रतीक है.
हमारा अगला पड़ाव था मिथिलेश प्रसाद त्रिपाठी का घर, जो विनम्र मिश्राजी की तुलना में बिलकुल अलग प्रकृति के थे. उनके ललाट पर लाल तिलक था; उनकी गोलाकार आकृति से भाव आता था कि वो स्वयं को गंभीरता से लिए जाने की आशा करते थे; मूर्खों से बात करके उन्हें कोई प्रसन्नता नहीं होती; संस्कृत का जीवनभर अध्ययन करने पर उन्हें गर्व था, वो नकली विद्वानों को सीधे खारिज कर देते थे; उन्होंने साफ कर दिया था कि उन्हें पारंपरिक सोच सहन नहीं है, और उन पंडितों से उनकी नाराजगी थी जो प्रथाओं के पीछे का अर्थ जाने बगैर उनका पालन करते रहते थे.
त्रिपाठीजी ने जोर देकर कहा कि सभी प्रमाण इस ओर संकेत देते हैं कि शंकर ओंकारेश्वर आए थे, और गोविंदपाद के आश्रम में रहे थे. उन्होंने कहा कि शंकर ने गोविंदपाद, और उनके पिता गौड़पाद से अद्वैत की शिक्षा को ओंकारेश्वर में आत्मसात किया था, और उनके युवा मस्तिष्क पर इसका प्रभाव लंबे समय तक रहा. यहां अपने पड़ाव के दौरान, शंकर को एक विद्यार्थी की तरह देखा जाना चाहिए, जो वेदांत की बारीकियों को जानने का इच्छुक था. सीखने के प्रति उसकी ललक संदेह के परे थी, और, गोविंदपाद का गुरुकुल ऐसा करने के लिए आदर्श वातावरण देता था, जहां शिक्षक विद्यार्थियों को अध्ययन, जांच और चिंतन की कठोर समय-सारणी के अनुसार शिक्षा देते थे.
खुलकर हो रही हमारी बातचीत के दौरान इधर-उधर की बहुत सारी बातें हुईं, क्योंकि त्रिपाठीजी, जो अपनी छोटी सी बैठक के दीवान पर पालथी मारकर बैठे थे, बार-बार मुख्य विषय से भटककर संस्कृत अध्ययन के क्षेत्र में अपने कुछ समकक्षों की आलोचना करने लगते थे. लेकिन, एक महत्वपूर्ण बिंदु था जिस ओर उन्होंने मेरा ध्यान दिलाया. उन्होंने मुझे कहा कि सिर्फ शंकर के दर्शन और उनके बौद्धिक परिदृश्य पर केंद्रित मत रहो. निस्संदेह, वो तो महत्वपूर्ण है, लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण है ये जानना कि शंकर ने गौड़पाद के मठ में जनसेवा, और उन केंद्रों के निर्माण के संदर्भ में क्या सीखा, जहां अद्वैत दर्शन को पढ़ाया जा सके और सुरक्षित रखा जा सके. हालांकि शंकर मीमांसा कर्मकांड (वैदिक निर्देशों के अनुसार प्रथाओं का पालन) के विरुद्ध थे, उन्होंने इस प्रकार की निस्वार्थ सेवा का समर्थन किया था, और इस बारे में उनकी सोच की नींव ओंकारेश्वर में पड़ी थी.
अपने सारे अक्खड़पन के बावजूद, त्रिपाठीजी हमारे विदा लेने तक हमारे साथ काफी घुल-मिल गए थे, और हमें विदा कहने हमारी कार तक आए थे. जब हम जा रहे थे, उन्होंने कहा कि वो अकेले रहना पसंद करते थे. उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी अपने बच्चों के पास अमेरिका गई हैं, और उनका भतीजा उनकी देखभाल करता है. वो काफी कुछ एकांतवासी थे, जो संस्कृत और हिंदू दर्शन के अपने अध्ययन में डूबा है, और अपने हजारों पुस्तकों के बीच अकेला रहकर संतुष्ट है, लेकिन अगर कोई उसके विचारों को चुनौती देता है तो वो तर्क-वितर्क करने पर उद्धत हो जाता है.
ओंकारेश्वर तक हमारी यात्रा के दौरान हम विंध्य श्रेणी से गुजरे. सड़कें घुमावदार थीं, भू-भाग पहाड़ी और सागवान के पेड़ों से भरा हुआ, जो तेज धूप में कुम्हला रहे थे, और उनकी कागज की तरह सूखी पत्तियां हर तरफ बिखरी हुई थीं. हमें ओंकारेश्वर में गजानन महाराज आश्रम पहुंचने में दो घंटे लगे, जहां हमारे ठहरने की व्यवस्था की गई थी. आश्रम, जो नर्मदा से बिलकुल नजदीक था, शांति और हरियाली के मरुद्यान के समान था, जिसके परिसर के बीचोबीच पत्थरों से बना एक शांत मंदिर था. आश्रम के प्रशासक जोशीजी ने हमारा स्वागत चाय और बिस्कुट से किया और हमें हमारे कमरे दिखाए, जो सादे लेकिन साफ, वातानुकूलित, और आधुनिक शौचालयों के साथ थे. हमें पता चला कि गजानन महाराज महाराष्ट्र के शेवगांव से थे, शिरडी साईं बाबा के समकालीन थे, और बड़ी संख्या में उनके भक्त मौजूद हैं. आश्रम में हर तरफ उनकी तस्वीरें लगी हुई थीं, एक दुबले-पतले और लंबे पुरुष, बिखरी हुई दाढ़ी और अंदर तक भेदने वाली आंखें, हाथ में चिलम, और, कुछ तस्वीरों में, शरीर पर कोई वस्त्र तक नहीं.
शाम में हम निकले ओंकारेश्वर मंदिर और उस गुफा को देखने के लिए जहां शंकराचार्य के गोविंदपाद से मिलने की मान्यता है. मंदिर तक पहुंचने के लिए हमने नर्मदा को एक नवनिर्मित पुल पर से पैदल पार किया. ये पूर्णिमा की रात थी, और हनुमान जयंती भी थी; नदी के तट पर बने कई घाटों पर आरती चल रही थी; राम और शिव की स्तुति में गाए जा रहे भजन गूंज रहे थे; चंद्रमा की किरणों में नहाई नर्मदा चांदी के समान चमक रही थी—सही मायनों में अलौकिक दृश्य था.
मंदिर पहाड़ी की ढाल पर बना हुआ है. मूल रूप से ये एक गुफा रही होगी, लेकिन अब, बाहर, एक मंडपम है जिसके स्तंभों और मेहराबों पर बारीक नक्काशी की हुई है. गर्भ गृह में एक शिवलिंग है जो जमीन से बाहर निकली हुई पथरीली रचना है. माना जाता है कि ये स्वयंभू है, स्वतः जन्मा, स्वयं शिव द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक. लिंग के पीछे शिव की अर्द्धांगिनी पार्वती की प्रतिमा है. कहा जाता है कि बारह ज्योतिर्लिंगों में से एकमात्र यही है, जहां पार्वती गर्भ गृह का अंग हैं. यहां पूरे दिन एक अखंड ज्योति जलती रहती है.
हमने रात 9 बजे शयन आरती देखी, जिसके बाद रात भर शिव और पार्वती को अकेला छोड़ दिया जाता है. इस आरती के लिए होने वाला प्रबंध आस्था और मानव कल्पनाशक्ति दोनों को श्रद्धांजलि है. दैवीय युगल के लिए एक झूला गहरे गुलाबी जरीदार वस्त्रों से सुसज्जित किया जाता है. उनके मनोरंजन के लिए झूले पर चौपड़-पासा के खेल के लिए चारखानेदार कपड़ा बिछाया जाता है. खेल में बारह मोहरे होते हैं, जो लिंग की आकृति के होते हैं, और बारह ज्योतिर्लिंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं. रात में किसी को भी देवी और देवता की शांति भंग करने की अनुमति नहीं होती. माना जाता है कि जब सुबह में पुजारी मंदिर में प्रवेश करते हैं, मोहरे अपने स्थान से हिले हुए होते हैं.
मंदिर से कुछ कदम दूर वो गुफा है जहां शंकर गोविंदपाद से मिले थे. हालांकि प्रवेश द्वार के बाहर ईंटों की बनी सुसज्जित रचना है, गुफा को साफ तौर पर उससे अलग रखा गया है. गुफा के भीतर काले पत्थर में शंकर की प्रतिमा है. इसमें उन्हें एक ऊंचे आसन पर पालथी मारकर बैठे दिखाया गया है, और उनके बाएं हाथ में चिरपरिचित याचक दंड है. उनके ऊपर, एक पाषाण भित्ति-चित्र है जिसमें शंकर की दैवीय शक्तियों के बारे में एक लोकप्रिय दंतकथा दर्शाई गई है. एक बार, जब नर्मदा पूरे उफान पर थी, इसका पानी गुफा में घुसने का खतरा था जहां गोविंदपाद गहरे ध्यान में थे. अपने गुरु की शांति में बाधा पहुंचने से रोकने के लिए, शंकर ने अपना हाथ उठाया और नदी का पानी पीछे चला गया. इस दंतकथा के एक और वर्णन में बताया जाता है कि उन्होंने अपना कलश या भिक्षापात्र उठाया, और नदी का सारा पानी उसमें समा गया. पाषाण भित्ति-चित्र में दिखाया गया है कि गोविंदपाद गुफा के अंदर ध्यानमग्न हैं, और शंकर, जिनके पैर उफनती नदी में हैं, नदी को नियंत्रित कर रहे हैं.
गुफा के अंदर एक और बेहद दिलचस्प प्रतिमा है. ये काली, देवी मां, की प्रतिमा है, लेकिन इसका चित्रण तांत्रिक है, शरीर पर लाल साड़ी है, मुखाकृति स्पष्ट नहीं है लेकिन ललाट पर लाल तिलक है. इस चित्रण की सर्वाधिक सम्मोहक विशेषता है देवी की आंखें, काली और भेदने वाली दृष्टि, जो डरावने तरीके से आपका हर दिशा में पीछा करती हैं. मंदिर का मुख्य पुजारी मुझे बताता है कि ये प्रतिमा शंकर की बंगाल यात्रा के बाद बनाई और गुफा में रखी गई थी. वहां वो कई तांत्रिकों से मिले थे, और उन्हें शास्त्रार्थ या वाद-विवाद में हराने में असमर्थ रहे थे क्योंकि तंत्रवाद में उनकी जानकारी पर्याप्त नहीं थी. इसलिए, वो ओंकारेश्वर लौटे और काली सिद्धि के रूप में तंत्र सीखा. देवी की ये प्रतिमा उस समय ही स्थापित की गई थी. ऐसा माना जाता है कि स्वयं को तंत्रवाद में निपुण करने के बाद शंकर फिर से बंगाल गए और अपने तांत्रिक प्रतिद्वंद्वियों को परास्त किया.
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नर्मदा एक खूबसूरत नदी है. हालांकि ओंकारेश्वर में अब इसकी धारा पतली है क्योंकि ऊपर की तरफ कई बांध बना दिए गए हैं, अभी भी ये एक आकर्षक नदी है और कई कारणों से बिलकुल अलग भी. ये भारत की एकमात्र बड़ी नदी है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है; साथ ही एकमात्र नदी है जिसके दोनों किनारों पर मंदिर बने हैं, जिस कारण इसे उभय तट तीर्थ भी कहा जाता है. नर्मदा नाम का भी विशेष महत्व है. नर का अर्थ है पुरुष, और मादा का अर्थ है स्त्री: नदी दोनों की शक्तियों का प्रतीक है, या दोनों की शक्तियों का सम्मिलन है जैसा अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा में चित्रित किया गया है, अर्द्धनारीश्वर हिंदू पौराणिक कथाओं में उभयलिंगी देवता हैं.
अगली सुबह, जब हम नर्मदा में प्रात:काल डुबकी लगाने के बाद ओंकारेश्वर से जा रहे थे, मैं इस शहर के साथ शंकर के संबंध के बारे में सोच रहा था. वो कैसे घने जंगलों से होते हुए सुदूर केरल के कलाडी से यहां तक पहुंचे होंगे? क्या इस पवित्र शहर तक आने का कोई ज्ञात रास्ता था, या फिर उन्होंने नौपरिवहन की पारंपरिक विधियों की मदद ली थी? ऐसे युग में जब संचार आरंभिक दौर में था, उन्हें गोविंदपाद, और उनके पिता, गौड़पाद के बारे में जानकारी कैसे मिली थी? इस समय तक कोई छापाखाना नहीं था. फिर वो अद्वैत दर्शन पर गौड़पाद के मौलिक कार्य के बारे में कैसे जानते थे? क्या उन्हें कारिका या मांडूक्य उपनिषद के बारे में मौखिक पाठ से जानकारी मिली थी जो एक शिष्य से दूसरे तक प्रसारित होती थी, और आखिर किस तरह ये इतनी दूर कलाडी तक पहुंची थी? पठन-पाठन का ऐसा क्या अनौपचारिक जाल उस समय विद्यमान था जो सूचनाओं के इस प्रवाह को संभव बनाता था?
दर्शनशास्त्र की असाधारण तलाश और धार्मिक प्रथाओं के संस्कारों के बीच आपसी संबंध ने भी मुझे चौंकाया. कहा जाता है कि गोविंदपाद और शंकराचार्य अपने दिन की शुरुआत पास के ज्योतिर्लिंग के दर्शन से करते थे. उस गुफा में जहां गोविंदपाद रहते थे, बौद्धिक अनुसंधान होता था अद्वैत, गुणातीत ब्रह्म के बारे में, जो मानवीय निरुपण के परे था, मानवीय पूजा-पाठ से परे था, निराकार था और सभी धार्मिक संस्कारों से परे था. लेकिन जब एक बार वो मंदिर में प्रवेश करते थे, वो शिव और पार्वती को दंडवत प्रणाम करते थे, एक व्यक्तिरूप देवता की पूजा के लिए सभी धार्मिक संस्कारों का पालन करते थे, जिनमें शिव और पार्वती के लिए दांपत्य आनंद के साथ रात्रि व्यतीत करने की तैयारी होती थी और मनोरंजन के लिए चौपड़-पासा का खेल भी सम्मिलित होता था. दैवत्व का असाधारण मानवीकरण, और कर्मकांड तथा पूजा-पाठ के आडंबर के पीछे चिंतन और अनुसंधान, इन दोनों का सह-अस्तित्व निर्बाध था.
ओंकारेश्वर में कुछ साल ठहरने के बाद, और जब उन्होंने गोविंदपाद के सान्निध्य में अद्वैत सिद्धांत की गूढ़ता में महारत हासिल कर ली, शंकराचार्य ने अपने गुरु से वाराणसी जाने की आज्ञा मांगी. उन्हें पैदल इस लंबी यात्रा को पूरा करने में कई महीने लगे होंगे, घने जंगलों से, और अज्ञात क्षेत्रों से गुजरना पड़ा होगा, और लुटेरों और डाकुओं के हमले के खतरों से भी जूझना पड़ा होगा. वाराणसी में, वो कई वर्षों तक रहे, और यहीं उन्होंने अपने कई महत्वपूर्ण लेखन कार्य किए, जिनमें शंकर भाष्य, ब्रह्म सूत्र की उनकी व्याख्या, भगवद गीता पर उनकी व्याख्या, और मुख्य उपनिषद शामिल हैं. शंकर ने वाराणसी जाने का फैसला क्यों किया था? बिलकुल स्पष्ट है कि, ये शहर तब भी, हिंदू आस्था की राजधानी था, जहां संत और दार्शनिक गंगा के तट पर निवास करते थे, और हिंदू दर्शन के कई पहलुओं पर वृहत संवाद किया करते थे. हिंदू विचारधारा के किसी विद्वान के लिए, दूसरे दार्शनिक विद्वानों के साथ चर्चा, वाद-विवाद और बातचीत द्वारा, अपनी प्रतिष्ठा प्रमाणित करने के लिए ये बिलकुल उपयुक्त मंच था. इसलिए, ये स्वाभाविक था कि शंकर, दार्शनिक विद्वान के रूप में जिनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी, वाराणसी में निवास करने की सोचते.
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मैंने वाराणसी में शंकर के पड़ाव के बारे में अधिक जानकारी जुटाने की कोशिश के लिए वहां की यात्रा की. हवाई अड्डे पर मुझे लेने मेरे पुराने मित्र, अशोक कपूर आए. वो वाराणसी के प्रतिष्ठित संस्कृतिकर्मी हैं, और फिलहाल शहर में इनटैक के संयोजक हैं, उनकी गहरी रुचि दुनिया के सबसे प्राचीन शहरों में एक इस शहर के जीर्ण-शीर्ण और उपेक्षित ऐतिहासिक स्थलों के पुनरोद्धार में है. वाराणसी, जिसे बनारस और काशी के नाम से भी जाना जाता है, गंगा के पश्चिमी तट पर संकरी गलियों और मंदिरों की विशाल भूलभुलैया है. इन्हीं गलियों में, इतनी घनी आबादी रहती है जो मानव कल्पना के परे है. कभी-कभी, आपको आश्चर्य हो सकता है कि ऐसी परिस्थिति में कैसे लोग, मंदिर, मोटरसाइकिल, स्कूटर, कुत्ते, गाय, गंदगी और शोर एक-साथ रहते हैं, जहां स्थान और जनसंख्या का अनुपात अविश्वसनीय रूप से बिगड़ा हुआ है.
लेकिन, वाराणसी ने अनादि काल से ही अविश्वसनीय चीजों को चुनौती दी है. इस प्राचीन शहर का आधुनिकता से जुड़ाव, उस शहर के रूप में जो अब घाटों और गलियों से काफी आगे जा चुका है, बेहद उलझा हुआ कहा जा सकता है. हवाई अड्डे से हमारे सफर में जरूरत से काफी ज्यादा समय लगा क्योंकि एक फ्लाईओवर, जिसका काम काफी पहले खत्म हो जाना चाहिए था, अभी भी निर्माणाधीन था.
नया शहर यातायात, शोर, प्रदूषण और गंदगी से भरा है, संक्षेप में, नगरपालिका के लिए बुरा सपना है जिसका कोई आसान समाधान नहीं है. हालांकि, अद्भुत बात ये है कि वाराणसी के लोग इन सभी को बड़े शांत भाव से स्वीकार करते हैं, शायद इसलिए क्योंकि वो जन्मजात वैरागी हैं, यानी नश्वर जगत के कष्टों से बेपरवाह हैं, जो गलत है उसके लिए बहुत ज्यादा चिंता नहीं करते, क्योंकि, आखिरकार, समय अनंत है, और सहस्राब्दियों पुरानी गंगा के समान, वो समय के अनंत चित्रफलक पर एक कण भर हैं.
वाराणसी में मैं सबसे पहले रुका संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय. वहां दर्शनशास्त्र की फैकल्टी के प्रमुख प्रोफेसर हरि प्रसाद अधिकारी ने, जो तुलनात्मक धर्मदर्शन पढ़ाते हैं, मेरे लिए शंकर और हिंदू दर्शन के विद्वानों के साथ मुलाकात का प्रबंध किया था. वहां कोई मेज और कुर्सियां नहीं हैं. हम फर्श पर एक सफेद चादर पर बैठते हैं और पीठ को सहारा देने के लिए मसनद हैं. सत्र की शुरुआत होती है मंगलाचार्य से, जो धार्मिक मंत्रों या स्तोत्रों की वंदना है और जिसे शंकराचार्य ने लिखा था. ऐसा लग रहा था कि जैसे वो समय दोहराया जा रहा हो जब शंकर के दिनों में शास्त्रार्थ होता होगा. हिंदू दर्शनशास्त्र के विभिन्न पहलुओं के कई प्रोफेसर मौजूद हैं. उनमें से हर कोई अपने दृष्टिकोण और व्याख्या का कट्टर समर्थक है. वो सभी शंकर द्वारा विकसित अद्वैत सिद्धांत की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हैं, लेकिन सभी के उस पर अपने अलग-अलग विचार हैं, और वो इसका मूल्यांकन अपने दार्शनिक दृष्टिकोण से करते हैं.
एक जबर्दस्त वाद-विवाद शुरू हो जाता है, और संस्कृत श्लोकों की बारिश होने लगती है, क्योंकि हर वक्ता शब्द ज्ञान, प्रत्यक्ष ज्ञान, श्रुति की वैधता, शंकर के विचारों पर बुद्धत्व का प्रभाव, अद्वैतवाद की सीमाओं और रामानुज जैसे बाद के हिंदू दार्शनिकों द्वारा विकसित विशिष्ट अद्वैत जैसे गूढ़ विषयों पर अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करने लगता है.
उत्तेजना बढ़ती है और विचारों का टकराव होता है. जब कोई किसी वक्ता को बीच में टोकता है, तो वो कड़ा विरोध करता है कि ये शास्त्रार्थ के नियमों के विरुद्ध है, जहां आपत्तियां दर्ज होने के पहले हर धुरंधर को उसका दृष्टिकोण पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने की अनुमति मिलनी ही चाहिए. प्रोफेसर अधिकारी परिचर्चा को संतुलित करने की भरपूर कोशिश करते हैं लेकिन अक्सर उनकी बात अनसुनी हो जाती है. ऐसा एक घंटे से ज्यादा समय तक चलता है, जब तक कि अधिकारी उप-श्रृंगार, जो सारांश और धन्यवाद ज्ञापन का रूप है, के द्वारा बैठक को समाप्त नहीं कर देते.
इस समय तक सभी का पारा नीचे आ चुका होता है, और मुझे बताया जाता है कि हिंदू अध्यात्म विज्ञान के गूढ़ बिंदुओं पर ऐसा वैचारिक टकराव दर्शनशास्त्र के शिक्षकों के इस छोटे समूह में बेहद आम बात है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन में बिताया है. कुछ वर्षों पहले एक शास्त्रार्थ में, एक प्रोफेसर, जिनकी विद्वता का बड़ा सम्मान था, अपने एक प्रतिद्वंद्वी की शंकर के सिद्धांतों की व्याख्या से इतने क्रोधित हो गए थे कि उसका खंडन करने के दौरान ही हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई.
ये कुछ-कुछ अवास्तविक लग रहा था जो मैंने देखा था. यहां, विश्वविद्यालय के एक साधारण से उपेक्षित कमरे में, मुट्ठी भर लोग इस तरह चर्चा कर रहे थे जैसे कि उनका जीवन इस पर निर्भर हो, उन मुद्दों पर जिनके बारे में अधिकतर हिंदुओं को कुछ नहीं पता! क्या मैंने अभी-अभी जो देखा था, वो उसी चीज का पुनरोत्थान था, जो शंकर के समय में गंगा के तट पर होता रहा होगा? शायद हां, लेकिन अंतर ये है कि तब साधारण लोग भी परिचर्चा के विषयों से पूरी तरह अनजान नहीं रहते थे, और वास्तव में धारणाओं और तर्कों के हिंदू दार्शनिक अनुभव को जीते थे.
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय भारत के सबसे पुराने शैक्षणिक संस्थानों में से है. इसकी स्थापना 1791 में हुई थी, एक अंग्रेज, जोनाथन डंकन के द्वारा, जिन्होंने गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस को एक संस्कृत महाविद्यालय की जरूरत बताई थी ताकि महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद किया जा सके, जिनमें प्रशासनिक जरूरतों के ग्रंथ भी शामिल थे. 20,000 रुपए के सालाना बजट को मंजूरी मिली, और जॉन मुइर को कॉलेज का पहला प्रिंसीपल नियुक्त किया गया. 1857 में, कॉलेज ने पोस्टग्रेजुएट की पढ़ाई शुरू की, और 1974 में इसे विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया. लेकिन ये विश्वविद्यालय अब मुरझा रहा है क्योंकि ज्यादातर भारतीयों के पास संस्कृत और इसके ग्रंथों में समाहित ज्ञान के लिए समय नहीं है. इसलिए, कई मायनों में हिंदू दर्शनशास्त्र की गूढ़ताओं पर चर्चा के लिए संस्कृत श्लोक उद्धरित करते हुए उत्तेजनापूर्वक बहस करने वाले प्रोफेसर अपने ही देश में अवशेष जैसे हो गए हैं.
कॉलेज के सरस्वती पुस्तकालय, जिसकी स्थापना 1894 में हुई थी, में संस्कृत पांडुलिपियों का सबसे मूल्यवान संग्रह है, लेकिन उनमें से अधिकतर पढ़े भी नहीं गए हैं. विश्वविद्यालय का सूत्रवाक्य है श्रुतम् मे गोपाय-- मेरा ज्ञान सुरक्षित रहे. दुर्भाग्यवश, ऐसा लगता है कि ब्रिटिश - भले ही किन्ही खास वजहों से- इसे लेकर ज्यादा चिंता करते थे, जितनी हम आज करते हैं.
कोई भी प्रोफेसर मुझे वाराणसी में शंकर के पड़ाव के बारे में ऐतिहासिक विवरण नहीं दे सका. उनका तर्क था कि उस युग में, विद्वानों का ध्यान विचारों और अवधारणाओं पर अधिक था, बनिस्पत काल-क्रम और कार्यस्थल के, और इस कारण भावी पीढ़ी के लिए कोई विवरण नहीं छोड़ा गया. जब शंकर यहां रहते थे तो बनारस कैसा दिखता था? वो कहां रहते थे? और वो कितने समय तक यहां रहे थे? ऐसा लगता था कि किसी को नहीं पता. निश्चित रूप से, शहर काफी छोटा रहा होगा, घाटों या नदी तट पर सीढ़ियों, और गंगा के तट पर बनी बस्तियों तक सीमित रहा होगा. संकीर्ण गलियों की भूलभुलैया, जो नदी के किनारे तक ले जाती है, रही तो होगी, लेकिन काफी कम जनसंख्या के साथ; तुलनात्मक रूप से शहर साफ रहा होगा, नदी साफ रही होगी, और तट पर अधिक स्थान होगा, जहां साधु और विद्वान अपने परिचारकों के साथ ठहर सकते थे.
मैं केदार घाट गया जहां संभवतः चौदहवीं सदी में श्रृंगेरी मठ की एक शाखा स्थापित की गई थी. मैंने ये निष्कर्ष ‘श्री जगद्गुरु शंकराचार्य मठ’ के भीतर लगी एक पट्टी से निकाला जिस पर लिखा था: “इस प्राचीन चंद्रमौलीश्वर लिंगम की स्थापना और पूजा पूजनीय श्री विद्यारण्य महास्वामीजी श्री श्रृंगेरी शारदा पीठाधिपति ने 1346 ईस्वी में की थी.” मठ के भीतर एक मंदिर है जिसमें गणेश और देवी शारदा की पूजा होती है, साथ ही उन दोनों के बीच में आदि शंकराचार्य की वैसी ही मूर्ति स्थापित है, जैसी कलाडी में है.
क्या श्रृंगेरी मठ ने इस स्थान को चुना क्योंकि शंकर यहां या इसके पास कहीं रहते थे? इस क्षेत्र में दक्षिण भारत के निवासियों की उपस्थिति बहुत अधिक है. ये क्षेत्रीय संबंध कितना पुराना है, और क्या दक्षिण से यात्री यहां बसने के लिए हजार वर्ष पहले आए थे? अगर ऐसा है, तो इस बात की संभावना है कि केरल से आने वाले शंकर ने यहां रहने का फैसला किया होगा. लेकिन, किसी के पास ये उत्तर हैं नहीं.
श्रृंगेरी मठ सुनसान दिख रहा था, जहां मुझे किसी शोध या अध्ययन की कोई हलचल नहीं दिखी. ऐसा लगता था कि ये बाहर से आने वालों के लिए सिर्फ एक धर्मशाला का काम करता था, और मैनेजरों को इसके अलावा किसी चीज में दिलचस्पी नहीं थी. शहर में मठ का एक आश्रम भी है, और कांची मठ का भी आश्रम है, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय परिसर के नजदीक है. इसे ‘श्री जगत गुरु शंकराचार्य आश्रम’ कहा जाता है. इसके द्वार पर एक बड़ा सा नोटिस बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है कि परिसर में धूम्रपान और गुटखा खाना मना है, लेकिन जो लोग इसे चलाते हैं उन्हें भी वाराणसी में जगद्गुरु के निवास से जुड़े किसी ऐतिहासिक ब्योरे का कुछ पता नहीं है.
मैं मणिकर्णिका घाट पर भी गया, क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि शंकर यहीं रहे थे. यहां, हर कोई मृतकों को चिताग्नि देने के काम में लगा था. जब मैं घाट की तरफ संकरी गलियों से जा रहा था, मृतकों को कंधा देने वाले लोग ‘राम नाम सत्य है’ का जाप करते हुए गुजर रहे थे, और मृतकों के शरीर का अंतिम संस्कार करने के साज-सामान जुटाने में लगे थे. अपने आप में ये बेमेल सा लगता है कि मृतकों का अंतिम संस्कार करने की जगह कितनी जीवंत है. किसी ऊष्णकटिबंधीय जंगल में फलने-फूलने वाले झाड़-झंखाड़ की तरह, घाट के हर कोने से जीवन फलता-फूलता दिखता है, और ध्वनि, स्पर्श, गंध और दृष्टि का प्रभाव इतना घना है कि वो अब निष्क्रिय और इंद्रियबोध से रहित इन शरीरों को मुक्त करने के प्रयासों पर हावी हो जाता है.
डॉ. राणा पी. बी. सिंह बीएचयू में भूगोल के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, और मैं उनसे विश्वविद्यालय परिसर में उनके साधारण से घर में मिलता हूं. उनका सादा बर्ताव आपको ये नहीं बताता कि वो इस बात के वैज्ञानिक कारणों की जांच करने के लिए विश्वविख्यात विशेषज्ञ हैं कि क्यों कोई स्थान पवित्र स्थल बनने के लिए चुना जाता है. डॉ. सिंह ने काशी के ‘पवित्र भूगोल’ और ‘अंतरिक्षीय ज्यामिति’ का सर्वेक्षण किया है, और इसके लिए उन्होंने इसके कई मंदिरों और पवित्र स्थलों के चारों तरफ चुंबकीय शक्तियों का अध्ययन किया है, साथ ही ग्लोबल पोजिशनिंग सैटेलाइटों के निष्कर्षों का मिलान पवित्र ग्रंथों और शहर की परंपराओं के साथ किया है.
वो मुझे बताते हैं कि काशी शब्द का अर्थ है ‘जहां अंतरिक्ष से आने वाला प्रकाश वृत्ताकार रूप में संकेंद्रित हो’. वो कहते हैं कि शहर में एक सुव्यवस्थित तीर्थगमन तंत्र है जिसमें चार ज्ञात ‘भीतरी पवित्र यात्राएं’ हैं और वो सभी प्रमाणित रूप से एक ही बिंदु पर समाप्त होती हैं. ये बिंदु, जिसे वो ‘एक्सिस मुंडी’ कहते हैं, ज्ञान वापी है. अगर ये सच है तो ये मेरी तलाश के लिए एक दिलचस्प संभावना का रास्ता खोल देता है. ज्ञान वापी, जिसका अर्थ है ज्ञान का कुआं, उसी स्थान पर है जहां शहर का सबसे प्रसिद्ध शिव मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर हुआ करता था. मंदिर में स्थापित शिवलिंग भारत भर में बारह ऐसे लिंगों में से एक है, और ये बेहद प्राचीन है जिसका वर्णन स्कंद पुराण और दूसरे प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मिलता है. 1194 ईस्वी में, मंदिर को कुतुबुद्दीन ऐबक ने नष्ट कर दिया था, लेकिन तेरहवीं सदी में एक गुजराती व्यापारी ने इसका पुनर्निर्माण कराया था. इसे दोबारा पंद्रहवीं सदी में हुसैन शाह या सिकंदर लोधी ने नष्ट कर दिया था, लेकिन बादशाह अकबर के शासनकाल में राजा मानसिंह ने इसका फिर से पुनर्निर्माण कराया था.
हालांकि1669 ईस्वी में, औरंगजेब ने निर्णायक रूप से मंदिर को तोड़ दिया और उसके अवशेष पर ज्ञान वापी मस्जिद बनवा दी. (मंदिर के अवशेष पर बनी नई मस्जिद की जानकारी 1834 के जेम्स प्रिंसेप के स्केच से मिलती है.) अंत में 1780, ईस्वी में, होलकर रानी, अहिल्या बाई ने पास की जगह पर एक नया मंदिर बनवाया.
इतिहास कुछ भी हो, मूल विश्वनाथ मंदिर निश्चित रूप से इसकी मूल जगह, ज्ञान वापी पर रहा होगा, जब शंकर ने वाराणसी की यात्रा की होगी. अब, शंकर का शिव से लगाव तो ज्ञात है, और वो चाहते होंगे कि अपना निवास अपने प्रिय देवता, और काशी के सर्वाधिक श्रद्धेय मंदिर के पास रहे. लेकिन इस संभावना में एक और पहलू है. ज्ञान वापी ललिता घाट पर स्थित है. ललिता, कल्याण की प्रतीक, शिव की पत्नी पार्वती का पर्याय है. ललिता सहस्रनामा, ब्रह्मांड पुराण में एक ग्रंथ है और शक्ति पूजकों के लिए महत्वपूर्ण पुस्तक है. शक्ति संप्रदाय और ‘देवी माता’ की अवधारणा के प्रति शंकर का झुकाव इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि उनके द्वारा स्थापित चारों मठ शक्तिपीठ कहलाते हैं.
साथ ही, मणिकर्णिका घाट यहां से बस कुछ ही दूरी पर है. ये काशी के लगभग अस्सी घाटों में सबसे पुराने में से है और इसका वर्णन पांचवी सदी के एक गुप्त काल अभिलेख में मिलता है. मणिकर्णिका का अर्थ है कान में पहनने वाले कुंडल. पौराणिक मान्यता के अनुसार, अपने पिता दक्ष के स्वयं और अपने पति के प्रति रूखे व्यवहार के बाद जब सती ने आत्मदाह कर लिया, तो दुख से भरे शिव ने उनके मृत शरीर को उठाया और क्रोध में भरकर हिमालय पर तांडव करने लगे. आखिरकार, उनके दुख को खत्म होता ना देखकर, विष्णु ने सुदर्शन चक्र की मदद से सती के शरीर को इक्यावन टुकड़ों में बांट दिया जो भूमि पर गिर गए. जहां भी उनके शरीर का कोई टुकड़ा या परिधान गिरा, वो एक शक्तिपीठ बन गया. पौराणिक मान्यता के अनुसार, सती का कुंडल मणिकर्णिका में गिरा और तब से इस घाट का नाम मणिकर्णिका घाट पड़ा. इसलिए, शक्ति संप्रदाय के लिए मणिकर्णिका घाट एक महत्वपूर्ण पूजा स्थल है और इसे एकान्य शक्तिपीठ कहा जाता था.
प्रोफेसर सिंह बताते हैं कि मणिकर्णिका घाट को विशेष तौर पर श्मशान स्थल के रूप में देखा जाना सिर्फ अठारहवीं सदी के अंत में शुरू हुआ है. इसलिए, ये कहना कि वाराणसी में अपने पड़ाव के दौरान शंकर, शिव के सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर विश्वनाथ मंदिर, और साथ में शक्ति संप्रदाय (जिसके प्रति शंकर का झुकाव बाद के प्रमाणों से सिद्ध होता है) के महत्वपूर्ण स्थलों ललिता और मणिकर्णिका घाट के पास रहना चाहते होंगे, निराधार नहीं है. लेकिन, ये सिर्फ एक अनुमान है, क्योंकि इस बात का कोई ठोस प्रमाण (सिवाय चिदविलास की जीवनी में एक बार वर्णन को छोड़कर) उपलब्ध नहीं है. ये इस बात का सबूत है कि पारंपिरक रूप से इतिहास लेखन की उपेक्षा तो हुई है ही, हाल के दिनों में, अकादमिक शोध और जिज्ञासा भी उपेक्षित है.
काशी में शंकर के आवास की बिलकुल सही जगह जो भी हो, वहां उनके जीवन से जुड़ी कुछ घटनाओं का वर्णन उनके जीवनीकारों ने किया है. शंकर दिग्विजयम के नाम से उनकी कई जीवनियां हैं, लेकिन सबसे लोकप्रिय है माधवाचार्य की लिखी जीवनी, जिन्होंने बाद में श्री विद्यारण्य नाम धारण किया और श्रृंगेरी शारदा पीठम् के 12वें प्रमुख (1380-1386) बने.
इन पारंपरिक विवरणों में, शंकर के द्वारा किए गए चमत्कारों में खूब अतिशयोक्ति दिखती है. अगर इन्हें जीवनीकारों की कल्पनाशक्ति मान लें, तो भी हम कुछ ऐसी घटनाएं देखते हैं जो सभी विवरणों में एक जैसी हैं और, इसलिए, उनमें कुछ तो आधार होना चाहिए. इस बात पर सभी एकमत हैं कि काशी में, शंकर को अपने सबसे अधिक समर्पित भक्तों में एक, सानंदन मिला था. किवदंती है कि एक दिन जब सानंदन नदी की दूसरी ओर था, शंकर ने उसे चलते हुए नदी पार कर लौटने को कहा. बिना कुछ सोचे वो शिष्य, पूरी आस्था के साथ, आज्ञापालन करने लगा. जब उसने ऐसा किया तो गंगा ने उसकी मदद के लिए एक कमल उत्पन्न किया, और फिर सानंदन ने वास्तव में चलकर नदी पार की. इसके बाद से, शंकर ने उसका नया नाम पद्मपाद (जिसके पैरों में कमल हो) रख दिया.
लेकिन किंवदंतियों को छोड़ दिया जाए तो, वाराणसी की तीन घटनाएं हैं, जो शंकर की सोच और उस काल की सामाजिक संरचना का चित्र प्रस्तुत करने के लिए महत्वपूर्ण हैं. पहली घटना है उनकी एक चांडाल से मुलाकात, जो पारंपरिक रूप से समाज के सबसे निचले पायदान से आने वाला माना जाता है. ये मुलाकात तटबंध की संकरी गलियों में हुई थी. दरअसल, शंकर गंगा में स्नान के लिए जा रहे थे जब उन्होंने चांडाल को आते देखा. उन दिनों, माना जाता था कि इस जाति के लोगों की उपस्थिति मात्र से ब्राह्मण अशुद्ध हो जाते हैं, और इसलिए शंकर के शिष्यों ने चांडाल को रास्ते से हट जाने को कहा.
लेकिन, चांडाल ने इसका प्रतिकार करते हुए प्रश्न पूछा: ‘अद्वैत सिद्धांत में ऐसा अंतर कैसे आ गया कि “ये एक चांडाल है और ये एक ब्राह्मण है”? आखिरकार, सभी शरीरों में एक जैसी आत्मा है, चाहे उनकी जाति कोई भी हो?’
शंकर ये सुनकर भौचक्के रह गए, और तुरंत ही कहा कि जो भी ब्रह्म को एकमात्र वास्तविकता मानता है और सभी आत्माओं को एक समान देखता है, वो आदरणीय है. दूसरी सभी भिन्नताएं असत्य हैं, और चांडाल, जिसने सर्वोच्च चेतना की एकता का अनुभव कर लिया है, मेरे गुरु के समान है. यही विचार शंकर की पांच छंदों की रचना, मनीषा पंचकम में प्रतिस्थापित किया गया है, जिसमें से एक छंद का अर्थ कुछ इस प्रकार है:
मैं ही ब्रह्म हूं. और, ये संपूर्ण जगत शुद्ध चेतना से प्रसारित है. यह सब, बिना किसी अवशिष्ट के, अविद्या के माध्यम से मेरे द्वारा आरोपित है जिसके तीन गुण हैं (सत्व, रज और तम). इसलिए, वो, जिसमें शाश्वत, निष्कलंक और अद्वितीय सुख प्रदान करने वाली सर्वोच्च सत्ता यानी ब्रह्म के बारे में सच्चा ज्ञान है, वो गुरु है, चाहे वो चांडाल हो या ब्राह्मण. ये मेरा अंतिम दृष्टिकोण है.
जाति प्रथा पर शंकर के विचारों पर विस्तार से उनके दर्शनशास्त्र पर अध्याय में चर्चा की गई है. यहां ये बताने की जरूरत है कि कुछ जीवनीकारों ने कट्टर और पक्षपाती सामाजिक तंत्र की वैधता को सही साबित करने के लिए चांडाल की विद्वता को कम महत्व दिया है. उनके विवरण के मुताबिक, जैसे ही शंकर ने अपने विचार रखे - जो सामाजिक-धार्मिक कट्टरता को नकारने वालों के लिए क्रांतिकारी थे - चांडाल गायब हो गया और उसकी जगह पर शिव और चार वेद उपस्थित हो गए. यहां कोशिश ये है कि समानता के लिए चांडाल के असाधारण कथन को नगण्य कर दिया जाए, और पूरी घटना को, शिव और वेदों के रूप में, एक पवित्र आवरण पहनाया जाए.
संस्कृत विश्वविद्यालय के जिन विद्वानों से मैं मिला, उन्होंने भी काफी कुछ ऐसा ही किया, जब उन्होंने बताया कि चांडाल वाली घटना और कुछ नहीं बल्कि ये प्रदर्शित करने का तरीका है कि काशी में निचले से निचले समुदाय में भी दार्शनिकता भरी हुई थी. हालांकि, सच यही लगता है कि शंकर के लिए चांडाल से उनकी मुलाकात, मानव-निर्मित संस्थानों द्वारा विकसित सामाजिक बहिष्कार को स्पष्टतया अस्वीकार करने का तरीका था, और जो उनके अपने दार्शनिक तर्कों से मेल खाता है.
दूसरी घटना है संस्कृत व्याकरण सीखने में उत्साहपूर्वक लगे एक व्यक्ति के प्रति शंकर की प्रतिक्रिया. माना जाता है कि उसे व्याकरण के नियम जोर-जोर से बोलकर और रटकर याद करने की कोशिश करते हुए देखने के बाद, शंकर ने उसी पल अपने सर्वाधिक लोकप्रिय मंत्रों में से एक, भज गोविंदम्, की रचना की, जिसमें हर छंद की अंतिम पंक्ति में कहा गया है: ‘गोविंद की पूजा करो, गोविंद की पूजा करो, गोविंद की पूजा करो, हे मोहग्रस्त! क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकते!’
भक्ति मंत्रों के उदाहरण के रूप में, भज गोविंदम् का स्थान काफी ऊपर है, और ये आज भी भारत भर में गाया जाता है. ये दिखाता है कि शंकर का विश्वास मशीनी ज्ञान में नहीं था, और वो ज्ञान मार्ग के प्रयोग की जरूरत पर जोर देते थे. वो इस बात पर बल देते थे कि ऐसा ज्ञान अर्जित किया जाए जो नश्वर जगत, जिसे हम जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं, की क्षणभंगुरता को समझाए और मोक्ष प्राप्ति का रास्ता दिखाए.
तीसरी घटना एक वाद-विवाद के बारे में है जो ब्रह्म सूत्र की व्याख्या को लेकर एक वृद्ध व्यक्ति के साथ हुआ था. तर्क-वितर्क लगभग एक सप्ताह तक चलते रहे, और दोनों ही प्रतिभागियों में से कोई हार मानने को तैयार नहीं था, और, जैसा मैंने संस्कृत विश्वविद्यालय में संक्षिप्त शास्त्रार्थ में देखा था, इस बहस में निश्चित रूप से क्रोध, व्यंग्योक्ति और कटुता का पुट रहा होगा. कहानी के अनुसार, अंत में शंकर के शिष्य पद्मपाद ने विष्णु से आग्रह किया कि इस बहस को समाप्त करें. आखिरकार ये बात सामने आई, जैसा पारंपरिक जीवनियों में दावा किया गया है, कि वृद्ध व्यक्ति ब्रह्म सूत्र के लेखक व्यास का अवतार था. ये घटना संभवतः इस तथ्य को दर्शाती है कि वेदांत सूत्र पर शंकर की व्याख्या के ऊपर काफी बहस होती थी, और शायद उन्हें कभी-कभी अपने पुराने मत को त्यागकर प्रतिद्वंद्वी की बात को स्वीकार करना पड़ता था. यहां वृद्ध व्यक्ति ऐसा ही कोई प्रतिद्वंद्वी हो सकता है, जिसे संतुष्ट करना शंकर को आसान ना लगा हो और वेदांत दर्शन के साहित्य का उसका ज्ञान इतना विशाल हो कि उसे व्यास के एक अवतार के रूप में देखा जाने लगा हो. [सी. एन. कृष्णासामी अय्यर, श्री शंकराचार्य, हिज लाइफ एंड टाइम्स, जी.ए. नटेसन एंड कंपनी, चेन्नई, तिथि अज्ञात, पृष्ठ 28-29 ]इसलिए, ऐसा लगता है कि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ वाली जगह, महिष्मती, वहीं हो सकती है जहां आज महेश्वर और मंडलेश्वर हैं. कम से कम, जो लोग यहां रहते हैं वो इस बात पर पूरा भरोसा करते हैं. हालांकि, हम उन दृष्टिकोण को भी पूरी तरह नकार नहीं सकते जो महिषी को बिहार के सहरसा जिले में बताते हैं. यहां के निवासी भी मंडन मिश्र पर अपना दावा पूरे दमखम के साथ करते हैं.
राजा के पुनर्जीवित होने को एक चमत्कार माना गया, और मृत शासक के शरीर में शंकर महल में चल दिए. वहां, मृत राजा की पत्नियों की संगति में, उन्होंने रतिक्रिया की कलाएं सीखीं, और काम शास्त्र में निपुण हो गए. और जैसा उनके जीवनीकार कहते हैं, शंकर अपने इस नए जीवन और महल की विलासिता में इतने रम गए कि वो ये भी भूल गए कि उन्हें एक महीने के अंदर गुफा में रखे अपने शरीर को पुनर्धारण करना है. इससे उनके शिष्य बहुत चिंतित हो गए, और ये याद दिलाने के लिए कि वो वास्तव में कौन हैं, उनके सामने कुछ दार्शनिक गीत गाए.
इस महत्वपूर्ण कहानी का मूल्यांकन छिटपुट जीवनीकारों द्वारा बाद में जोड़े गए रंग-बिरंगे विवरणों से परे किए जाने की जरूरत है. शास्त्रार्थ वास्तव में इस चीज का प्रतीक था कि रीति-रिवाजों से अधिक महत्वपूर्ण हैं विचार, और वो ऐसे समय में हुआ जब इसका विपरीत ही हिंदुओं के लिए जीवन शैली का स्वीकार्य मार्ग बनता जा रहा था. इसी कारण इस कहानी को शंकर के जीवन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा बताया जाता है.
छठी और सातवीं शताब्दी में हिंदुत्व का पुनरोत्थान हुआ और इसकी तुलना में बौद्ध धर्म का पतन. हालांकि ये पुनरोत्थान पौराणिक कथाओं, अंध भक्ति, और इससे भी अधिक, कुमारिल भट्ट जैसे मीमांसकों द्वारा स्थापित वैदिक प्रथाओं के अनुसरण पर बहुत अधिक केंद्रित था.कहीं ना कहीं, इन सबमें, विचारों के महत्व को पीछे छोड़ा जा रहा था जो हिंदू दृष्टि का मौलिक आधार था. वैदिक नियम-कायदों के अनुसार बिलकुल सटीक प्रथाओं का पालन करने के लिए, उपनिषदों की महिमापूर्ण आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि को भुलाया जा रहा था. मंदिर फल-फूल रहे थे, लेकिन पूजा के तौर-तरीकों और इसके पीछे की दार्शनिक सोच में असंबद्धता थी. एक बार फिर जरूरत थी मोक्ष के लिए ज्ञान मार्ग पर जोर देने की, हिंदुत्व को फिर से इसकी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि से जोड़ने की, और मनन-चिंतन की महत्ता को फिर से सामने लाने की. शंकर का यही प्रत्यक्ष लक्ष्य था, और इसे प्रचारित करने के लिए मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने से बेहतर और कोई उपमा नहीं हो सकती थी.
महिषी का ये प्रतिष्ठित पंडित एक दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी था, और उसके समर्थक उसे स्वयं ब्रह्मा का अवतार मानते थे. निस्संदेह वो कुमारिल भट्ट के सर्वाधिक प्रसिद्ध शिष्य थे, और मीमांसा पर कई मौलिक रचनाओं के लेखक थे जैसे मीमांसानुक्रमणिका, भावना-विवेक और विधि-विवेक. इसके अलावा उन्होंने भाषा की दार्शनिकता पर एक महत्वपूर्ण रचना लिखी स्फोट सिद्धि, और भ्रम के सिद्धांतों पर पुस्तक लिखी विभ्रम-विवेक. इसलिए शास्त्रार्थ में शंकर से उनकी पराजय ने भारत भर में हिंदुत्व की आस्थाओं और परंपराओं पर गहरा प्रभाव डाला. संचार के आधुनिक साधनों के बिना भी, शास्त्रार्थ की प्रगति को और तर्कों की बारीकियों को हजारों लोगों ने देखा, और फिर देश भर में हजारों और लोगों तक ये एक-दूसरे से बातचीत के माध्यम से पहुंचा. जब हम इस शास्त्रार्थ को हिंदुत्व के विकास के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो इसकी महत्ता और बढ़ जाती है, और यही कारण है कि शंकर के जीवन के हर वर्णन में इसे प्रमुख स्थान दिया गया है.