बाबा को धीमा बोलना नहीं आता था,
नाम भी पुकारते नहीं चिल्लाते थे
चाय पीते कम सुड़कते ज्यादा थे,
खांसते तो मुंह पर हाथ नहीं रखते,
खंखार थूकते हुए फेफड़े की पूरी हवा भी निकाल देते
नफासत उनमें नदारद थी
लेकिन भीतर आदमीयत का बरगद था
उसकी जटाएं धमनियों में फैली थीं
तने की आत्मा थी, हरी-भरी थी नजर
जैसे बरगद सदियों खड़ा रहता है,
वैसे ही बाबा बरसों खड़े रहे
और मेरे पिता तसल्ली से बैठ सके
हम बांभन थे, बाबा बाबूसाहब,
लेकिन क्या फर्क पड़ता था?
बाबा रहे तो ताउम्र बाबा बनकर,
गए तो अपनी मूर्ति देकर
अब उस घर में कोई नहीं रहता
बाबा के दालान पर एक रिश्तेदार रहता है,
जिसने कबूतर के दड़बों से उसका दम घोंट दिया है
जैसे बाबा की तरह दालान खुला था,
वैसे ही उस रिश्तेदार की तरह वो बंद है
अब वहां से उसकी कुटिल निगाह बोलती है,
वो सोमालिया का गिद्ध बनकर बैठा है,
दालान से दो तल्ले तक की भूख है उसकी
बाबा दालान पर ही रहे,
दिन में तीन पहर ही ऊपर आए,
बीते हुए बरसों के कई पहर से,
आने वाले बरसों के कई पहर तक
हमारे मन के सभी तलों पर उनकी आवाजाही होती रहेगी.
यह कविता आज तक के हमारे सहयोगी देवांशु झा ने लिखी है.