हाल ही में जब लालू, मुलायम, नीतीश समेत कई बड़े नेताओं ने मिलकर एक पार्टी बनाने का फैसला किया तो कई भौंहें तन गईं. जनता दल परिवार का फिर से एक साथ आना भारतीय राजनीति की छोटी घटना नहीं है. इसी मसले पर यह कविता देवांशु झा ने हमें लिख भेजी है. देवांशु पेशे से पत्रकार हैं और आज तक से जुड़े हैं.
वे बैठे थे पर भीतर से ऐंठे थे
अपनी जिद पर अड़े थे,
छाता लिये खड़े थे
बाहर धूप कड़ी थी
विकट बहुत ही घड़ी थी
एक अदृश्य़ छाता रखा था,
लेकिन छाता अपना प्यारा था
उदय के दिनों का सहारा था,
अब अस्त हो रहा बेचारा था
पर नेता ऐसे ही कोई नहीं बनता
मूर्ख यूं ही नहीं बनती जनता
बरसों सधाना पड़ता है,
बहुत कुछ खपाना पड़ता है,
तब जाकर समय सड़ता है
उस सड़े समय को बचाना है,
इसलिए नया दल बनाना है.
ताकि ले सकें उससे लोहा
जो गाता है विकास का दोहा
पर अपना छाता छूट नहीं पाता
एक छाते के नीचे रहा नहीं जाता
सबके अपने-अपने छोटे छाते रहें
कि सब मिल-जुल कर खाते रहें
चलो घर चलते हैं आज के लिए
फिर कभी बैठेंगे कल के लिए
अपनी-अपनी छतरी उठाए
चल पड़े वे दिग्गज सारे
कई दलों को गलाकर
बनने वाले एक दल के लिए