भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित कवि आर. चेतनक्रांति का आज (2 दिसंबर) जन्मदिन है. इस मौके पर पेश है उनकी सर्वाधिक चर्चित कविताओं में से एक, सीलमपुर की लड़कियां.
सीलमपुर की लड़कियां `विटी´ हो गईं
लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
जन्म से लेकर पंद्रह साल की उम्र तक
उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया
पद्रह साला बुढ़ापा
जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
विनम्र होकर झुक जाती थी
और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
खुर्राट बुढ़िया
पचपन साल की उम्र में आकर लेस्बियन हुई!
यह डाक्टर मनमोहन सिंह और एम टीवी के उदय से पहले की बात है
तब उन लड़कियों के लिए न देस देश था
न काल-काल
ये दोनों
दो कूल्हे थे
दो गाल
और छातियां
बदन और वक्त की हर हरकत
यहां आकर मांस के
एक लोथड़े में बदल जाती थी
और बंदर के बच्चे की तरह
एक तरफ लटक जाती थी
यह तब की बात है जब हौजखास से दिलशाद
गार्डन जाने वाली
बस का कंडक्टर
सीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था
फिर वक्त ने करवट बदली
सुष्मिता सेन मिस यूनिवर्स बनीं
और ऐश्वर्य राय मिस वर्ल्ड
और अंजलि कपूर जो पेशे से वकील थी
किसी पत्रिका में अपने अर्धनग्न चित्र छपने को दे आई
और सीलमपुर
‘शाहादरा की बेटियों के गालों
कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथड़े
सप्राण हो उठे
वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
पंद्रह साला इन लड़कियों की
हजार साला पोपली आत्माएं
अनजाने कंपनों
अनजानी आवाजों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
और मेरी ये बेडौल पीठ वाली बहनें
बुजुर्ग वासना की विनम्रता से
घर की दीवारों से और गलियों-चौबारों से
एक साथ तटस्थ हो गई
जहां उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
वहां वे स्तब्ध होने लगीं
जहां उनसे मेहनत की उम्मीद थी
वहां वे यातना कमाने लगीं
जहां उनसे बोलने की उम्मीद थी
वहां से सिर्फ अकुलाने लगीं.
उनके मन के भीतर दरअसल
एक कुतुबमीनार निर्माणाधीन थी
उनके और उनके माहौल के बीच
एक समतल मैदान निकल रहा था
जहां चौबीसों घंटे खटखट हुआ करती थी.
यह उन दिनों की बात है
जब अनिवासी भारतीयों ने
अपनी गोरी प्रेमिकाओं के ऊपर
हिंदुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना शुरू किया था.
और बड़े-बड़े नौकरशाहों और नेताओं की बेटियों ने
अंग्रेजी पत्रकारों को चुपके से बताया था
कि एक दिन वे किसी अनिवासी के साथ उड़ जाएंगी
क्योंकि कैरियर के लिए यह जरूरी था
कैरियर जो आजादी था
उन्हीं दिनों यह हुआ कि
सीलमपुर के जो लड़के
प्रिया सिनेमा पर खड़े
युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे
वहां की सौन्दर्यातीत उदासीनता से
बिना लड़े ही पस्त हो गए
चौराहों पर लगी मूर्तियों की तरह
समय उन्हें भीतर से चाट गया
और वे वापसी की बसों में चढ़ लिये
उनके चेहरे एक खूंखार तेज से तप रहे थे
वे साकार चाकू थे वे साकार शिश्न थे
सीलमपुर उन्हें जज्ब नहीं कर पाएगा
वे सोचते आ रहे थे
उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
जो लड़कियों की टांगों में
तराश दी गई थीं.
और उस मैदान के बारे में
जो उन लड़कियों
और उनके समय के बीच
जाने कहां से निकल आया था
इसलिए जब उनका पांव
उस जमीन पर पड़ा
जिसे उनका स्पर्श पाते ही
धसक जाना चाहिए था
वे ठगे से रह गए
और लड़कियां हंस रही थीं
वे जाने कहां की बस का इंतजार कर रही थीं
और पता नहीं लगने दे रही थीं
कि वे इंतजार कर रही हैं.
(राजकमल प्रकाशन से छपे चेतन क्रांति के कविता संग्रह 'शोकनाच' से साभार)