
"भाया, धंधा नी पहला उसूल. माल वो बेच्चो जो गाहक चावे. बासी, सड़ा, गला माल कौन लेवे. सर्दी में बर्फ बेचोगे तो कौन खरीदेगा. नई पीढ़ी का भी वही हिसाब है. ऊनी और खादी कपड़े इन्हें जमते नहीं. फिर रखने से फायदा क्या. गल्ला पैसों से भरना है तो कुछ नया आइटम रक्खो. जर्सी, स्वेटर, शॉल के दिन गए. अब जमाना बॉम्बर, पफर और डाउन जैकेट का है." बाहरी दिल्ली के कतरन मार्केट में एक गुजराती दुकानदार की इस बात ने अचानक मेरा ध्यान खींच लिया.
सर्दी का मौसम आ गया है. बारिश के बाद दिल्ली-एनसीआर में तापमान भी लुढ़क गया है. ठंडी हवा बदन में सुई की तरह चुभ रही है. इसलिए बाजार में गर्म कपड़ों का कारोबार तेज है. इसमें भी बॉम्बर, पफर या डाउन जैकेट का सेग्मेंट काफी ट्रेंड में है. इसके लिए ग्राहक कोई भी कीमत देने को तैयार है. जितनी अच्छी क्वालिटी, उतने ज्यादा दाम.
जैकेट खरीदने मैं भी एक दुकान में गया और पूछा, 'क्या आपके पास डाउन जैकेट मिलेगी?'
दुकानदार- हां, मिल जाएगी. हमारे पास इसके हर साइज में 15 कलर हैं. इस विंटर सीजन में इसकी डिमांड काफी है. इसमें स्टाइल और कम्फर्ट दोनों की गारंटी होती है. बस थोड़े महंगे होते हैं.
दुकानदार के इतना कहते ही काउंटर पर डाउन जैकेट आ गई. एक फूली हुई जैकेट. मानो किसी ने पॉलिस्टर या लिनन के कपड़े में हवा भर दी हो. दिखने में स्टाइलिश और वजन कागज जितना हल्का.
हाथ में आते ही मैंने पूछा कि इसे डाउन जैकेट क्यों कहते हैं?
दुकानदार- इस जैकेट के अंदर पक्षियों के पंख होते हैं. जो कड़ाके की ठंड में भी शरीर को गर्म रखते हैं. इन्हीं पंखों को डाउन कहा जाता है. इसे पहनकर कश्मीर, शिमला, लद्दाख चले जाओ. या फिर एवरेस्ट. बर्फीली हवा छू भी नहीं पाएगी.
पंख वाली बात सुनकर दिमाग सुन्न पड़ गया. जैकेट के अंदर जिस हल्के मैटीरियल को मैं रूई या हवा समझ रहा था, वो असल में किसी पक्षी के पंख थे.

मैंने पूछा कौन से पक्षी का पंख?
दुकानदार- बत्तख. इसी के पंखों को डाउन या डक डाउन कहा जाता है.
क्या ये ऑरिजिनल है? माने इसमें पक्षी के पंख होने की बात झूठ तो नहीं?
दुकानदार- भाईसाब, जैकेट में अंदर की तरफ एक टैग लगा हुआ है, जो इसमें मौजूद मैटीरियल की गारंटी देता है.
मुझे भरोसा दिलाने के लिए उसने जैकेट में एक कोने से बारीक सा पंख निकालकर भी दिखा दिया. फिर मुस्कुराते हुए बोला- हम दो नंबर का काम नहीं करते. अगर कोई साबित कर दे कि इसमें बत्तख के पंख नहीं है तो जैकेट मुफ्त दे दूंगा.
इसकी सप्लाई आपके पास कहां से होती है?
दुकानदार- हमारे पास इसका माल होलसेल से आता है. दिल्ली में टैंकरोड और गांधीनगर मार्केट इसके मेन अड्डे हैं. इस तरह का ज्यादातर माल चीन से सप्लाई हो रहा है.
डाउन जैकेट कितने में मिल जाती है?
दुकानदार- नाइकी और एडीडास जैसे ब्रांडेड स्टोर्स में आपको इसके लिए 10 हजार से लेकर लाखों रुपए तक चुकाने पड़ सकते हैं. लेकिन हमारे पास ये सिर्फ तीन-चार हजार में मिल जाएगी.
दुकानदार की बात पूरी होने तक मेरी नजर जैकेट पर जमी रही. बाजार में जिस कपड़े का सौदा हजारों, लाखों में हो रहा है. उसकी कीमत असल में चुका कौन रहा है?
क्या कहती है PETA की रिपोर्ट?
पशुओं के साथ होने वाले अनैतिक व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाने वाली एनजीओ PETA (पीपल फॉर दि एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल) ने डाउन इंडस्ट्री के काले कारोबार की सच्चाई को उजागर किया है. इसकी एक रिपोर्ट में मुनाफे के लिए बेबस पक्षियों पर किए जाने वाले अत्याचार की पूरी कहानी दर्ज है.
रिपोर्ट के मुताबिक, पक्षियों की छाती पर फेदर या पंख की एक मुलामय परत को डाउन कहा जाता है. गार्मेंट मैनुफ्कैचरिंग इंडस्ट्री के लिए डाउन सोने जितना कीमती होता है. ऐसे पंखों के लिए मुख्य रूप से बत्तख और हंस को शिकार बनाया जाता है. पक्षियों की छाती से डाउन या पंख निकालने की प्रक्रिया भी बेहद दर्दनाक होती है.

आमतौर पर पक्षियों को मारकर उनके शरीर से पंख निकाले जाते हैं. तो कई बार जिंदा पक्षी के शरीर से ही पंख नोंच लिए जाते हैं. ताकि उनसे आगे भी बार-बार पंख लिए जा सकें. इस तरह बत्तख या हंस को दर्द, तकलीफ देने का ये सिलसिला महीनों-सालों तक जारी रहता है.
मुनाफे के लिए पक्षियों के साथ हिंसा
PETA के मुताबिक, इन पक्षियों को गर्दन या नाजुक पंखों से पकड़कर उठाया जाता है. पंजों को पैरों तले दबा लिया जाता है. या रस्सी से बांध दिया जाता है. इसके बाद बेरहमी से छाती के पंख नोंचे जाते हैं. इस प्रक्रिया में कई बार छाती का मांस फट भी जाता है. ऐसा होने पर पंख नोंचने वाला वर्कर सुई-धागे से जख्म को सिल देता है. यहां दर्द से झटपटाते पक्षी के पास बचने का कोई रास्ता नहीं होता.
इतना ही नहीं, हंस या बत्तख को डाउन के लिए जल्दी तैयार करने के दबाव में इन्हें खूब प्रताड़ित किया जाता है. इनके गले में एक नलकी ठूसकर पेट में जबरन मक्का के दाने भर दिए जाते हैं, जिससे इनका लिवर अपने नॉर्मल साइज से दस गुना तक बड़ा हो जाता है.

डाउन के लिए करीब ढाई महीने के पक्षी को अच्छा माना जाता है. इसे छह सप्ताह के अंतराल पर तब तक दोहराया जाता है, जब तक कि पक्षियों को मांस के लिए मार नहीं दिया जाता. या फिर उनकी प्राकृतिक मृत्यु नहीं हो जाती. PETA कहती है कि डाउन इंडस्ट्री के प्रोडक्ट खरीदना पशुओं पर होने वाली क्रूरता का समर्थन करना है.
कैसे बनता है स्टाइलिश डाउन जैकेट?
डक डाउन से बने स्टाइलिश जैकेट के प्रोडक्शन और देश-विदेश में इसकी भारी डिमांड को हमने साइंस एजुकेटर नेहा तलवार से समझा. उन्होंने बताया कि गार्मेंट मैनुफैक्चरिंग कंपनी जैकेट बनाने के लिए सबसे पहले पंख से फैदर और डाउन को अलग करती है. डाउन और फैदर दोनों बर्ड का ही पार्ट है. स्किन के बिल्कुल करीब छोटे-छोटे पंख डाउन होते हैं और फेदर उसके ऊपर का कवर.
इन दोनों को अलग करने के लिए एक एयर चैम्बर में ढेर सारे पंख डाले जाते हैं. फिर नीचे से हवा का प्रेशर दिया जाता है, जिससे चैम्बर में पंख उड़ने लगते हैं. जैसे ही हवा का प्रेशर बंद होता है, हैवी फेदर नीचे बैठ जाता है और हल्का होने के कारण डाउन ऊपर रह जाता है. डाउन निकालने के बाद इसे पॉलिस्टर या लिनिन जैसे कपड़ों के साथ डिजाइन के लिए भेज दिया जाता है. और इस तरह एक स्टाइलिश डाउन जैकेट बनकर तैयार हो जाता है. अमेरिका में 'द नॉर्थफेस' और न्यूजीलैंड में 'काठमांडू' नाम का ब्रांड डाउन जैकेट बनाने के लिए काफी फेमस है.

क्यों बढ़ रहा डाउन जैकेट का क्रेज?
नेहा तलवार ने बताया कि डाउन एयर इंसुलेटर है, जो पक्षियों को शरीर गर्म रखने में मदद करता है. यही वजह है कि बाजार में डाउन से बने जैकेट, मैट्रेस या बेड कवर काफी पसंद किए जाते हैं. डाउन ग्रे या सफेद दोनों रंग के हो सकते हैं. इसका रंग पक्षी की उम्र और डाउन निकालने के सीजन पर निर्भर करता है. हालांकि इसका रंग इन्सुलेशन की क्षमता को प्रभावित नहीं करता है.
डाउन जैकेट की जरूरत ऐसे देशों में ज्यादा महसूस होती है जहां तापमान माइनस डिग्री टेम्परेचर तक चला जाता है. न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन, हंगरी और वियतनाम जैसे देशों में इसकी डिमांड बहुत ज्यादा है. भारत के अधिकांश हिस्सों में तापमान इतना नहीं गिरता. इसलिए यहां डाउन जैकेट की कोई खास जरूरत नहीं है. इसकी जगह सिंथैटिक युक्त जैकेट या ऊनी कपड़ों को प्राथमिकता देना ज्यादा बेहतर विकल्प है.