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फेनी: पुर्तगालियों के तोहफे से बनी वो 'देसी टकीला', जो गोवा तक ही सिमट गई

गोवा के नाम सुनते ही चमचमाती धूप, नीला समंदर, पुराने चर्च समेत कई तस्वीरें हमारे दिमाग में उभरने लगती हैं. इन तस्वीरों के साथ-साथ जो एक और चीज़ हमारे दिमाग में आती है, वो है फेनी. फेनी और गोवा का रिश्ता 500 साल पुराना है. फेनी गोवा की लोकल ड्रिंक्स में गिनी जाती है. आइए जानते हैं कैसे गोवा का अहम हिस्सा बनी फेनी.

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Feni (Pic Credit: Sunita Katoch / Flickr )
Feni (Pic Credit: Sunita Katoch / Flickr )

गोवा का नाम आते ही जेहन में कुछ तस्वीरें कौंधती हैं. चमचमाती धूप, नीला समंदर, पुराने चर्च, कसीनो, रंगीन पार्टियां, स्वादिष्ट सी-फूड,...वगैरह-वगैरह. हालांकि, भारत के पश्चिमी समुद्री तट पर बसे इस छोटे से इलाके में हर साल घूमने पहुंचे पर्यटकों को एक चीज और अपनी ओर खींचती है, जो है तेज गंध वाली फेनी. फेनी और गोवा का वैसा ही रिश्ता है, जैसा स्कॉटलैंड और स्कॉच, मेक्सिको और टकीला या शैंपेन और फ्रांस के बीच है. गोवा, स्कॉटलैंड और मेक्सिको, इन तीनों ही जगहों की एक खास किस्म की शराब की वजह से सांस्कृतिक पहचान है. फेनी की बात करें तो यह एक ऐसी एल्कॉहलिक ड्रिंक है, जिससे गोवा का रिश्ता करीब 500 साल पुराना है. मुख्यत: काजू से तैयार होने वाली इस ड्रिंक की छवि बहुत हद तक साधारण लोगों की शराब के तौर पर रही है. हालांकि, पिछले कुछ सालों से गोवा सरकार और यहां के कारोबारियों की कोशिशों के बाद फेनी लोकल से ग्लोबल होने की राह पर बढ़ने की कोशिश कर रही है. 

स्थानीय गौरव का प्रतीक 
गोवा के कई बुजुर्ग आज भी किसी को जुकाम होने पर फेनी की एक घूंट लेने की सलाह देते हैं. वहीं, झींगा मछली वाली स्वादिष्ठ प्रॉन बालचाओ (Prawn Balchao) डिश को भी संपूर्ण करने के लिए फेनी डालने की जरूरत पड़ती है. डाई हार्ड फैंस इसे नीट पीते हैं तो आम लोग वोदका की तरह दूसरे ड्रिंक्स में मिलाकर. हां, पहली बार पीने वालों के लिए इसकी तेज महक एक बड़ी परेशानी का सबब बन सकती है. गोवा में यह उतनी ही आसानी से उपलब्ध है, जैसे शहरों-कस्बों में परचून की दुकानें. एक स्थानीय कारोबारी नंदन कुडचादकर तो इससे इतने प्रभावित हुए कि इन्होंने एक पूरा का पूरा म्यूजियम ही फेनी के नाम कर दिया. गोवा के कैंडोलिम बीच पर बने इस म्यूजियम का नाम ऑल अबाउट एल्कॉहल है.  देखा जाए तो सदियों से गोवा की संस्कृति का हिस्सा होने की वजह से फेनी स्थानीय गौरव का प्रतीक भी बन चुकी है. 

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फेनी का मतलब क्या, कैसे हुई शुरुआत 
कहा जाता है कि फेनी नाम संस्कृत शब्द 'फेना' से जुड़ा है, जिसका मतलब है झाग. गोवा में इसके दो विकल्प कोकोनट फेनी और काजू फेनी उपलब्ध हैं. कहते हैं कि कोकोनट फेनी का इतिहास सबसे पुराना है, क्योंकि नारियल गोवा के तटों पर सदियों से आसानी से उपलब्ध था. वहीं, काजू फेनी की शुरुआत पुर्तगालियों के गोवा पहुंचने के बाद हुई. कहते हैं कि 16वीं शताब्दी में जब पुर्तगाली अपने साथ काजू के पेड़ लाए तो उसके बाद ही यहां फेनी बनने की शुरुआत हुई. इसके लिए पककर पेड़ से गिरे काजू के फलों को गम बूट से कुचला जाता है. इसके बाद जमीन में आधे दफन मिट्टी के बर्तनों में इसके रस को रखकर फर्मंटेशन की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजारा जाता है. अधिकतम 42% v/v तीव्रता वाली फेनी डबल या ट्रिपल डिस्टिलेशन की प्रक्रिया से गुजरकर तैयार होती है. फेनी सिर्फ काजू से ही नहीं, नारियल या पाम ट्री के रस से भी तैयार होती है. कोकोनट फेनी जरा स्मूद होती है, वहीं काजू से बनी फेनी तीखी फ्लेवर वाली होती है. काजू की बनी फेनी ही सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. 

देखिए कैसे बनती है फेनी 

क्यों उतनी मशहूर नहीं हुई फेनी?
सवाल उठ सकता है कि सदियों पुराना इतिहास होने के बावजूद फेनी अधिकतर गोवा तक ही क्यों सीमित रह गई? देश के दूसरे हिस्सों में यह क्यों नहीं दिखती? इसकी सेल व्हिस्की या वोदका जैसी दूसरी शराबों की तरह क्यों नहीं है? गोवा आने वाले टूरिस्ट सिर्फ यादगार निशानी के तौर पर इसे साथ ले जाना चाहते हैं. दरअसल, फेनी गोवा में बहुतायत में तैयार की जाती है. स्थानीय लोग मिट्टी और कॉपर के बर्तनों में इसे तैयार करते हैं. किसी तयशुदा मानक का पालन न करने की वजह से हर बनाने वाले की फेनी का स्वाद अलग होता है. साफ-सफाई, कंटेनरों का चुनाव, बनाने के तरीका आदि अलग होने की वजह से यहां बनने वाली फेनी की क्वॉलिटी और तीव्रता में काफी ऊंच-नीच होती है. यानी, बहुत बड़े पैमाने पर असंगठित तरीके से तैयार किए जाने की वजह से ज्यादा कड़वा और कम प्रामाणिक प्रोडक्ट उपलब्ध होता है. हालांकि, गोवा के कुछ कारोबारियों ने पिछले कुछ सालों में इसके निर्माण, पैकेजिंग और एक्सपोर्ट की दिशा में काम करना शुरू किया है.

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Goa Feni
Goa Feni (Pic Credit: AFP)

सरकार ने भी लगाया जोर 
साल 2013 में फेनी को जीआई का टैग मिला. जीआई यानी ज्योग्राफिकल इंडिकेशन. इसकी वजह से किसी खास प्रोडक्ट को तभी उसकी पहचान से जाना जाएगा, जब वो एक तयशुदा क्षेत्र में बनकर तैयार होती हो. आसान शब्दों में कहें तो गोवा में बनी फेनी ही फेनी कहलाएगी, कुछ वैसे ही जैसे स्कॉटलैंड के खास क्षेत्र में तैयार व्हिस्की को स्कॉच, जबकि मेक्सिको के खास इलाके में बनी शराब को टकीला कहा जाता है. जैसे फेनी काजू के फल से तैयार होती है, वैसे ही टकीला एक पौधे ब्लू अगेव (Blue Agave) से बनाई जाती है. खैर, साल 2016 में गोवा के तत्कालीन सीएम लक्ष्मीकांत पारसेकर ने राज्य के एक्साइज कानूनों में फेरबदल करके इसे 'हेरिटेज स्पिरिट' का दर्जा दिया. गोवा की फेनी अंतरराष्ट्रीय शराब बाजारों में भी भेजी जाने लगी है. यह अमेरिका और यूरोप के कई देशों में उपलब्ध है. कहते हैं कि लंदन और रूस में भी इसके कुछ मुरीद हैं.

गोवा के बाहर क्यों नहीं मिलती फेनी?
भारत में शराब तीन श्रेणियों में विभाजित है, पहला फॉरेन लिकर यानी विदेश में तैयार और बोतल बंद, दूसरी और सबसे लोकप्रिय इंडियन मेड फॉरेन लिकर (IMFL) और तीसरी कंट्री लिकर यानी देसी शराब. देखा जाए तो काजू की फेनी का दर्जा एक तरह से 'देसी शराब' का रहा है. इसलिए इसे दूसरे राज्यों में नहीं बेच सकते थे. वहीं, इसे तैयार करने की प्रक्रिया पर निगरानी के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, जिसकी वजह से अक्सर क्वॉलिटी संबंधित दिक्कतें होती रही हैं. शायद इसलिए सालों तक यह दूसरे राज्यों में उपलब्ध नहीं हुई. ऐसा माना गया है कि हेरिटेज स्पिरिट का दर्जा मिलने के बाद हालात सुधरने चाहिए थे, लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आया. इसे दूसरे राज्यों में एक्सपोर्ट करने के लिए काफी महंगे लाइसेंस चाहिए. वहीं, गोवा जैसा छोटा राज्य देश के बड़े हिस्से के लिए पर्याप्त फेनी उत्पादन करने की स्थिति में भी नहीं नजर आता. इन वजहों से भी फेनी फिलहाल उतनी लोकप्रिय नहीं, जितना यह डिजर्व करती है.

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