त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार देव ने हाल ही में एक बयान दिया था, जिसमें उन्होंने अधिकारियों से कहा था कि उन्हें कोर्ट की अवमानना की चिंता किए बगैर काम करना है. इस मामले में जब सीएम बिप्लव के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की मंजूरी देने के लिए आवेदन आया तो उसे राज्य के एडवोकेट जनरल ने खारिज कर दिया.
त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव देव ने हाल ही में एक बयान दिया था जिसमें उन्होंने कथित तौर पर 'ज्यूडिशियरी का मजाक' उड़ाते हुए राज्य के अधिकारियों से कहा था कि वो 'अदालत की अवमानना की चिंता किए बगैर काम करें' और ये भी कहा था कि 'पुलिस का इनचार्ज सीएम होता है.' उन्होंने कहा था, 'हम चुनी हुई सरकार हैं, कोर्ट नहीं. कोर्ट लोगों के लिए है. लोग कोर्ट के लिए नहीं.' बिप्लव देव यहीं नहीं रुके थे. उन्होंने आगे कहा था, 'वो (चीफ सेक्रेटरी) मुझे कोर्ट की अवमानना का डर दिखाते थे. जैसे कोर्ट की अवमानना कोई शेर है. मैं शेर हूं, जो शख्स सरकार चलाता है, उसपर सारी शक्ति होती है.'
इसी बयान को लेकर जब सीएम बिप्लव देव के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की मंजूरी के लिए आवेदन आया तो उसे राज्य के एडवोकेट जनरल सिद्धार्थ शंकर डे ने खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री की आसानी से चुनी गई अलग-अलग टिप्पणियों और सन्दर्भ को परिस्थितियों के बिना रिकॉर्ड में रखा गया था. बिप्लव देव ने भी सफाई देते हुए कहा कि मेरी बातों को परिस्थितियों से इतर अलग संदर्भ में लिया गया.
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क्या होती है कोर्ट की अवमानना?
कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट 1971 की धारा 2(सी) के तहत अगर कोई भी व्यक्ति लिखकर, बोलकर, इशारों से या किसी भी तरह से कोर्ट के मामलों में दखल देता है या कोर्ट के अधिकार को कम करता है या कोर्ट के काम में बाधा डालता है तो इसे 'आपराधिक अवमानना' माना जाएगा.
अगर कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के खिलाफ कोर्ट की अवमानना की कार्यवाही करना चाहता है तो उसे भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल या फिर राज्य के एडवोकेट जनरल से मंजूरी लेनी जरूरी होगी. ये इसलिए किया गया ताकि ऐसे मामलों में कोई भी व्यक्ति अदालत आने से पहले किसी कानूनी जानकार की सलाह ले ले. हालांकि, जब कोर्ट स्वतः संज्ञान लेते हुए किसी के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करती है तो उसे किसी की सलाह की जरूरत नहीं पड़ती.
क्या सीएम पर अवमानना का केस चल सकता है?
इस बारे में आजतक ने कुछ सीनियर वकीलों से बात की. भारत सरकार के पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने कहा, 'अगर कोई विधायक, मंत्री, सांसद या मुख्यमंत्री संविधान और कानून बनाए रखने की शपथ लेते हैं, लेकिन ऐसे बयान उनकी इस शपथ का उल्लंघन है और ऐसे मामलों में उनके खिलाफ भी अवमानना का केस चलाया जा सकता है.' हालांकि, उन्होंने ये भी कहा कि इस मामले में सीएम का स्पष्टीकरण आ गया है और इसमें कुछ नहीं होगा.
उन्होंने आगे कहा, 'ऐसे मामलों में एडवोकेट जनरल को ही अनुमति देनी होती है जो उसी सरकार का चुना हुआ व्यक्ति होता है. हमें भविष्य में ऐसे मामलों की स्वतंत्र जांच के लिए एक सिस्टम विकसित करना होगा, न कि अदालतों के स्वतः संज्ञान पर छोड़ देना होगा.'
सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने कहा कि अवमानना के मामले में न्यायपालिका कार्यपालिका पर काफी नरम रही है. उन्होंने कहा, 'अगर त्रिपुरा हाईकोर्ट में प्रशासन के खिलाफ कोई अवमानना का मामला पेंडिंग और मुख्यमंत्री इस तरह का बयान दे रहे हैं तो ये सीधे तौर पर अदालत की कार्यवाही में दखल देने का मामला है जो अवमानना है. नहीं तो, एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए ऐसा बयान देना सही नहीं है.' उन्होंने आगे कहा, 'उन्हें न्यायपालिका का सम्मान करना चाहिए और ऐसा लग रहा है कि वो अपने अधिकारियों को अदालत की अवज्ञा कनरे के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. ये देश के लिए सही नहीं है.'
वहीं, सीनियर एडवोकेट वी गिरि इसे अदालत की अवमानना मानने की बजाय एक 'कलंक' मानते हैं. उन्होंने कहा, 'हाल के सालों में अगर आप देखेंगे तो पता चलता है कि अवमानना के मामलों में सुप्रीम कोर्ट चौकस रहा है. वो इसलिए क्योंकि आप ऐसी बातें करने वाले हर व्यक्ति के खिलाफ नहीं जा सके.' उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि वो अपने अधिकारियों को काम करने का कह रहे थे और इसी बीच उन्होंने दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी कर दी.