scorecardresearch
 

तलाकशुदा मुस्लिम महिला के गुजारा भत्ते का मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने हाल ही में परिवारिक अदालत के आदेश को चुनौती देने वाले मामले की सुनवाई की. इसमें एक मुस्लिम महिला ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दाखिल कर अपने पति से गुजारा भत्ते की मांग की. याचिकाकर्ता ने कोर्ट में गुहार लगाई है कि वो उसके पति को 20 हजार रुपये प्रति माह अंतरिम गुजारा भत्ता देने का निर्देश दे.

Advertisement
X
सुप्रीम कोर्ट (File Photo)
सुप्रीम कोर्ट (File Photo)

अपनी तलाकशुदा पत्नी को अंतरिम गुजारा भत्ता देने के कोर्ट निर्देश को चुनौती देते हुए एक मुस्लिम व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. पहली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट इस कानूनी नुक्ते और सवाल पर विचार करने के लिए तैयार हो गया है कि क्या एक मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका बरकरार रखने की हकदार है?

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने हाल ही में परिवारिक अदालत के आदेश को चुनौती देने वाले मामले की सुनवाई की. इसमें एक मुस्लिम महिला ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दाखिल कर अपने पति से गुजारा भत्ते की मांग की. याचिकाकर्ता ने कोर्ट में गुहार लगाई है कि वो उसके पति को 20 हजार रुपये प्रति माह अंतरिम गुजारा भत्ता देने का निर्देश दे.

परिवारिक अदालत के इस आदेश को तेलंगाना हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. वहां कहा गया कि पक्षकारों ने 2017 में मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार तलाक ले लिया था. वहां सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बहाल कर दिया, जिसमें एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण के लिए सीआरपीसी की धारा 125 याचिका को बनाए रखने का हकदार माना गया था.

Advertisement

लेकिन 2019 में पटना हाईकोर्ट जज के तौर जस्टिस अहसान अमानुल्लाह ने भरण-पोषण के लिए एक मुस्लिम महिला की याचिका खारिज करने वाले पारिवारिक न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया. तब जस्टिस अमानुल्ला ने यह कहा कि मुस्लिम महिला के पास 1986 के अधिनियम के साथ-साथ सीआरपीसी के तहत भी भरण-पोषण के लिए आवेदन करने का विकल्प था. 
यदि वो दंड संहिता के तहत कानूनी राह पर होती तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसे तलाकशुदा मुस्लिम महिला होने के कारण कानून के तहत वंचित किया गया है.

याचिकाकर्ता महिला को बकाया राशि का पचास प्रतिशत 24 जनवरी 2024 तक और शेष 13 मार्च 2024 तक भुगतान करने का आदेश दिया गया था. इसके अलावा फैमिली कोर्ट को 6 महीने के भीतर मुख्य मामले का निपटारा करने का प्रयास करने के लिए कहा गया था. याचिकाकर्ता पति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और दलील दी कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार नहीं है. उसे मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 अधिनियम के प्रावधानों के तहत आगे बढ़ना होगा. उनका आग्रह है कि जहां तक ​​भरण-पोषण में राहत की बात है तो 1986 का कानून मुस्लिम महिलाओं के लिए अधिक फायदेमंद है.

Advertisement

इन तथ्यों के आधार पर याचिकाकर्ता का दावा है कि उसने अपनी तलाकशुदा पत्नी को इद्दत यानी तलाक या विछोह के बाद एकांतवास की तय अवधि यानी 90 से 130 दिन के दौरान भरण-पोषण के रूप में 15 हजार रुपए का भुगतान किया था. उन्होंने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैमिली कोर्ट में जाने की अपनी तलाकशुदा पत्नी की कार्रवाई को भी इस आधार पर चुनौती दी कि दोनों ने मुस्लिम महिला विवाह विच्छेद पर अधिकार अधिनियम 1986 की धारा पांच के मुकाबले सीआरपीसी प्रावधानों को प्राथमिकता देते हुए कोई हलफनामा प्रस्तुत नहीं किया था.

ये दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव अग्रवाल को अमाइकस क्यूरे यानी अदालत की मदद के लिए न्याय मित्र नियुक्त किया. अब इस मामले पर अगले हफ्ते 19 फरवरी 2024 को सुनवाई होगी. इसे अदालत ने विचार के लिए सूचीबद्ध कर दिया है. इस मुद्दे की जड़ भी 1985 में सुप्रीम कोर्ट आई शाह बानो बेगम के मुकदमे से जुड़ी हैं. तब सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने उस समय सर्वसम्मत फैसले में कहा था कि सीआरपीसी की धारा 125 धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है. ये मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है. हालांकि इस फैसले को समाज के कुछ वर्गों ने अच्छी तरह से स्वीकार नहीं किया और इसे धार्मिक, व्यक्तिगत कानूनों पर हमले के रूप में देखा गया.

Advertisement

इस हंगामे के परिणामस्वरूप मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 के अधिनियमन के माध्यम से फैसले को रद्द करने का प्रयास किया गया, जिसने तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को 90 दिनों तक सीमित कर दिया. इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को 2001 में डेनियल लतीफी और अन्य बनाम भारत संघ मामले में शीर्ष न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई. न्यायालय ने विशेष कानून की वैधता को बरकरार रखा। हालांकि यह स्पष्ट किया गया कि 1986 अधिनियम के तहत तलाकशुदा पत्नी का भरण-पोषण करने का मुस्लिम पति का दायित्व इद्दत अवधि तक ही सीमित नहीं है.

कुछ साल बाद इकबाल बानो बनाम यूपी राज्य मामले में, और अन्य (2007) सुप्रीम कोर्ट का मानना ​​था कि कोई भी मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका को टिकाऊ नहीं रख सकती है. इसके दो साल बाद शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले में, न्यायालय की एक अन्य पीठ ने कहा कि भले ही एक मुस्लिम महिला के पास हो इसके दो साल बाद, शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले में, न्यायालय की एक अन्य पीठ ने कहा कि भले ही एक मुस्लिम महिला का तलाक हो गया हो, वह इद्दत अवधि की समाप्ति के बाद सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार होगी. जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती. इसके बाद, शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2015) में, सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया, जिसमें एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण के लिए सीआरपीसी की धारा 125 याचिका को बनाए रखने का हकदार माना गया था.

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement