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कैसे बसपा के बाहर सिर उठा रहा है दलित राजनीति का भविष्य?

भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर ने दलित मुद्दे पर अपने समर्थकों के साथ योगी सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरकर जिस आक्रमक तरीके से मोर्चा खोला है, उसके राजनीतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं. यही नहीं हाल के दिनों में दलित मुद्दों पर चंद्रशेखर जिस तरीके से आंदोलन कर रहे हैं, उसके जरिए दलित समुदाय के बीच अपना राजनीतिक भविष्य की जगह बनाते नजर आ रहे हैं. 

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दलित नेता चंद्रशेखर
दलित नेता चंद्रशेखर
स्टोरी हाइलाइट्स
  • चंद्रशेखर क्या बसपा का विकल्प खड़ा कर पाएंगे?
  • दलित राजनीति का चेहरा बनकर उभरे चंद्रशेखर
  • मायावती की खामोशी भीम आर्मी की ताकत बनी

अस्सी के दशक में कांशीराम ने ऐसा सियासी प्रयोग किया कि देश की दलित चिंतन को राजनीतिक व्यूह रचना के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया. समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े दलितों के बीच ऐसी राजनीतिक चेतना की अलख जगी कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ दस्तक दी तो मायावती ने एक−दो बार नहीं चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली. इसके बाद से दलित वोटों पर सिर्फ मायावती का ही एकछत्र राज कायम था, लेकिन उनके जमीन पर न उतरने से दलित राजनीति का भविष्य बसपा से बाहर सिर उठाता नजर आ रहा है. 

पश्चिम यूपी में दलित राजनीति का नए चेहरा बनकर उभरे चंद्रशेखर बसपा का विकल्प सूबे में तैयार करने में जुटे हैं. हाथरस में दलित युवती के साथ हुई दरिंदगी मामले पर बसपा प्रमुख मायावती प्रेस कॉन्फ्रेंस और सोशल मीडिया तक ही सीमित रही हैं. वहीं, भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर ने इस मुद्दे पर अपने समर्थकों के साथ योगी सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरकर जिस आक्रमक तरीके से मोर्चा खोला है, उसके राजनीतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं. यही नहीं हाल के दिनों में दलित मुद्दों पर चंद्रशेखर जिस तरीके से आंदोलन कर रहे हैं, उसके जरिए दलित समुदाय के बीच अपना राजनीतिक भविष्य की जगह बनाते नजर आ रहे हैं. 

आजाद सामाज पार्टी की बुनियाद रखी

दरअसल, मायावती की मुश्किल यह है कि उन्होंने अपने सियासी जीवन में दलितों को लुभाने के लिए जिन मुद्दों को कभी हवा नहीं दी, चंद्रशेखर उन्हीं मुद्दों को हवा दे रहे हैं. चंद्रशेखर ने अपनी राजनैतिक दल भी बना लिया है और सूबे में उसे खड़ा करने में जुटे हैं. चंद्रशेखर की मंशा यह है कि बसपा सुप्रीमो मायावती को किनारे रखकर दलित समाज के लिए एक नया नेतृत्व खड़ा किया जाए. इसीलिए चंद्रशेखर ने बसपा के संस्थापक कांशीराम के जन्मदिवस पर इसी साल 15 मार्च को अपनी नई पार्टी 'आजाद सामाज पार्टी' की बुनियाद रखी है. इतना ही नहीं कांशीराम ने जिस मॉडल के जरिए बसपा का संगठन खड़ा किया था, उसी फॉर्मूले को लेकर चंद्रशेखर भी अपनी पार्टी को स्थापित करना चाहते हैं. 

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आजाद समाज पार्टी के कोर कमेटी से सदस्य और लखनऊ मंडल के प्रभारी डॉ. आकिब कहते हैं कि नीचे से अपने संगठन को बना रहे हैं. सूबे के 35 जिलों में विधानसभा स्तर से जिला स्तर पर हमारा संगठन बनकर तैयार हो गया है और इस साल प्रदेश के सभी जिलों में संगठन तैयार हो जाएगा. इसके बाद हम आजाद समाज पार्टी प्रदेश संगठन का ऐलान करेगी. हालांकि, उनका कहना है कि दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार में उनकी पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर दिया है, जो अपने संगठन को बनाने का काम कर रहे हैं. 

दलित मुद्दों को लेकर बसपा संगठन निष्क्रिय- चंद्रभान

दलित चिंतक चंद्रभान कहते हैं कि दलित मुद्दों को लेकर बसपा का संगठन निष्क्रिय बना हुआ है और मायावती खामोश हैं तो चंद्रशेखर आक्रमक और सड़क पर संघर्ष कर रहे हैं. इसके चलते दलित युवाओं के बीच चंद्रशेखर अपनी जगह बनाने में सफल हो रहे हैं. इतना ही नहीं दलित मुद्दों पर आक्रमक रुख तो अपनाते ही हैं और साथ ही सामाजिक स्तर पर जिस तरह से काम कर रहे हैं वो काबिले तारीफ है. भीम पाठशाला के जरिए पश्चिम यूपी में दलित के बीच भीम आर्मी के लोग अच्छा काम कर रहे हैं. वो कहते हैं कि इससे जाहिर होता है कि वे बसपा का विकल्प बनने की मंशा रखते हैं.

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पश्चिमी यूपी के कुछ इलाकों में चंद्रशेखर का दलितों के बीच प्रभाव बढ़ा है. वहीं, जाटव बीएसपी का मजबूत वोटबैंक हैं क्योंकि मायावती खुद भी इसी समुदाय से आती हैं. जानकारों का कहना है कि चंद्रशेखर ने दलितों के बीच जिस तरह सामाजिक क्रांति लाने की कोशिश की, उनके बीच काम किया, उससे उस समाज के बीच उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है. दलित समुदाय का खासकर युवा तबका उनके साथ तेजी से जुड़ रहा है. 

वहीं, अंबेडकर महासभा के अध्यक्ष अशोक भारतीय कहते हैं कि चंद्रशेखर के सामने अवसर तो है, लेकिन अब सिर्फ दलित के नाम पर राजनीति नहीं खड़ी की जा सकती है. अंबेडकर से लेकर कांशीराम ने बहुजन समाज की बात करते थे, लेकिन चंद्रशेख 'ग्रेट चमार' से बहुजन समाज के बीच अपना आधार कैसे बनाएंगे यह देखना होगा. इसके लिए उनके साथ बहुजन विजन के नेताओं का भी होना जरूरी है, जो फिलहाल नहीं दिख रहा है. हालांकि, दलित युवाओं का जोश जरूर उनके साथ खड़ा दिखाई देता है, लेकिन बिना विजन के ज्यादा दिन तक नहीं चल पाएगा. 

भीम आर्मी की शुरूआत सहारनपुर में दलित समुदाय के साथ हो रहे भेदभाव को लेकर की गई. चंद्रशेखर ने 2015 में दलित छात्रों का एक संगठन बनाया जिसका नाम इन्होंने 'भीम आर्मी' रखा.  इसके बाद इस संगठन ने अपनी पहुंच बढ़ाई और धीरे-धीरे करके पूरे सहारनपुर में पैठ बनने लगी. इसके बाद इस संगठन को चर्चा मिली घड़कौली कांड से. सहारनपुर रोड एक घड़कौली नाम का गांव है, जिसके बाहर गांव के कुछ दलित युवकों ने 'द ग्रेट चमार' नाम का बोर्ड लगा दिया था.

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यह बात वहीं के एक 'द ग्रेट राजपूताना' नाम के एक संगठन को पसंद नहीं आई. उस संगठन ने बोर्ड के ऊपर कालिख पोती और बोर्ड को गिरा दिया. इसके चलते दोनों समुदाय के बीच टकराव देखने को मिला था, जिसमें भीम आर्मी के युवकों ने गांव के लोगों का साथ दिया और काफी मशक्कत के बाद राजपूताना संगठन को आखिर पीछे हटना पड़ा. यहीं से इस संगठन की चर्चा होने लगी और संगठन मजबूत होता चला गया. इसके बाद सहारनपुर में साल 2017 में राजपूतों और दलितों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ था. इसमें चंद्रशेखर को मुख्य आरोपी बनाया गया था. इस हिंसा के बाद दिल्ली के जंतर-मंतर पर भीम आर्मी ने प्रदर्शन किया था. यहां से चंद्रशेखर पूरे देश की नजरों में आए थे और उन्हें लंबे समय तक जेल में भी रहना पड़ा. 

दिल्ली के रविदास मंदिर के मुद्दे पर आंदोलन

जेल से बाहर आने के बाद चंद्रशेखर ने दिल्ली के रविदास मंदिर के मुद्दे पर आंदोलन कर ऐसा माहौल खड़ा कर दिया कि सरकार को भी इस पर बैकफुट पर आना पड़ा. इसके बाद सीएए-एनआरसी के खिलाफ देश भर में हुए प्रदर्शनों में शामिल होकर चंद्रशेखर ने अपनी राजनीतिक पहचान को मजबूत किया. दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर शाहीन बाग सहित लखनऊ के घंटाघर और बिहार के पटना में चल रहे धरना प्रदर्शन में शामिल हुए. दिल्ली के जामा मस्जिद से जंतर मतर तक हुए विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने के कारण चंद्रशेखर को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में तिहाड़ जेल जाना पड़ा था. 

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राजनीतिक विश्लेषक सैय्यद कासिम कहते हैं कि चंद्रशेखर आजाद के साथ पश्चिम यूपी के कुछ युवा खासकर जाटव समुदाय के हैं, लेकिन दलित समाज के गंभीर लोग उनके साथ नहीं है. इतना ही नहीं उन्होंने अभी तक जितने मंच इस्तेमाल किए हैं उनमें सभी मुस्लिमों की भीड़ थी. इतने दिनों में दलितों को एकजुट कर उन्होंने अभी तक अपनी कोई ताकत नहीं दिखाई है. वो जनभावनाओं के मुद्दे को लेकर जरूर अपनी सियासी रोटी सेंकना चाहते हैं, लेकिन किसी तरह की गंभीर दलित राजनीति को खड़ा नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में अभी यह कहना कि चंद्रशेखर बसपा या मायावती का विकल्प बना जाएंगे यह जल्दबाजी होगी. 

हालांकि, मायावती की दलित राजनीति में सेंधमारी को उतावले चंद्रशेखर भी कांशीराम को ही अपना आदर्श मानते हैं. आपको बता दें कि मायावती भी कांशीराम को अपना राजनीतिक गुरु मानती हैं. वैसे चंद्रशेखर की कोई राजनीतिक विरासत नहीं रही है. वह इससे पूर्व में राजनीति में नहीं थे. चंद्रशेखर आजाद पेशे से वकील रहे हैं. वह सहारनपुर हिंसा के दौरान पहली बार सुर्खियों में आए थे.
 

 

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