क्या चंद्रबाबू नायडू के पास इस बात से नाराज होने का कोई कारण है कि टीडीपी के दो केंद्रीय मंत्रियों को 'भारी' माने जाने वाले विभाग नहीं मिले? राममोहन नायडू को नागरिक उड्डयन मंत्रालय दिया गया, जबकि राज्य मंत्री पी चंद्रशेखर अब ग्रामीण विकास और संचार मंत्रालयों में जूनियर हैं.
ऐसा नहीं है कि दूसरे सहयोगी दलों का प्रदर्शन बेहतर रहा है. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी (जेडीएस) अब केंद्रीय भारी उद्योग और इस्पात मंत्री हैं, जबकि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्री बनाया गया है. एलजेपी के चिराग पासवान खाद्य प्रसंस्करण उद्योग संभालेंगे, जबकि जेडीयू के राजीव रंजन सिंह को पंचायती राज और पशुपालन मंत्रालय दिया गया है.
खट्टर की लॉटरी, मिले 3 बड़े मंत्रालय
इसके विपरीत, मंत्रिमंडल में शामिल भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्रियों को बड़े मंत्रालय मिले हैं. राजनाथ सिंह रक्षा मंत्रालय की कमान संभालेंगे, जबकि शिवराज सिंह चौहान को कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली है. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की तो लॉटरी लग गई है, उन्हें आवास, शहरी मामले और ऊर्जा जैसे तीन बड़े मंत्रालय मिले हैं.
तो अब जबकि मंत्रिमंडल का स्वरूप तय हो चुका है, क्या सहयोगी दल इस बात से खुश होंगे कि इसे मोदी 3.0 के तौर पर माना जाए न कि एनडीए 3.0 के तौर पर? आखिर भाजपा क्या संदेश देना चाहती है?
बॉस कौन, दे दिया साफ संदेश
यह एक तथ्य है कि भाजपा ने जिस तरह से नए मंत्रिमंडल में यथास्थिति बनाए रखी है, उससे यह संदेश गया है कि बॉस कौन है और कौन फैसले लेगा. अभी तक यह चर्चा महाराष्ट्र में उसके सहयोगी दलों की ओर से आई है और इसका संबंध एनसीपी और शिवसेना के भीतर चल रहे आंतरिक मंथन से है.
विपक्षी INDIA ब्लॉक ने इस बात पर जोर दिया है कि भाजपा ने किस तरह से गठबंधन सहयोगियों को खिलौने दिए हैं. बेशक, तेलुगु देशम को परिवहन, आईटी या शहरी विकास जैसे अधिक महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के पोर्टफोलियो पसंद होते. वहीं, कुमारस्वामी कृषि को लीड करना पसंद करते. हालांकि, चंद्रबाबू नायडू पोर्टफोलियो आवंटन को लेकर कोई एक्शन लेने के मूड में नहीं हैं. और उनके पास ऐसा न करने के कारण भी हैं.
सियासी भूल को सुधारेंगे नायडू?
2019 की हार के बाद, नायडू के लिए अपनी लोकप्रियता वापस पाने का यह सबसे अच्छा मौका है. उन्हें यह भी पता होगा कि 2018 में एनडीए से बाहर निकलकर और उससे भी बदतर, तेलंगाना में अपने पारंपरिक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव लड़कर उन्होंने एक राजनीतिक भूल की थी. वह इस गलती को दोहराना नहीं चाहेंगे, यही वजह है कि अभी, जब तक कि कुछ नाटकीय रूप से गलत न हो जाए, वह भाजपा के साथ बने रहेंगे.
यह सच है कि आंध्र प्रदेश की जीत पूरी तरह से नायडू और पवन कल्याण की कोशिश है, लेकिन तेलुगु देशम के प्रमुख जानते हैं कि केंद्र में भाजपा उनके राज्य को आगे ले जाने की उनकी योजनाओं के लिए महत्वपूर्ण है. इसलिए उनका ध्यान बढ़िया विभागों पर कम और नई दिल्ली से अच्छी वित्तीय सहायता प्राप्त करने पर अधिक होगा. वह एक अनुभवी राजनीतिक दिमाग हैं.
आसान नहीं होगा दबाव बनाना
नायडू इस बात से पूरी तरह वाकिफ होंगे कि अपने तीसरे कार्यकाल में मोदी 1999-2004 वाले वाजपेयी नहीं हैं और उन पर इतनी आसानी से दबाव नहीं बनाया जा सकता है. पिछले 48 घंटों में भाजपा के कदमों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सरकार मोदी 3.0 होगी, लेकिन लोकसभा में एनडीए 3.0 में बदल जाएगी. जहां सहयोगियों का सहयोग इसकी जीवन रेखा होगी.
तीसरा, नायडू ने अपनी उत्तराधिकार योजना स्पष्ट रूप से तैयार कर ली है और किसी भी अन्य क्षेत्रीय पार्टी की तरह, वह नहीं चाहेंगे कि टीडीपी में कोई दूसरा नेता- चाहे वह अमरावती में हो या नई दिल्ली में- नारा लोकेश पर हावी हो जाए. 2024 के जनादेश ने पार्टी में कई युवा राजनेताओं को सामने ला दिया है. नायडू चाहेंगे कि वे टीम लोकेश का हिस्सा बनें, वह इस बात से सावधान रहेंगे कि राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता की अफीम किसी महत्वाकांक्षी दिमाग को क्या नुकसान पहुंचा सकती है.
अल्पसंख्यक वोटों की भी चिंता नहीं
चौथा, अपनी जीत के बाद नायडू को अब इस बात की चिंता नहीं रहेगी कि भाजपा के साथ गठबंधन करने के कारण अल्पसंख्यक वोट उनसे दूर जा रहे हैं. यह काफी बड़ा बदलाव है, क्योंकि दो दशक से भी अधिक समय पहले, गुजरात दंगों के बाद, उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी पर लगाम लगाने के लिए कहा था.
भाजपा के साथ चुनावी साझेदार के रूप में नायडू ने दो चुनाव (2014 और 2024) जीते हैं. आगे चलकर, आंध्र प्रदेश में टीडीपी का मुस्लिम आरक्षण वाला वादा एक पेचीदा मुद्दा हो सकता है, लेकिन दोनों वरिष्ठ राजनेता इस पर कोई विवाद नहीं करेंगे. पांचवां, जहां तक सुधारोन्मुख एजेंडे का सवाल है. नायडू और मोदी एक ही पृष्ठ पर होंगे. नायडू शासन में अधिक तकनीक के समर्थक रहे हैं और मोदी बेहतर तरीके से उन्हें ऐसी सभी पहलों का पोस्टर बॉय बना सकते हैं.
नारे पर बीजेपी को होना होगा कायम
यह (मोदी 3.0) काफी हद तक मोदी का शो होने की उम्मीद है. लेकिन प्रधानमंत्री को संघवाद के मुद्दे पर सिर्फ दिखावटी बातें करने से ज्यादा कुछ करना होगा. सत्ता में बने रहने के लिए महत्वपूर्ण शक्तिशाली सहयोगियों के साथ, मोदी सरकार अब राज्यों को बिना किसी शिकायत के अपने फैसले स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती.
अपने पहले कार्यकाल में, मोदी ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकें कीं और इसे 'टीम इंडिया' कहा. एक चुनाव अभियान के बाद दिखावे और मतभेदों को दूर करने के लिए उन्हें फिर से शुरू करना होगा. भाजपा का नारा 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' एनडीए साझेदारी के लिए उतना ही लागू होना चाहिए, जितना कि भारत के लोगों के लिए, क्योंकि 'बड़े भाई' का सब कुछ जानने वाला रवैया नाजुक राजनीतिक अहंकार के लिए चोट पहुंचाने वाला हो सकता है.