
राजस्थान का दौसा रविवार को सियासी गलियारों के 'हॉट प्लेस' में से एक था. सबकी निगाहें दौसा पर टिकी थीं. सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि थी और खबरें थीं कि अपने पिता को श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद पायलट अपनी पार्टी का ऐलान कर सकते हैं. सचिन पायलट ने अपने पिता को श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद उपस्थित जनसमूह को संबोधित भी किया लेकिन वह घोषणा नहीं हुई जिसकी चर्चा थी.
सचिन पायलट ने पार्टी बनाने का ऐलान भले ही नहीं किया लेकिन वे अपने उठाए मुद्दों पर अडिग रहने के संकेत दे गए. सचिन पायलट ने पूरे संबोधन के दौरान अशोक गहलोत का नाम नहीं लिया. पायलट ने भ्रष्टाचार को लेकर कहा कि राजनीति में इसके लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने अपने उठाए मुद्दों की चर्चा करते हुए एक तरह से सफाई देते हुए कहा कि हमने जो मुद्दे उठाए हैं, वो किसी के खिलाफ नहीं हैं. ये जनहित से जुड़े हैं.
पायलट ने कोटा में बच्चों की मौत का मुद्दा उठाने का हवाला भी दिया और कहा कि इसके बाद वहां बड़े हॉस्पिटल का निर्माण हुआ. पिछले कुछ समय से आग उगलते रहे सचिन पायलट जहां नरम नजर आए, वहीं अपने उठाए मुद्दों पर टिके रहने का संदेश भी दिया. पायलट ने 'हर गलती सजा मांगती है' जैसे बयानों से अशोक गहलोत पर तंज किया तो साथ ही ये संदेश देने की भी कोशिश की है कि मुख्यमंत्री से निजी अदावत जैसा कुछ भी नहीं है, जो भी है वह जनहित से जुड़े मुद्दों को लेकर है और वे जनहित के लिए आगे भी लड़ते रहेंगे.
छटपटाहट वही... लेकिन स्टेप नहीं
सचिन पायलट के दौसा में भाषण, अपने मुद्दों पर टिके रहने का संदेश था और गहलोत को लेकर नरमी भी. पायलट ने भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनहित के लिए लड़ने का संकल्प भी दोहराया. इन सबको लेकर राजनीति के जानकारों का कहना है कि सचिन पायलट के संबोधन में वही छटपटाहट दिखी जो पिछले कुछ समय से नजर आ रही है. छटपटाहट वही है लेकिन वे स्टेप लेने से बच भी रहे हैं.
'वेट एंड वॉच' के मोड में पायलट
सचिन पायलट की नाराजगी तो समय-समय पर खुलकर सामने आती रही है लेकिन वे कोई कड़ा कदम उठाने से बचते भी नजर आए हैं. सचिन पायलट इस समय भी वेट एंड वॉच के मोड में नजर आ रहे हैं. सचिन पायलट ने तेवर दिखाए, तल्खी जताई, अपनी ही सरकार के खिलाफ पदयात्रा भी निकाली लेकिन न तो पार्टी छोड़ने का ऐलान किया और ना ही पार्टी बनाने की अटकलों को लेकर ऐसे कोई संकेत ही दिए.

सचिन पायलट के लिए ये जरूरी है या कोई सियासी मजबूरी है? इसे लेकर चुनाव विश्लेषक अमिताभ तिवारी कहते हैं कि दोनों ही बातें हैं. ये सचिन पायलट के लिए जरूरी भी है और मजबूरी भी. वे कहते हैं कि पायलट को ये बात बहुत पहले ही समझ लेनी चाहिए थी. अब वे राजनीति के जादूगर अशोक गहलोत के बिछाए सियासी जाल में पूरी तरह से फंस चुके हैं.
'आगे कुआं, पीछे खाई' जैसी स्थिति
सचिन पायलट के लिए आगे कुआं, पीछे खाई जैसी स्थिति बन गई है. अगर वे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए जुटते हैं और हर बार सरकार बदलने का ट्रेंड तोड़ते हुए पार्टी जीत जाती है तो दिक्कत, हार जाती है तो दिक्कत. सियासत के जानकारों की मानें तो जीत की स्थिति में सेहरा गहलोत के सिर बंधेगा, उनकी जादूगरी को क्रेडिट जाएगी तो वहीं ट्रेंड के मुताबिक कांग्रेस हार जाती है तब भी ठीकरा पायलट के सिर फूटेगा. सचिन पायलट अगर कांग्रेस में ही रहते हैं तो भी उनका कद पहले जैसा रहेगा, इसके आसार भी बहुत कम हैं.
नई पार्टी के ऐलान से क्यों बच रहे पायलट
दौसा की सभा से पहले कहा जा रहा था कि सचिन पायलट कोई बड़ा ऐलान करेंगे. वे नई पार्टी का ऐलान कर सकते हैं लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. सचिन पायलट के नई पार्टी का ऐलान करने से बचने के पीछे दो प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं. पहला- वित्तीय संसाधन और दूसरा- राजस्थान का चुनावी इतिहास. पार्टी गठित करने, चुनाव में मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने के लिए वित्तीय संसाधनों की जरूरत होगी.

राजस्थान के चुनावी इतिहास को देखते हुए सचिन पायलट के लिए पार्टी बनाने की स्थिति में वित्तीय संसाधन जुटा पाना आसान नहीं होगा. राजस्थान के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो यहां की राजनीति दो-ध्रुवीय रही है. राजस्थान में चुनावी मुकाबला कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), इन्हीं दोनों दलों के बीच रहता है. ऐसा भी नहीं है कि क्षेत्रीय पार्टियां कभी अस्तित्व में ही ना आई हों. क्षेत्रीय दलों का गठन हुआ, चुनावी चुनौती भी पेश की लेकिन सरकार बनाना तो दूर, ये कभी किंग मेकर की भूमिका में भी नहीं आ सके.
गहलोत के जाल में फंस गए पायलट
साल 2018 के विधानसभा चुनाव के समय अशोक गहलोत कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव थे और सचिन पायलट राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष. प्रदेश अध्यक्ष के नाते पार्टी की चुनावी नाव की पतवार पायलट के ही हाथों में थी. टिकट वितरण से लेकर चुनाव प्रचार अभियान तक, पायलट ने अपनी संगठन क्षमता का लोहा मनवाया भी. कांग्रेस की जीत के बाद सचिन पायलट को मुख्यमंत्री पद का भी सशक्त दावेदार माना जा रहा था लेकिन दिल्ली में कई दिन मंथन, कई दौर की बैठक के बाद मुख्यमंत्री के लिए गहलोत के नाम का ऐलान हुआ और पायलट को डिप्टी सीएम से संतोष करना पड़ा था. लेकिन अब परिस्थितियां पूरी तरह बदली हुई हैं.
राजस्थान में हुई सियासी उथल-पुथल, गहलोत सरकार पर आए संकट के बाद सचिन पायलट एक तरह से हाशिए पर चले गए हैं. चुनाव विश्लेषक अमिताभ तिवारी का कहना है कि सचिन पायलट, अशोक गहलोत के बिछाए सियासी जाल में पूरी तरह से फंस चुके हैं. सचिन पायलट को राजनीति के जादूगर के इस सियासी जाल से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा. कुल मिलाकर सचिन पायलट ऐसी स्थिति में हैं जिसमें उनके लिए अपनी सियासी दिशा तय कर पाना आसान नहीं.