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कमजोर होती BSP, क्या दलितों को है अब नए नेता की तलाश?

देश की दलित राजनीति समय के साथ काफी बदल गई है. जिस राजनीति को सही मायनों में कांशीराम ने 80 के दशक में शुरू किया था, आज सभी राजनीतिक दल खुद को उसी राजनीति की विरासत का वारिस साबित करने में जुटे हैं.

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BSP को कमजोर होता देख सभी पार्टियां अब दलितों को लुभाने में जुटी हैं (फाइल फोटो)
BSP को कमजोर होता देख सभी पार्टियां अब दलितों को लुभाने में जुटी हैं (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • कांग्रेस के लिए जगजीवन राम लाए थे दलित वोट
  • कांशीराम ने शुरू की 'बहुजन' वाली राजनीति
  • बीजेपी ने अपनाई 'आर्थिक उत्थान' वाली नीति

डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर....भारत के संविधान के जनक और पिछड़ों की आवाज जिन्होंने देश की राजनीति का स्वरूप हमेशा के लिए बदल दिया. कुछ दिन पहले पूरे देश में उनकी 131वीं जयंती बनाई गई थी. हर राजनीतिक दल ने बड़े-बड़े कार्यक्रम किए थे. सभी का उद्देश्य सिर्फ एक था- दलित राजनीति को साधना.

अंबेडकर जयंती और सियासी कार्यक्रम

अंबेडकर जयंती के मौके पर क्या बीजेपी, क्या कांग्रेस और अब तो क्या आम आदमी पार्टी, सभी ने इस खास मौके पर बड़े सियासी दांव खेले. सबसे बड़ा ऐलान तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरफ से हुआ. उन्होंने बताया कि  दिल्‍ली के स्‍कूल ऑफ एक्सिलेंस का नाम बदलकर अंबेडकर स्‍कूल ऑफ एक्सिलेंस कर दिया गया है.

बीजेपी-कांग्रेस ने क्या किया?

मध्य प्रदेश में तो डॉक्टर अंबेडकर की जन्म स्थली महू में सीएम शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान किया कि अंबेडकर की जन्म स्थली को तीर्थ दर्शन योजना में शामिल किया जाएगा. ऐसे में बुजुर्ग और दूसरे लोग मुफ्त में वहां का सफर कर सकेंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के तीन मूर्ति भवन परिसर में बने प्रधानमंत्री संग्रहालय का उद्घाटन किया. वहीं, कांग्रेस ने भी देश के कई हिस्सों में अंबेडकर जयंती पर आयोजन रखा. पूर्व सीएम कमलनाथ से लेकर दिग्विजय सिंह तक महू में शामिल हुए.  महाराष्ट्र में सीएम उद्धव ठाकरे ने भी वाईवी चौहान सेंटर में अंबेडकर जयंती मनाने के लिए एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया. वहां एनसीपी प्रमुख शरद पवार भी मौजूद रहे.

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बसपा का क्या दांव रहा?

दलित आंदोलन से निकली बहुजन समाज पार्टी की बात करें तो यूपी में बड़े पैमाने पर अंबेडकर जयंती को लेकर कार्यक्रमों का आयोजन किया गया था. कोरोना काल के बाद ये पहली बार था जब पार्टी द्वारा हर संभाग में कार्यक्रम आयोजित किया गया. खुद बसपा प्रमुख मायावती ने लखनऊ में राज्य पार्टी कार्यालय में डॉ. अंबेडकर को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और काफी तल्ख अंदाज में पूरे विपक्ष पर हमला बोला. उन्होंने कहा कि जातिवादी सरकारें उपेक्षित वर्ग के नेताओं को अपने समाज का भला करने की छूट नहीं देती हैं, यदि कोई कुछ करने का प्रयास करता है तो उसको दूध की मक्खी की तरह निकाल-बाहर कर दिया जाता है, जैसा कि अब तक यहां होता रहा है.

दलित राजनीति का इतिहास और सियासी पड़ाव

ये तमाम सियासी दल जिस दलित राजनीति पर अपना ध्यान केंद्रित करने का प्रयास कर रहे हैं, इसकी असल शुरुआत तो आजादी से पहले ही हो गई थी. आजाद भारत में भी डॉक्टर बीआर अंबेडकर ने 1956 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की थी. इस पार्टी ने 1960 के दशक में महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तर भारत में अपना मजबूत जनाधार बनाया था. कहा जाता है कि रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के कई बड़े आंदोलनों के दम पर ही देश को दलित राजनीति के रूप में एक नया विकल्प मिला था. तब महाराष्ट्र में दलित राजनीति का गढ़ विदर्भ बना तो यूपी में आगरा सियासी प्रयोगशाला रही. हालांकि, बाद में अंबेडकर के निधन के बाद इसी पार्टी के कई नेता कांग्रेस में शामिल हुए और देखते ही देखते पार्टी कई टुकड़ों में बंट गई. आज रामदास अठावले वाली रिपब्लिकन पार्टी सत्ता में मोदी सरकार की साथी है.

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दक्षिण भारत की दलित राजनीति

दक्षिण भारत में भी 1916 में ही दलित और पिछड़ी जातियों को लेकर सियासी आंदोलन चरम पर था. 1925 में सामाजिक चिंतक पेरियार ईवी रामासामी ने दलित और पिछड़ी जातियों को समाज में बराबरी का हक दिलाने के लिए आत्मसम्मान आंदोलन शुरू किया तो अन्नादुरई भी इससे जुड़ गए. राज्य में दलित सियासत की ऐसी मशाल जलाई की आज तक वहां पर दलित केंद्रित राजनीति है. सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही दलों ने हमेशा दलित मतों पर अपनी पकड़ रखी है. स्थानीय पार्टियां और भी कई हैं, सिर्फ दलितों के लिए काम भी करती हैं, लेकिन उनकी चुनावी उपस्थिति काफी कम है. पेरियार से शुरू स्टालिन तक सामाजिक न्याय मुख्य एजेंडे में रही. 

जब कांग्रेस के साथ था दलित वोटर

तमिलनाडु में अगर दलित राजनीति का अलग स्वरूप देखने को मिल रहा था तो कांग्रेस में भी बड़े सियासी बदलाव की तैयारी थी. साल 1969 में इंदिरा गांधी का अपनी पार्टी के अंदर ही भारी विरोध देखने को मिला था. तब कांग्रेस में सिंडिकेट और इंडिकेट में बंट गई. इंदिरा गांधी ने बड़ा सियासी दांव चलते हुए नई कांग्रेस का गठन किया और दलित नेता जगजीवन राम को पार्टी अध्यक्ष बनाया. उस एक फैसले ने देश के एक बड़े दलित समूह को कांग्रेस पार्टी से जोड़ दिया था. लेकिन जगजीवन राम का कांग्रेस में ये सफर ज्यादा लंबा नहीं चला और आपातकाल लगने के कुछ समय बाद ही वे पार्टी से अलग हो गए. उनका जाना कांग्रेस के लिए दलित वोटबैंक का जाना भी रहा गया.

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कांशीराम ने बदली दलित राजनीति

70 के दशक में दलित राजनीति काफी कमजोर पड़ गई थी, सत्ता में उसकी हिस्सेदारी भी काफी कम थी.  80 के दशक में कांशीराम ने एक बार फिर दलित राजनीति की अलख जगाई. उन्होंने सबसे पहले 'बैकवर्ड एंड मायनारिटीज शेड्यूल्ड कास्ट इंप्लाई फेडरेशन' (बामसेफ) का गठन किया. 1978 में ये संगठन बनाया गया था, लेकिन 1980 के बाद ये प्रभावी अंदाज में सक्रिय हुआ और कई राज्यों में इसके बड़े और सफल अधिवेशन हुए. उन्हीं ने दलितों को 'बहुजन' कहकर संबोधित करना शुरू किया. बाद में बहुजन समाज पार्टी का जन्म हुआ और दलित राजनीति का और विस्तृत रूप देखने को मिला. तब कांशीराम की तरफ से सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया. बसपा की कोर विचारधारा बने और इसी के दम पर पार्टी ने कई सालों तक यूपी की राजनीति में अपना एक अहम स्थान रखा. इसी वजह से मायावती भी एक या दो बार नहीं बल्कि चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बनीं.

पंजाब में लंबे समय तक बहुजन समाज पार्टी भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रही. देश की सबसे ज्यादा दलित आबादी भी इसी राज्य से आती है. खुद कांशीराम भी पंजाब के होशियारपुर से थे, लेकिन यहां की दलित राजनीति दूसरे राज्यों की तुलना में काफी अलग रही है. यहां दलित समाज वाल्मिकी, रविदासी, कबीरपंथी, मजहबी सिख में बंटा हुआ है. इसी वजह से पंजाब की जगह यूपी को कांशीराम ने अपना राजनीतिक केंद्र बनाया था. अब सबसे ज्यादा सफलता बसपा को यूपी में ही मिली, लेकिन उसने उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में भी पार्टी का संगठन मजबूत किया.

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बहुजन समाज पार्टी का पतन

अब बहुजन समाज पार्टी ने राजनीति के लिहाज से सफलता की उच्चतम पीक साल 2007 में छुई थी जब उसने अपने दम पर यूपी में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाई. लेकिन जिस 'दलित, ब्राह्मण और मुसलमान' वोटों के दम पर उन्होंने अपनी सरकार बनाई थी, आने वाले सालों में यही सोशल इंजिनीयिरग उन्हें राजनीतिक लाभ के बजाय नुकसान दे गई. राजनीतिक जानकार मानते हैं 2014 के बाद से दलित का एक बड़ा वर्ग बीजेपी के पास गया है तो मुस्लिम समाजवादी पार्टी को पहला विकल्प चुना है तो दूसरे राज्यों में भी बसपा की उनके बीच उपस्थिति कमजोर हुई है.

दलितों के 'आर्थिक उत्थान' वाला दांव

अब राजनीतिक जानकार बताते हैं कि दलित समाज का बंटवारा हुआ है. ऐसा बंटवारा जहां पर एक वर्ग 'बड़े सपनों' की ओर अग्रसर हुआ. जिसे सिर्फ सामाजिक न्याय या कह लीजिए सम्मान नहीं चाहिए था, बल्कि आर्थिक  और राजनीतिक रूप से भी सशक्त बनना है. उसकी आकांक्षाएं  बढ़ने लगी हैं. साल 2014 में उन्हीं आकांक्षाओं को अपने चुनावी प्रचार का आधार बनाकर बीजेपी ने बड़ा दांव खेला था. सामाजिक परिवर्तन से आगे बढ़कर आर्थिक सशक्तिकरण पर जोर दिया गया. 

बीजेपी के साथ गया दलित वोटर?

NES का सर्वे बताता है कि उस चुनाव में हर चार में से एक दलित ने बीजेपी को वोट दिया था. वहीं तब 84 आरक्षित सीटों में से बीजेपी ने 41 अपने नाम की थी. दूसरा बड़ा कारण था बहुजन समाज पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन जहां पर यूपी में तो पार्टी एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं रही. आंकड़े बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी का वोट शेयर सिर्फ 4.1 फीसदी रह गया था, जो 2009 में 6.2 % था.  2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी दलितों का बीजेपी के प्रति ज्यादा रुझान देखने को मिला. देश में कुल 131 सीटें रिजर्व हैं. 84 अनुसूचित जाति के लिए और 47 अनुसूचित जनजाति के लिए. आंकड़े बताते हैं कि बीजेपी ने 2019 में मोदी लहर के दम पर 77 सीटों पर जीत हासिल की. 

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अब दलितों के एक वर्ग में बीजेपी के बढ़े रुझान का असर पार्टी की योजनाओं और मंत्रिमंडल में भी देखने को मिला. मोदी सरकार ने कुछ ऐसे फैसले लिए जिसने कम से कम दलित समाज के एक वर्ग को जरूर उनकी ओर आकर्षित किया. एक तरफ सरकार ने पंचतीर्थ के विकास का ऐलान किया था जहां पर अंबेडकर से जुड़ी पांच जगहों को स्मृति स्थल में तब्दील किया गया तो वहीं दूसरी तरफ सरकार की उज्जवला योजना, जनधन योजना, ग्राम ज्योति योजना, मुद्रा योजना ने सीधे दलित समाज के एक बड़े तबके को मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया. इसके अलावा 26 नवंबर को संविधान दिवस घोषित कर भी पार्टी ने बड़ा संदेश देने का प्रयास किया.

बीजेपी पर जब लगे 'दलित विरोधी' आरोप

 लेकिन फिर भी विपक्ष द्वारा मोदी सरकार को 'दलित विरोधी' जरूर बताया गया. देश में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिस वजह से सरकार को भारी विरोध का सामना करना पड़ा. साल 2018 में पुणे में जातीय हिंसा देखने को मिली थी. तब पुणे में भीमा-कोरेगांव की ऐतिहासिक लड़ाई की 200वीं सालगिरह पर कुछ कथित हिंदुवादी संगठनों ने जमकर बवाल काटा था. तब दलितों की गाड़ी में आग लगाई गई थी और उनके साथ मारपीट भी हुई. हादसे में एक शख्स ने जान गंवाई थी. इसके बाद दलित समूहों द्वारा पूरे महाराष्ट्र में बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन किया गया था. 

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इसी तरह 2016 में गुजरात के ऊना में कुछ दलित युवकों को सड़क पर बेरहमी से पीटा गया था. तब उस मुद्दे ने गुजरात की राजनीति में भूचाल ला दिया था और जिग्नेश मेवाणी जैसे दलित नेताओं ने सड़क पर खूब आंदोलन किया था. वहीं, जनवरी 2016 को रोहित वेमुला के आत्महत्या वाले मामले ने भी मोदी सरकार पर आरोप लगे थे. साल 2018 में तब देखने को मिला जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम (एससी/एसटी एक्ट 1989) के तहत दर्ज मामलों में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी. उस समय कोर्ट के फैसले का पूरे देश में विरोध हुआ था. दलित समाज नाराज था, विपक्ष हमलावर था और कुछ जगहों पर हिंसा तक होने लगी थी. उस समय केंद्र सरकार ने SC/ST एक्ट को उसके मूल स्वरूप में लाने का फैसला किया. सरकार द्वारा संशोधन विधयक लाया गया.

कांग्रेस का गिरता दलित जनाधार

बीजेपी ने तो इस दलित राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत की तो कांग्रेस से दलित दूर हुए. पार्टी एक बार फिर दलित वोटों को अपने पाले में लाना चाहती है. कांग्रेस नेता Koppula Raju ने अपनी किताब द दलित ट्रुथ में विस्तार से बताया है कि कांग्रेस कैसे दलितों का दिल फिर जीत सकती है. किताब में इस बात का भी जिक्र हुआ है कि बसपा प्रमुख मायावती ने अब लड़ना छोड़ दिया है, वे कांशीराम के सपनों को भूल चुकी हैं, ऐसे में कांग्रेस को अलग-अलग कार्यक्रमों के जरिए उन तक पहुंचना चाहिए और उस खाली स्पेस को भरना चाहिए. ऐसे में कांग्रेस ने पंजाब में पहला दलित सीएम चरणजीत सिंह चन्नी के रूप देकर दलित राजनीति का एजेंडा सेट किया, लेकिन सफल नहीं हो सका. 

वैसे जितनी तेजी से बीजेपी ने दलित राजनीति में अपने पैर जमाए हैं, उतनी ही तेजी से आम आदमी पार्टी ने भी इस दिशा में अपना विस्तार किया है. पंजाब विधानसभा चुनाव के नतीजें भी ये स्पष्ट दिखाते हैं. पंजाब की 34 रिजर्व सीटों में से 26 पर आम आदमी पार्टी ने जीत हासिल की थी और पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई.  ये अलग बात है कि अकेले दलित फैक्टर के दम पर ये सीटें नहीं जीती गईं. चुनाव प्रचार के दौरान भी हर सरकारी दफ्तर में भगत सिंह और अंबेडकर की तस्वीर लगाने जैसे चुनावी वादों ने भी पार्टी की सियासी पिच को काफी मजबूत किया था.

गांधीवादी से अंबेडकरवादी बने केजरीवाल?

दिल्ली में 'शिक्षा' को अपना सियासी हथियार बना आम आदमी पार्टी दलित राजनीति को धार देने का काम कर रही है. यहां सिर्फ डॉक्टर अंबेडकर की फोटो लगाने तक सीमित नहीं रहा जा रहा है, बल्कि उनके नाम पर स्कूल ऑफ एक्सिलेंस शुरू करने की बात हो रही है. इस सब के ऊपर पार्टी के सबसे बड़े चेहरे अरविंद केजरीवाल लगातार कह रहे हैं कि वे अंबेडकर के सपनों को पूरा करेंगे. वे उन्हें सही मायनों में सम्मान दिलवाने का काम करेंगे.


अरविंद केजरीवाल की राजनीति में बड़ा परिवर्तन देखने को मिल गया है. आज से 11 साल पहले यही अरविंद केजरीवाल 'गांधीवादी' हुआ करते थे. उनके सिर पर गांधी टोपी होती थी और वे आंदोलन के जरिए क्रांति की बात करते थे. उनकी आम आदमी पार्टी का जन्म भी 2 अक्टूबर 2012 को ही हुआ था. ऐसे में शुरुआती सालों में अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के केंद्र में हमेशा महात्मा गांधी रहे थे. लेकिन अब राजनीति का मिजाज बदला है और उस बदले हुए मिजाज की वजह से ही अरविंद केजरीवाल गांधीवादी के साथ-साथ अंबेडकरवादी भी बन गए हैं.

कितनी बदली देश की दलित राजनीति?

इस बदली हुई रणनीति के कई कारण माने जा रहे हैं. राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इस समय दलित राजनीति बिखराव का शिकार हुई है. यूपी में बसपा का कमजोर होना, बिहार में राम विलास पासवान का निधन और महाराष्ट्र में भी रामदास अठावले के सीमित प्रभाव ने दलित राजनीति में एक बड़ा खालीपन ला दिया है. ऐसे में आम आदमी पार्टी द्वारा दलित समाज को बड़ा संदेश देने का कोई भी मौका छोड़ा नहीं जा रहा है. पंजाब चुनाव में मिली बड़ी जीत के बाद सीएम भगवंत मान ने अपनी कैबिनेट में चार अनुसूचित जाति के मंत्री बनाए हैं, लेकिन किसी को राज्यसभा न भेजकर घिरे भी. 

वैसे हर पार्टी इस समय दलितों को साधने में जरूर लगी है, लेकिन बड़े पदों पर उनकी मौजूदगी आज भी सीमित है. इस बात का अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि पिछले साल पंजाब को कांग्रेस की तरफ से देश को पूरे 6 साल बाद एक दलित मुख्यमंत्री दिया गया था. उससे पहले 2015 में बिहार में कुछ समय के लिए जीतन राम मांझी सीएम बनाए गए थे. ये भी देश की दलित राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन है क्योंकि पहले इस जाति से कई मुख्यमंत्री बनते थे. फिर चाहे तमिलनाडु में तीन बार सीएम बने के. कामराज रहे हों, महाराष्ट्र में कांग्रेस द्वारा सुशील कुमार शिंदे को मौका दिया गया हो, बिहार के पहले दलित सीएम भोला पासवान की बात हो या फिर यूपी में मायावती रहीं हों. लेकिन अब दलित राजनीति में आए इसी खालीपन को भरने के लिए बीजेपी से लेकर आम आदमी पार्टी तक अपने प्रयासों में तेज हो गई है.

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